जब सुखकी चाह कम होती है, तब उतनी ही चिन्ता भी कम होती है

२७-जब सुखकी चाह कम होती है, तब उतनी ही चिन्ता भी कम होती है। जहाँ भोग-विलासरूप सुखकी स्पृहा आयी कि चारों ओरसे फंदे पड़ने लगे।

२८-मनुष्य स्वयं ही अपनी मूर्खतासे बँधता है और दुःखोंको बुलाकर उसकी आगमें जलता है।

२९-जगत्के सम्बन्धोंका और प्रसिद्धिका प्रसार, अशान्ति और दुःखका महान् हेतु है। शान्ति चाहते हो तो सम्बन्ध कम करो और छिपे रहनेकी व्यवस्था करो। जितना ही अधिक सम्बन्ध और सुनाम होगा, उतनी ही अधिक अशान्ति और क्षोभकी उत्ताल तरंगें उठेंगी, विरह और विनाशका भयानक दुःख सामने आयेगा, अपकीर्तिके भयका भूत भी सदा सताता ही रहेगा।

३०-जिस संसारमें चार दिन ही रहना है, उसमें सम्बन्ध बढ़ाना और नाम कमाना मूर्खता ही तो है।

३१-भक्तिसे ही असली भक्ति आती है। भक्तिमें प्रधान वस्तु है- भजन ! भजनसे दो काम पहले होते हैं- क्लेशोंका नाश और शुभकी प्राप्ति। इसीसे भक्तिको ‘क्लेशघ्नी’ और ‘शुभदा’ कहते हैं।

३२-क्लेश पाँच हैं-अविद्या (उलटी समझ), अस्मिता (मैंपना), राग (भोगोंमें चित्तकी फँसावट), द्वेष (पदार्थोंमें प्रतिकूल-भावना करके उनके नाशकी इच्छा) और अभिनिवेश (मृत्युकी भयानक भीति)। शुभ हैं- विवेक (सीधी समझ), विनय (अपनेको कुछ भी न मानकर भगवान्‌को ही सब कुछ मानना), वैराग्य (भोगोंसे चित्तकी विरक्ति), प्रेम (सबसे निःस्वार्थ सौहार्द) और अमृतत्व (आत्माकी अमरताका प्रत्यक्ष निश्चय) । भजनसे उपर्युक्त पाँचों क्लेशोंका नाश और शुभोंकी प्राप्ति होती है। इनका फल होता है- भगवच्चरणोंमें एकान्त रति !

३३-भजन दो प्रकारका होता है- निष्ठापूर्ण और निष्ठारहित। निष्ठापूर्ण भजन निष्ठारहित सतत भजनका फल है।

३४-निष्ठारहित भजनमें देखा देखी आरम्भमें तो उत्साह होता है- पर कुछ ही समय बाद निराशा और निरुत्साह आ जाता है। कभी मन भजन करना चाहता है और कभी भोगोंकी प्राप्ति। कभी घरसे भागना चाहता है तो कभी घरमें अत्यन्त रम जाता है। कभी वैराग्य सा आता है तो कभी आसक्ति बढ़ जाती है। भजनमें कभी सुख-सा दीखता है तो कभी चित्त ऊबने लगता है। कभी भगवान्में श्रद्धा और विश्वास बढ़ते-से दीखते हैं तो कभी भगवान्‌की उपेक्षा होकर भोगोंकी अपेक्षा हो जाती है। यों ज्वार-भाटा आता है; पर यदि मनुष्य सत्संगका सहारा पकड़े रहता है तो भजनकी स्वाभाविक महिमा अन्तमें सारी उधेड़-बुनको मिटाकर भजनको निष्ठापूर्ण बना देती है। फिर तो भजनमें रुचि, सुख, रस और प्रीतिका इतना विस्तार हो जाता है कि छोड़नेपर भी भजन नहीं छूट सकता।

३५-जैसे भी हो, उत्साह-अनुत्साह, आशा-निराशा, सिद्धि- असिद्धि, अनुकूल परिणाम और विपरीत परिणामकी परवा न करके भजन करते ही रहो !

३६-भक्तिपथमें पाँच बड़े काँटे हैं- इनसे बचो और इन्हें उखाड़ फेंकनेका प्रयत्न करो-

जातिविद्यामहत्त्वं च रूपं यत्नेन परिहर्तव्यः पंचैते यौवनमेव च। भक्तिकण्टकाः ॥

‘ऊँची जातिका अभिमान, विद्याका घमण्ड, धन, ऐश्वर्य और पदगौरवका महत्त्व, शरीरका सौन्दर्य और उछलती जवानी ! यही पाँच काँटे हैं।’

३७-नित्य भगवान्‌का गुणगान करो नहीं तो तुम्हारी जीभ मेढककी जीभ है।

३८-नित्य भगवान्के गुणगणोंका श्रवण करो। काले बादलोंसे घिरा हुआ दिन दुर्दिन नहीं है। दुर्दिन तो वस्तुतः वह है, जिसमें तुम्हारे कान भगवान्‌की गुणसुधाके अनवरत पानसे वंचित रहते हैं-

यदच्युतकथालापकर्णपीयूषवर्जितम् तद् दिनं दुर्दिनं मन्ये मेघाच्छन्नं न दुर्दिनम् ।।

प्राण-प्रयाणके पाथेय, संसार-रोगकी अचूक औषध और रोग- शोकका हरण करनेवाले तो बस, हरिनामके दो अक्षर ही हैं-

प्राणप्रयाणपाथेयं संसारव्याधिभेषजम् ।

रोगशोकहरं पुंसां हरिरित्यक्षरद्वयम् ।।

३९-किसीकी निन्दा न करो, न कर्कश वाक्य ही बोलो; सम्मान, सत्य, प्रेम और हितकी ही बात कहो। सभी लोग तुम्हारी नम्रता और अपना सम्मान तथा हित चाहते हैं।

४०-किसीकी खुशामद मत करो। खुशामदीके मुँह और मनमें सदा ही भेद रहता है। फूट तो उसका साथी बन जाता है।

४१-स्पष्टवादी बननेके बहाने किसीका जी दुखानेवाली बात कभी मुँहसे मत निकालो।

४२-सुख-दुःख दोनों ही क्षणभंगुर हैं। इनके मोहमें मत फँसो।

चन्द्रमाकी शुभ ज्योत्स्नासे सुशोभित शरदाकाश और घनघटाओंसे घिरा हुआ नभोमण्डल, दोनों ही क्षणिक हैं।

४३-दिन सदा एक-से नहीं जाते, उतार-चढ़ाव जगत्‌का स्वभाव ही है।

४४-कर्मीका स्वभाव ही है स्वाँग बदलते रहना! स्वाँगके अनुसार ही तो क्रिया होगी न ?

४५-प्रशंसाके लिये मत तरसो, खुशामदसे प्रसन्न मत होओ। खुशामद चाहनेवालेका सौभाग्य शीघ्र ही शान्त होता है।

४६-सरल बनो कपटकी बात छोड़ दो; जीवनमें सीधापन लाओ। संतोष धारण करो। याद रखो, भगवान्‌को सरलता और संतोष बहुत प्रिय हैं।

४७-अच्छी हालतके बन्धुका विश्वास मत करो। धन-मानकी सेवामें तो सभी जुट जाते हैं। विपद्‌का बन्धु ही सच्चा बन्धु है।

४८-तुम्हारे पास भगवान्‌की दयासे जो कुछ है, उसीपर संतोष करो।

‘देख पराई चोपड़ी मत ललचावे जीव।’

४९- लोगोंको कुछ भी कहने दो, वे तो कहेंगे ही। अपने सन्मार्गये कभी पैर मत हटाओ।

५०-जब संसारी लोग तुम्हें भाग्यवान् और भगवान्‌का कृपापात्र बतलायें तब चौकन्ने हो जाओ। संसारी लोग अपनी बुद्धिके कॉटेपर ही तो भाग्य और भगवान्‌की कृपाको तौलते हैं! उनका काँटा पत्थर तौलता है, हीरा नहीं। वे भोगीको भाग्यवान् और भगवान्‌का कृपापात्र मानते हैं और विषय-विरागी भगवदनुरागीको अभागा तथा भगवान्का कोपभाजन !

५१-बुरा कर्म करनेवाला ही गुप्त पथपर चलता है, अपने पापोंको छिपानेकी चेष्टा करता है।

५२-अपनेको न नीच समझो और न सबसे ऊँचा ! चुपचाप अपनी राह चलते रहो।

५३-किसीकी सेवा करके उसे गिनाओ मत। नहीं तो तुम्हारी सेवा राखमें घी डालनेके समान व्यर्थ हो जायगी और सेव्य भगवान् तुमसे छिप जायँगे।

५४-जो नहीं मिलनेका, ऐसे आकाशकुसुमकी आशा मत करो। साध्यकी ही साधना सहज हितकारी होती है।

५५-कीर्ति कभी दीर्घकालतक नहीं ठहरती। सम्मानका बोझ भी ऐसा ही है।

५६-कीर्ति और सम्मानपर काले धब्बे लगते ही हैं। चन्द्रमामें भी कलंक होता है।

५७-इसलिये कीर्ति-कथा सुनकर घमण्ड मत करो और निन्दा सुनकर घबराओ मत।

५८-जो देता है, वही लेता है। चीज उसकी रहती है। फिर मिलनेपर फूलना और जानेपर रोना दोनों ही प्रमाद हैं।

५९-धरा और धनकी सुन्दरतापर मत रीझो, शरीर और रूपके लावण्यके लिये मत ललचाओ। इस प्रापंचिक झूठी सुन्दरता और लावण्य के परे एक ऐसा नित्य सत्य अनन्त सौदर्य और लावण्य है, जो सदा चेतन रहता है. वह है श्रीकृष्ण शोभा. उसी पर रीझो और उसी के लिए सदा ललचाओ.

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