भगवान् प्रेम के वश होकर क्या नहीं करते- सब कुछ करते हैं

भगवान् प्रेमके वश होकर क्या नहीं करते- सब कुछ करते हैं

८८-भगवत्प्रेमके लिये साधना करनी चाहिये, जैसे भी हो इसकी उपलब्धि करनी चाहिये।

८९-जिस दिन मनुष्य सब भूतों में अपने-आपको तथा सब भूतों आत्मामें स्थित देखता है, फिर भय-संकोच सब नष्ट हो जाते हैं। उसके लिये केवल आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है।

९०-प्रेम की महिमा अद्भुत है। इतने बड़े भगवान् इतने छोटे हो जाते हैं कि बच्चों में आकर बच्चे बनकर खेलते हैं। एक बार खेल हो रहा था; खेलकी यह शर्त थी कि जो हारे वह घोड़ा बने। भगवान् हारे तथा घोड़ा बने।

उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः । वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥

(श्रीमद्भा० १०। १८। २४)

९१-भगवान् प्रेमके वश होकर क्या नहीं करते- सब कुछ करते हैं।

९२-विश्वम्भर होकर भगवान् माँ से कहते हैं कि ‘हमें भूख लगी है, दूध पिलाओ!’ यह है प्रेमीकी महिमा।

९३-जिस प्रेममें भगवान् मित्र, पुत्र, पति बनकर खेलने लग जाते हैं, उस प्रेमके सामने मोक्ष क्या वस्तु है।

९४-तामस भोगोंके पीछे पड़कर हमलोगोंने भगवान्‌को भुला रखा है। इस परिस्थितिमें तो बस ‘हारेको हरिनाम’ यही आश्रय है।

९५-भगवत्प्रेम बहुत ऊँची वस्तु है, पर कम-से-कम इसकी प्राप्तिकी इच्छा तो होनी चाहिये। इच्छा होगी तो इसके लिये प्रयत्न भी होगा।

९६-भगवत्प्रेमकी बात सुनकर मनुष्य डरने लगता है कि कहीं सब कुछ चला न जाय। होता भी यही है, अपना प्रेमदान करनेके पहले भगवान् और सबसे प्रेम हटा लेना चाहते हैं, इसलिये लोग डर जाते हैं। एक गुजराती कविने कहा है-

प्रेम पंथ पावकनी ज्वाला भाली पाछा भागे जोने। माँहि पड़या ते महारस माणे देखनारा दाझे जोने ॥

प्रेमका मार्ग धधकती हुई आगकी ज्वाला है, इसे देखकर ही लोग वापस भाग जाते हैं; परंतु जो उसमें कूद पड़ते हैं, वे महान् आनन्दका उपभोग करते हैं। देखनेवाले जलते हैं।

९७-किसी भी प्रकारसे सत्पुरुषोंका मिलना हो जाय तो बस, काम हो गया।

९८-सच्चे सन्तका मिलना दुर्लभ है; पर यदि वे मिल गये तो फिर उनका मिलना अमोघ है।

९९-सच्चे सन्त यदि किसीके द्वारा सताये भी जाते हैं तो भी वे उसका कल्याण ही करते हैं। सच्चे सन्तके द्वारा किसीकी हानि होती ही नहीं, पर भगवान् इस बातको सहन नहीं करते। काकभुशुण्डिजीने गर्वमें आकर अपने गुरुका अपमान किया; गुरुने कुछ भी नहीं कहा, पर भगवान् शंकरने काकभुशुण्डिको शाप दे दिया। गुरुने शंकरसे प्रार्थना करके शापको वरदानके रूपमें परिणत करा दिया तथा अन्तमें काकभुशुण्डिजीको भगवत्प्राप्ति हुई। इस प्रकार सन्त अपनी दयासे बुरे फलको अच्छेमें बदल देते हैं।

१००-सन्त यदि किसीपर क्रोध करते हैं तो वह क्रोध भी किसीके लिये हानिकर नहीं होता, उस क्रोधसे भी लाभ ही होता है; नलकूबर- मणिग्रीवने नारदजीका तिरस्कार किया। ये दोनों यक्ष जलमें नंगे स्नान कर रहे थे। नारदजीके आ जानेपर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। नारदजीने शाप दे दिया। शापसे वे जड़ वृक्ष बन गये, पर वृक्ष बनकर भगवान् श्रीकृष्णके अंगस्पर्शको पाकर वे कृतार्थ हो गये। सन्तोंका शाप भी पापोंसे शुद्ध करके अन्तमें भगवान्से मिला देता है।

१०१-ईसाको शूली दी गयी, पर ईसाने सभी सतानेवालोंका भगवान्से मंगल मनाया। सन्तका स्वभाव ही ऐसा होता है।

१०२-सन्त हरिदासजीपर मार पड़ी, शरीरसे खून निकलने लगा। मारनेवाले कहते- ‘हरि नाम लेना छोड़ दो।’ हरिदासजीने सोचा-ये हमें मारते हैं तथा मारते हुए हरि-नाम लेनेके लिये मना करते हुए इनके मुँहसे हरि-नामका उच्चारण हो जाता है, इससे अच्छी बात और क्या होगी। हरिदासजीने कहा- ‘भैया! फिर मारो और हरि-नाम लो!’ मार पड़ती गयी। हरिदास बेहोश हो गये। मरा जानकर लोगोंने उन्हें गंगाजीमें फेंक दिया, पर वे मरे नहीं थे। गंगाजीसे बाहर निकल आये और भगवान्से मारनेवालोंके कल्याणकी प्रार्थना करने लगे।

उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई॥

– यही सन्तका महत्त्व है।

१०३-ऐसे पुरुष अत्यन्त दुर्लभ हैं, जो हैं वे ही सन्त हैं।

१०४-कुछ सत्पुरुष ऐसे होते हैं कि बुराई करनेवालोंकी बदलेमें बुराई तो नहीं करते, पर भला भी नहीं करते। अवश्य ही ऐसे पुरुष भी बहुत थोड़े होते हैं; क्योंकि किसीके द्वारा की हुई बुराईको शान्तिसे सह लेना भी बड़ा कठिन है।

१०५-परोपकारी पुरुष कुछ ऐसे भी होते हैं, जो भला न करनेवालोंका भी भला करते हैं।

१०६-सन्तोंद्वारा किसीका भी बुरा नहीं होता।

१०७-सन्त स्वभावसे ही सबका मंगल करते हैं। जिस प्रकार सूर्य सहज ही अन्धकारका नाश करते हैं, उसी प्रकार सन्त स्वाभाविक ही निर्मल बनायेंगे।

१०८-गुर्साईंजी महाराजने चन्दन एवं कुल्हाड़ेकी उपमा देकर सन्त किस प्रकार बुरा करनेवालेका भला करते हैं, यह बात दिखलायी है, बिलकुल ऐसी ही बात है। बुरा करनेवालेको भी सन्त अपनी ओरसे उत्तम-से-उत्तम चीज ही देते हैं।

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