अगर कोई हमारी मेहनत से कमाया हुआ धन हड़प ले तो क्या करें?

अगर कोई हमारी मेहनत से कमाया हुआ धन हड़प ले ले, तो भक्ति‑दृष्टि से यह केवल “नुकसान” नहीं, बल्कि हमारे ही पुराने कर्मों का हिसाब चुकाने का एक अवसर माना जाता है। इस बात को समझकर मन में बैठा हुआ गुस्सा, बदला और नफ़रत छोड़कर शांत भाव से आगे बढ़ना ही श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज का मुख्य संदेश है।​

पूर्व कर्म और “हिसाब बराबर” की समझ

महाराज जी कहते हैं कि पहले यह सोचना चाहिए कि संभव है, हमने भी किसी जन्म में या इस जन्म में किसी का धन बेईमानी से लिया हो। अब वह पुराना कर्म सामने आकर फल दे रहा है, इसलिए सामने वाला व्यक्ति हमारा पैसा हड़पकर अपना “हिसाब बराबर” कर रहा है।​

  • यदि हमने पूर्व में किसी की मेहनत की कमाई हड़पी होगी, तो आज जो हमारे साथ हो रहा है, वह उसी का फल है।​
  • इसे “लूट” न मानकर “लेन‑देन पूरा होना” मानना चाहिए – कि जो उसका हक था, वह ले गया, मैं उससे निपट गया।​

जब यह दृष्टि आती है कि यह पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम है, तब मन का ताप थोड़ा हल्का होने लगता है। गुस्सा कम होता है और स्वीकार भाव आता है।​

द्वेष न बढ़ाएँ, नया कर्म न बनाएँ

सबसे महत्वपूर्ण बात जो महाराज जी समझाते हैं, वह यह है कि इस घटना से द्वेष, नफरत और झगड़ा न बढ़ाएँ, क्योंकि वही आगे नया बुरा कर्म बन जाएगा।

  • अगर हम उसके प्रति क्रोध, बदला या हिंसा का मार्ग चुनते हैं, तो एक नया ऋण और नया पाप बन जाता है, जिसे भविष्य में फिर भोगना पड़ेगा।​
  • सही दृष्टिकोण यह है: “राधेश्याम, तुम्हारा हिस्सा जितना था तुम ले गए, अब ठीक है।”​

इस प्रकार का वैराग्य‑पूर्ण स्वीकार भाव भीतर शांति देता है, और जीवन को आगे बढ़ने की शक्ति भी देता है।​

कबीरा आप ठगाइये – भाव क्या है?

महाराज जी संत कबीर के प्रसिद्ध वचन का अर्थ भी इसी संदर्भ में जोड़ते हैं – “कबीरा आप ठगाइये।”​

  • यदि कोई हमारी चीज़ ले जाए और हम बेईमानी न करें, तो आध्यात्मिक दृष्टि से हम लाभ में रहते हैं, क्योंकि हमने पाप नहीं किया।​
  • पर यदि हम किसी और को ठगेंगे, तो उसका दंड और उसका भय हमें कभी‑न‑कभी दुख अवश्य देगा।​

अर्थ यह कि अपने को ठगवा लेना, पर दूसरे को न ठगना – यह साधक के लिए अधिक शुभ और शांति देने वाला मार्ग है।​

व्यावहारिक सावधानी और आंतरिक स्वीकार

इसका मतलब यह नहीं कि जीवन में विवेक और सावधानी छोड़ देनी चाहिए। महाराज जी संकेत देते हैं कि जब ऐसी घटना हो, तो “विवेक लगाकर बच जाना चाहिए” – यानी:​

  • आगे से लेन‑देन में अधिक सजग रहें, लिखित स्पष्टता रखें, भरोसे को बुद्धिमानी से जोड़ें।​
  • पर जो पहले हो चुका, उसके लिए भीतर‑ही‑भीतर यह मानकर छोड़ दें कि “मेरा पुराना हिसाब चुक गया, अब मैं नया बैर नहीं पालूँगा।”​

इस तरह बाहर से सजग रहकर, भीतर से क्षमा और स्वीकार भाव रखकर चलना ही संतों की शिक्षा के अनुरूप आचरण है।​

किसी का कर्ज न रखें, किसी की बेईमानी न करें

महाराज जी आगे एक और बात स्पष्ट करते हैं – “किसी का कर्जा नहीं रखना चाहिए” और “हमें किसी की बेईमानी नहीं करनी है।”​

  • यदि हमारे ऊपर किसी का अधिकार या कर्ज हो और हमें पता हो, तो उसे लौटा देना चाहिए, ताकि आगे इस प्रकार के दुखद परिणाम न आएँ।​
  • दूसरी ओर, हमें स्वयं किसी की मेहनत की कमाई नहीं खानी चाहिए, न धोखा देना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसे कष्टों से बचा जा सके।​

इस प्रकार शिक्षा दो स्तरों पर है – एक, जो हो चुका है, उसे कर्म‑फल मानकर शांति से छोड़ देना; और दो, आगे के लिए अपने चरित्र और व्यवहार को इतना निर्मल रखना कि किसी को आर्थिक कष्ट न हो।​


अब इन सब बातों को जोड़कर यदि सार में देखें, तो जब कोई हमारी मेहनत की कमाई हड़प ले:

  • मन में यह समझ लाएँ कि यह पूर्व कर्मों का हिसाब चुकाने का अवसर है।​
  • द्वेष, नफरत और बदले की भावना से बचें, ताकि नया बुरा कर्म न बने।​
  • आगे के लिए विवेकपूर्ण सावधानी रखें, पर जो चला गया उसे ईश्वर की इच्छा और कर्म‑फल मानकर छोड़ दें।​

इसी दृष्टिकोण से चलना, भक्त के लिए शांति, धैर्य और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग बन जाता है।​

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