दस महाव्रत (1) अहिंसा

दस महाव्रत [१]-

अहिंसा

(१)

‘अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।’ *

(योगदर्शन २।३५)

‘इन हिंसकोंका पालन अच्छा नहीं!’ बगलमें बैठे केशरी-शावककी ओर संकेत करके किशोरने माधवरावसे कहा। ‘ये किसीके होते नहीं। पता नहीं इन्हें कब क्रोध आ जाय। कम-से-कम इस प्रकार स्वतन्त्र तो नहीं ही रखना चाहिये।’

‘ओह, यह भोला शिशु’ माधवरावने उस सिंहशिशुके मस्तकपर हाथ फेरते हुए कहा। ‘इसे क्या बाँधकर रखा जा सकता है ? तुम देखते नहीं कि यह मुझे कितना चाहता है। कुत्तेके समान मेरे पीछे लगा फिरता है।’

‘फिर भी……’ किशोरने रोका; परंतु माधवराव बिना रुके बोलते गये। ‘फिर भी यह हिंसक है और धोखा दे सकता है, तुम यही तो कहना चाहते हो ? सच पूछो तो मैंने इसे इसीलिये पाला भी है। इसकी सहोदरा मेरे द्वारा रक्षित न हो सकी। वह बेचारी इसे अकेली छोड़ गयी। अभी एक महीना ही तो हुआ है उसे मरे। और इसकी माँ-इसके देखते-देखते मैंने इसकी माँका वध किया है।’ माधवरावके नेत्र टपकने लगे। कण्ठ भर आया। आँसुओंको पोंछकर उन्होंने अपने पालतू सिंहको देखा। वह चुपचाप इनके मुखको इस प्रकार देख रहा था, मानो वह भी इनके कष्टसे रोना ही चाहता हो।

‘मैं इसकी माताका हत्यारा हूँ! यदि यह मुझसे अपनी माताका

* अहिंसाकी दृढ़ स्थिति हो जानेपर उस योगीके निकट सब प्राणी वैरका त्याग कर देते हैं।

बदला ले तो वह न्याय होगा। अपने दुष्कर्मका इस प्रकार प्रतीकार करनेका अवसर प्राप्त करनेकी आशासे ही मैंने इसका पालन किया, किंतु यह अपनी माताके वधिकपर भी विश्वास करता है। देखो न ! उलटे मेरे दुःखसे पीड़ित होता है। इससे प्रतीकारकी भी आशा कहाँ ?’

(२)

वृक्षोंकी आड़ थी; फिर भी घोड़ेकी टापोंके शब्दने सिंहनीको सावधान कर दिया। अपनी गुफासे वह बाहर आयी और तनकर खड़ी हो गयी। उसके साथ उसके दोनों बच्चे भी निकल आये। यद्यपि सिंहनीने उन्हें गुफामें ढकेलना चाहा; किंतु बच्चे तो बच्चे ही ठहरे। वे तो परिस्थिति समझते नहीं। इधर-उधर खिसककर वे माँके पास ही रहना चाहते थे। इधर घोड़ेके पैरोंका शब्द पास आ गया था और सिंहनीको अवकाश नहीं था बच्चोंको गुफाके भीतर लेकर जानेका। उसने उन्हें गुफाके द्वारपर ढकेल दिया और आप कान खड़े करके गुर्राने लगी।

बच्चा देनेपर तो गाय भी मारने दौड़ती है बच्चेके पास जानेवालोंको, फिर सिंहनी तो सिंहनी ही है। बच्चे समीप होनेपर वह असह्य हो जाती है। माधवराव जैसा प्रवीण शिकारी इसे भलीभाँति जानता था। उसे पता था कि यदि प्रथम लक्ष्यमें ही वह धराशायी नहीं हो गयी तो शिकारीको स्वयं शिकार बननेमें देर न लगेगी। उसके कराल आक्रमणमें सावधानीसे लक्ष्य लेना सरल नहीं है।

भीलोंने ठीक पता बतला दिया था, जहाँ सिंहनीने गुफामें बच्चे दिये थे। झाड़ियोंकी सघनताका आश्रय लेते हुए माधवरावका घोड़ा बढ़ा आ रहा था। अन्तमें एक झाड़ीके पीछे नन्हें-से मैदानमें अपनी ओर मुख किये उस मृगेन्द्रवधूपर दृष्टि पड़ी। घोड़ा रुक गया। धनुषपर बाण चढ़ चुका था। एक सधा हुआ हाथ छूटा। चीत्कारसे जंगल गूँज उठा। सिंहनी तड़पी और गिर गयी।

निपुण शिकारी समझ गया कि अब वह उठ नहीं सकती। घोड़ेसे उतरकर उसे पेड़की डालसे बाँध दिया और स्वयं सिंहनीकी ओर बढ़ा। बाण ठीक मस्तकके मध्यमें लगा था। सिंहनी आड़े पड़ी थी और उसके दोनों बच्चे उसके पास दौड़ आये थे। एक स्तन पी रहा था, दूसरा मुख सूँघ रहा था।

शिकारी स्तम्भित हो गया। उसने देखा- मस्तकसे- बाणके पाससे रक्त टपक रहा है। दो भोले शिशु माँके पास हैं और सिंहनीका वह निष्प्राण शरीर अब भी उसे अपने अग्निनेत्रोंसे घूर रहा है। ‘हत्यारे इन्हें भी मार!’ मानो वह कह रही है। दो क्षण वह रुका रहा और तब धनुष फेंककर दौड़ा और सिंहनीके मुख तथा पंजोंके मध्य गिर पड़ा। मानो सिंहनी अभी जीवित है और उसे उसके कृत्यका बदला देगी। किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सिंहनी ज्यों-की-त्यों उसे घूरती पड़ी रही। अब वह सिंहनीका शवमात्र था। केवल वे बच्चे इस अपरिचितसे डरकर गुफामें भाग गये।

अन्ततः, माधवराव गम्भीर व्यक्ति थे। वे उठे और उन्होंने सीटी दी। उनके सहचर जो उन्हें ढूँढ़ ही रहे थे, आ गये। बड़े आदरपूर्वक उन्होंने सिंहनीके उस शवको श्रीनर्मदाजीमें प्रवाहित कर दिया। सिंहचर्मका इस प्रकार व्यर्थ जाना उनके अनुगतोंको सह्य नहीं था; किंतु वे अपने नायककी कठोर एवं व्याकुल मुद्राके सम्मुख कुछ भी कहनेका साहस न कर सके। वे दोनों बच्चे माधवरावके घर लाये गये। कहना नहीं होगा कि माधवरावने वह फेंका हुआ धनुष फिर कभी नहीं उठाया।

(३)

सहसा चौंककर माधवरावने पीछे देखा। उनका केशरी एक बछड़ेको पटक चुका था और वह बछड़ा डकार रहा था। ‘केशरी !’ स्वामीके दृढ़ स्वर एवं कठोर नेत्रको देखकर वह सिंह संकुचित हो गया। अपराधीकी भाँति सिर झुकाये वह उनके समीप आकर खड़ा हो गया। बछड़ा उठा और प्राण लेकर भागा। ‘सिंह बिगड़ गया है’ इस भयसे पासके खेतका किसान भी हल-बैल छोड़कर भाग चुका था। माधवरावने एक बार गम्भीर दृष्टिसे सिंहको देखा और फिर घरकी ओर लौट पड़े।

गुरुदेवने कहा था कि ‘जिसके हृदयमें हिंसा नहीं है, उसके समीप पहुँचते ही सभी प्राणी हिंसा भूल जाते हैं।’ दूसरे प्राणियोंकी बात तो दूर रही, मेरा पालतू केशरी भी अपनी हिंसा नहीं भूल पाता। अभी उस दिन उसने नौकरपर पंजा चलाया था और आज बछड़ेको दबा बैठा। जब दूध पिलाकर पालनेपर भी वह अपनी हिंसा न छोड़ सका तो दूसरोंकी क्या चर्चा ? तब क्या गुरुदेवने ठीक नहीं…… ऐसा कैसे हो सकता है ? सच तो यह है कि मैंने केवल शिकार छोड़ा है। हाथोंसे हिंसा छोड़नेपर भी मैं अहिंसक कहाँ हूँ? अभी कल नौकरके द्वारा लालटेनका शीशा टूटनेपर जल उठा, परसों बच्चेको मारते-मारते रुका। माधवराव गम्भीरतासे सोच रहे थे।

‘यह हाथमें लाठी ? कुत्ता, सर्प, पशु आदि आक्रमण करे तो उसका निवारण होगा। सीधे शब्दोंमें उसे मारूँगा। यह हिंसा नहीं है?’ उन्होंने लाठी फेंक दी। ‘यह पहरेदार ? कोई चोर, डाकू आये तो….’ उन्होंने पहरेदारको विदा कर दिया वेतन देकर। इसी प्रकार वे और भी बहुत कुछ करते एवं सोचते रहे। यह क्रम चला कई दिनोंतक। उनके पास न तो पहरेदार रहा और न कुत्ता। घरके सब अस्त्र-शस्त्र बाँट दिये गये। यहाँतक कि ताला-कुंजी भी नहीं रखा।

लोग समझते थे कि माधवराव पागल हो गये हैं। कुछ ऐसे भी लोग थे, जो उनपर श्रद्धा भी करने लगे। जो भी हो, माधवरावने अपनी समस्त सम्पत्ति जो केशरीके नाम करा दी, वह किसीको अच्छा नहीं लगा और तब तो सबको और भी बुरा लगा, जब केशरीके बीमार होकर मर जानेपर वे बच्चोंकी भाँति फूट-फूटकर रोने लगे। अन्ततः उन्होंने उसकी चिकित्सा एवं सेवामें कुछ उठा तो रखा नहीं था। फिर एक घातक पशुके लिये इतना व्याकुल होना कहाँकी समझदारी है ? लोगोंने समझा कि सिंह क्या मरा; एक विपत्ति टली। अन्यथा उससे सर्वदा खटका लगा ही रहता था।

आलोचनाएँ तो होती ही हैं और माधवरावकी अधिक हुई; किंतु वे थे अपनी धुनके पक्के। लोगोंकी ओरसे उन्होंने अपनेको वज्रबधिर बना लिया। उनका मकान था ग्रामके एक ओर। मकानके सम्मुख थोड़ा हटकर उन्होंने केशरीकी एक पूरे कदकी प्रस्तर मूर्ति निर्मित कराकर उसे एक पक्के चबूतरेपर स्थापित करा दी। प्रायः संध्याको वे उस मूर्तिके समीप चबूतरेपर बैठे या उसपर हाथ फेरते मिलते थे।

(४)

दो साँड़ लड़ रहे थे, माधवराव उधरसे निकल गये। दोनोंने लड़ना तो दिया छोड़ और छोटे बछड़ोंके समान उछलकर उनके समीप आ गये। उन्होंने दोंनोंको पुचकारा, उनके सिर एवं शरीरपर हाथ फेरा। ‘आपसमें लड़ा नहीं करते!’ मानो उनके आदेशको पशुओंने समझ लिया। दोनों परस्पर परिचितके समान खेलने लगे।

‘माधवराव तो संत हो गये!’ एक देखनेवालेने कहा- ‘देखो न, साँड़ भी उनकी आज्ञा मानते हैं!’ दूसरेने कहा- ‘साँड़ तो फिर भी सीधे होते हैं, मैंने स्वयं देखा है कि उस सिंह-मूर्तिके चबूतरेपरसे वे एक बिच्छूको हाथसे उठाकर नीचे रख रहे थे। बिच्छूने डंक मारना तो दूर, शरीर भी नहीं हिलाया।’ ‘किंतु मैं तो उस दिन घबरा गया, जब मैंने देखा कि मेरी छोटी बच्ची उस चबूतरेपर एक काले सर्प को दोनों हाथोंसे थपथपा रही है और साँप काटनेके बदले फण बचाता फिरता है। इतना ही नहीं, वहीं एक भेड़िया भी गुम सुम बैठा था और रामूकी बकरीके बच्चे कभी चबूतरेसे उसकी पीठपर और कभी उसकी पीठसे चबूतरेपर उछल रहे थे।’

सब अपनी-अपनी सुना रहे थे, इतनी देरमें पटेल भी आ गये। उन्होंने अपना अनुभव बताया- ‘उस दिन मैं जमादारपर बहुत असंतुष्ट था। कहीं मिलता तो खाल खींच लेता। ढूँढ़ते ढूँढ़ते उसका पता लगा माधवरावके दालानमें। मैं आग बबूला हुआ पहुँचा। दालानके पास जाते-न-जाते मेरा क्रोध पानी हो गया। रावको देखते ही मुझे बड़ी लज्जा आयी। तभीसे मैंने समझ लिया कि वे अवश्य कोई सिद्ध महात्मा हैं।’

X माधवरावका शरीर अब नहीं रहा। उनके प्रस्तर केशरीको लोगोंने सिन्दूरसे रंग दिया है और देवीका वाहन समझकर वे उसकी पूजा करते हैं। देखा-देखी मध्यप्रान्त एवं बरारके अधिकांश ग्रामोंमें ग्रामसे बाहर पत्थर या मिट्टीकी सिंह अथवा व्याघ्रमूर्ति बनाकर पूजनेकी प्रथा चल पड़ी, जो अबतक चल रही है। ग्रामीणोंका विश्वास है कि इस प्रकारकी पूजासे वनपशु उन्हें तंग नहीं करेंगे। सुना जाता है कि उस सिंहमूर्तिके समीप अब भी कोई प्राणी दूसरेपर अपना क्रोध प्रकट नहीं करता।

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