पतिव्रता के भाव और आचरण कैसे होते हैं? पतिव्रताकी पहचान क्या है? क्या वर्तमान समय में पातिव्रत धर्म का पालन हो सकता है? (EN)

प्रश्न- पतिव्रता के भाव और आचरण कैसे होते हैं? पतिव्रताकी पहचान क्या है? क्या वर्तमान समय में पातिव्रत धर्म का पालन हो सकता है?

उत्तर- उसमें धार्मिक भावोंकी प्रबलता होती है, जिससे वह तन-मनसे पतिकी सेवा करती है। पतिके मनमें ही अपना मन मिला देती है, अपना कुछ नहीं रखती। उसका मन पति में ही खिंचा रहता है। उसका यह पातिव्रत ही उस की रक्षा करता है.

प्रायः पतिव्रताका सम्बन्ध पूर्वजन्म के पतिके साथ ही होता है। कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि बचपन में कन्याको अच्छी शिक्षा, अच्छा संग मिलनेसे उसके भाव अच्छे बन जाते हैं तो वह विवाह होने पर पतिव्रता बन जाती है।

पतिव्रता के घर में शान्ति रहती है और सभी अपने अपने धर्मका पालन करने वाले होते हैं। उसकी सन्तान भी श्रेष्ठ, माता पिता की भक्त होती है. पड़ोसियों पर, मोहल्ले वालों पर भी उसके भावों का असर पड़ता है।

पतिव्रता को देखने वाले का दुर्भाव मिट जाता है। परन्तु सब जगह यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि पतिव्रता को देखकर अपने भीतर के अच्छे भाव ही जागृत होते हैं. जिसके भीतर अच्छे भाव, संस्कार नहीं हैं, उसपर पतिव्रताका उतना असर नहीं पड़ता। जैसे एक व्याध ने दमयन्तीको अजगर के मुखसे छुड़ाया, पर उसके रूप को देखकर वह मोहित हो गया और उसके भीतर दुर्भाव पैदा हो गया. दमयन्ती के शाप से वह वहीं भस्म हो गया। युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा सात्त्विक पुरुष थे, परन्तु दुर्योधन पर उनका असर नहीं पड़ा।

पातिव्रत धर्म का पालन करने में वर्तमान समय कोई बाधक नहीं है। अपने धर्मका पालन करने में सबको सदा से स्वतन्त्रता है। धर्म से विरुद्ध काम करने में ही शास्त्र, धर्म मर्यादा आदि बाधक हैं।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।

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