यदि मनमें डर न हो तो डरका हेतु होनेपर भी डर नहीं लगता -द्वितीय माला

३०-सन्तके हृदयमें आकर भगवान् निवास करते हैं, सन्तका हृदय भगवान्‌का घर है।

३१-भगवान्ने कहा- ‘साधुजन मेरे हृदयस्थानीय हैं और मैं साधुओंका हृदय हूँ।’ ऐसे साधु सन्तोंकी महिमा अकथनीय है।

३२-तनसे, मनसे, धनसे सब प्रकारसे सन्तोंकी सेवा करे; पर ध्यानमें रखे कि सर्वोत्तम सन्तसेवा है- सन्तोंकी आज्ञाओंका प्रसन्नतापूर्वक पालन करना।

३३-शास्त्रोंको मानना सन्तोंको मानना है।

३४-सन्तोंकी वाणीका अनुसरण करना हमारे लिये परम कल्याणका साधन है।

३५-एक मनुष्य है; वह सन्तके पास तो रहता है, पर उनकी आज्ञाका पालन नहीं करता, ऐसे मनुष्यका कल्याण देरसे होता है।

३६-जिसके संगसे अपने अन्दर दैवी सम्पत्ति बढ़ती है, भगवान्‌के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है; मनमें आनन्द, शान्ति बढ़ती है उसे सन्त माननेमें आपत्ति नहीं है- यह सन्तकी मोटी कसौटी है। वस्तुतः सच्चे सन्तकी परीक्षा ही नहीं हो सकती।

३७-‘करी गोपालकी सब होय।’ जो भगवान्ने रच रखा है, वही होगा। निमित्त भिन्न-भिन्न होंगे।

३८-मनुष्यको अपनी-अपनी बुरी-भली भावनाके कारण पाप- पुण्यकी प्राप्ति होती है।

३९-यदि अच्छी नीयत हो, शुभ भावना हो, किसीका भी बुरा करनेकी इच्छा न हो तो कर्म करनेवाला निर्दोष रहेगा। पर यदि नीयत बुरी है, मनमें बुराईकी भावना है तो यद्यपि होगा तो वही जो होना है, पर बुरी भावनाके कारण मनुष्य पापका भागी अवश्य बन जायगा।

४०-हमलोगोंको तामसिकताने आ घेरा है; रजोगुण क्रियाशीलता भी होती तो भी एक बात थी।

४१-यदि मनमें डर न हो तो डरका हेतु होनेपर भी डर नहीं लगता।

पर यदि मनमें डर है तो बिना कारण भी डरके नये-नये हेतु पैदा हो

जाते हैं। भूतका भय मनमें होनेपर झूठ-मूठ भूत पैदा हो जाता है।

४२-भगवान्पर विश्वास हो तो फिर सर्वत्र सभी परिस्थितियोंमें निर्भयता-आनन्द है, फिर मृत्युका भय भी जाता रहेगा।

४३-यदि ईश्वरकी इच्छा है कि इसे मरना होगा और ऐसे मरना होगा तो फिर बचना असम्भव है, फिर धैर्य, धर्म, साहस छोड़कर कुत्तेकी मौत क्यों मरते हो !

४४-आत्माको अमर समझो। इसे कोई भी किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुँचा सकता। भगवान्के इस वचनपर विश्वास करो-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

४५-देहका नाश अवश्यम्भावी है। कपड़ेका कोट जैसे फटता है, किसी दिन निश्चय फट जाता है, वैसे यह चमड़ीका कोट भी तो

निश्चय फटेगा ही। आत्मा अमर है, फिर चिन्ता करते हुए क्यों मरे। ४६-चिन्ता ही करनी है तो केवल भगवान्‌की करो। इस चिन्तासे जगत्की समस्त चिन्ताएँ मिट जायेंगी।

४७-भगवान्‌की कृपापर विश्वास, आत्माकी अमरतापर विश्वास तथा तीसरी बात, अपने प्रारब्धपर विश्वास अर्थात् बिना प्रारब्धके मृत्यु नहीं होगी-यदि इन तीन बातोंपर विश्वास है तो सुखसे मरोगे।

४८-आत्मबल चाहिये, शारीरिक बल इसके सामने परास्त हो जायगा।

४९-जिसका मन बुरी भावनाओंको दूर रखता है, उसके सामने अपने-आप बुरी बातें बहुत कम आती हैं।

५०-संसारमें घटना भले ही कुछ भी क्यों न हो, पर उसमें सुख- दुःखका होना हमारी भावनापर निर्भर है।

५१-यदि सचमुच भगवान्पर विश्वास हो तो फिर बड़े-से-बड़े भयके अवसरपर भी इस प्रकार बच जाओगे कि देखकर आश्चर्य होगा।

५२-हमारे मनमें जो भी अच्छे-बुरे विचार होते हैं, वे फैलते रहते हैं। हमारे मनमें यदि मंगलकी भावना होगी तो हम जगत्को मंगल देंगे ! बुरी भावना होगी तो जगत्‌के सारे वायुमण्डलमें बुरा भाव फैलायेंगे।

५३-हम स्वयं ऐसी चेष्टा करें कि हमारे मनमें भय उत्पन्न न हो, फिर जगत्को हम ‘निर्भयताका दान कर सकेंगे।’

५४-आत्माके अमरत्वपर विश्वास करनेसे भय तुम्हें छूतक नहीं सकता।

५५-भगवान्के राज्यमें अन्याय नहीं होता। फलके रूपमें बुरा-भला जो कुछ भी तुम्हें प्राप्त होता है, वह तुम्हारे ही किये हुए कर्मोंका फल है। तुम जिसे बुरे फलमें कारण समझकर वैरी मान रहे हो, वह तो केवल निमित्त बन गया है, फल तो तुम्हें अपने कर्मोंसे ही मिला है।

५६-किसीके अहितमें कभी भी निमित्त मत बनो।

५७-श्रीभगवान्का परम आश्रय प्राप्त कर लेनेसे बढ़कर ऊँचा

लाभ कोई नहीं है।

५८-बड़े भाग्यवान् पुरुष ही भगवान्‌का परम आश्रय पानेके मार्गपर चलते हैं और उनके पुण्यका तो पार ही नहीं, जो इस स्थितिको प्राप्त

कर लेते हैं। ५९-मार्गकी बात करना और बात है तथा मार्गपर चलना एवं

चलकर भगवान्का आश्रय पा लेना और बात है।

६०-एक व्यक्ति लड्डूकी बात सोचा करे, केवल बात-ही-बात करे;

पर दूसरा लड्डूका सामान जुटाकर लड्डू बनाना आरम्भ कर दे तो बात करनेवाला तो यों ही रह जायगा और लड्डू बनानेवाला यदि लड्डू बन जायगा तो चख भी लेगा ही।

६१-साधनकी बातें करना और चीज है तथा साधनमें सचमुच लग जाना और चीज है।

६२-जो भगवान्के मार्गपर चलने लगता है, उसकी स्थिति बहुत ही विलक्षण हो जाती है तथा चलने लग जानेपर पहुँचना सहज हो जाता है।

६३-भगवान्की ओर लगे रहना बड़ा कठिन है। बड़े-बड़े विघ्न

आते हैं, जो मनुष्यको भगवान्से हटा देते हैं।

६४-बहुत बार साधनाके नामपर विषयोंकी ओर गति होती है।

६५-सबसे पहली बात है लक्ष्य स्थिर होना चाहिये। कहाँ जाना है, यह निश्चित होना चाहिये। एक नया आदमी है, कलकत्तेसे राजपूताना आना चाहता है। उसके मनमें दृढ़ निश्चय है कि राजपूताना जाना है। अब वह जहाँ-जहाँ गाड़ी बदलेगी, बार-बार पूछकर, देख- भालकर उसी गाड़ीमें बैठेगा जो कि राजपूतानेकी ओर जाती है। सदा सावधान रहेगा कि कहीं दूसरी गाड़ीमें न बैठ जाय। इसी प्रकार जो भगवान्की ओर चलता है, उसका यह निश्चय होता है कि मुझे भगवान्के पास जाना है और सदा सावधान रहता है कि रास्ता न भूल जाय, अनुभवी पुरुषोंसे बार-बार पूछकर निश्चय करता रहता है कि रास्ता ठीक है न।

६६-सभी बुरे विचार एवं दुर्गुण भगवान्के मार्गपर चलना प्रारम्भ कर देनेपर अपने-आप छूट जायँगे। धन कमानेका उद्देश्य रखनेवाला धन-नाशक कोई बात नहीं करता, एक पैसेके नाशको भी वह सह नहीं सकता। वैसे ही जो भगवान्‌को उद्देश्य बनाकर चलेगा, उसे भगवान्की प्राप्तिकी विरोधी बातें अच्छी ही नहीं लगेंगी। मामूली दुर्गुण भी उसे बहुत खलेंगे और वह उन्हें निकाल फेंकेगा।

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