शाश्वती शान्ति को प्राप्त पुरुष की स्थिति

शाश्वती शान्ति को प्राप्त पुरुष की स्थिति

८४-यह सत्य होने पर भी तत्त्वज्ञानी की शाश्वत शान्ति से इसका क्या सरोकार है। कर्मोंका अस्तित्व ही अज्ञान में है। अज्ञानका सर्वथा नाश हुए बिना तत्त्वज्ञानकी या शाश्वत शान्तिकी प्राप्ति नहीं होती और शाश्वत शान्तिमें अज्ञान नहीं रहता, अतएव शाश्वत शान्तिको प्राप्त आनन्दमय पुरुषमें एक समब्रह्मकी अखण्ड सत्ताके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रह जाता। ऐसी अवस्थामें शरीरमें होनेवाले भोगोंसे उसकी स्वरूपभूता नित्यैकशान्तिमें कोई बाधा नहीं आती। वह सर्वदा, सर्वथा और सर्वत्र सम होता है। सुख-दुःख, मान-अपमान, जीवन-मृत्यु, हानि-लाभ, प्रवृत्ति-निवृत्ति, हर्ष-शोक, शीत-उष्ण-किसी भी द्वन्द्वमें वह विषम नहीं देखता। वह एकमात्र ब्रह्मको ही जानता है, ब्रह्ममें ही रहता है और ब्रह्म ही बन जाता है। ऐसी अवस्थामें न तो जगत्की दृष्टिसे होनेवाला भारी-से-भारी दुःख उसे विचलित कर सकता है और न जगत्की दृष्टिसे प्रतीत होनेवाला परम सुख ही उसे सुखके विकारसे क्षुब्ध कर सकता है। वह नित्य-निराकार-निर्विकल्प-निर्विशेष, सदा सम, अचल, कूटस्थस्वरूप स्थित रहता है। इसी बातको समझानेके लिये भगवान्ने जहाँ-जहाँपर गीतामें तत्त्वज्ञानी पुरुषोंके लक्षण बतलाये हैं, वहाँ-वहाँ समतापर बड़ा जोर दिया है। इसीको प्रधान लक्षण बतलाया है। देखिये गीता अध्याय २।५६-५७; ५।१८-१९; ६।२९-३१; १२।१३; १७।१९; १४।२२; २४-२५ आदि-आदि।

८५-शाश्वत-शान्तिको प्राप्त पुरुषकी शान्ति वह होती है, जो एकरस और सम है, जो किसी भी कारणसे किसी कालमें घटती नहीं, नष्ट नहीं होती। वह नित्य है, सनातन है, अचल है, आनन्दमय है, सत् है, सहज है, अकल है और अनिर्वचनीय है। बस वह परमात्माका स्वरूप ही है। जो शान्ति किसी शारीरिक या मानसिक स्थितिके कारण विचलित होती है, बदलती है या नष्ट होती है, वह यथार्थमें शान्ति ही नहीं है। वह विषयप्राप्तिजनित क्षणिक सुख स्वप्नमें प्राप्त होने वाली चित्तकी अचंचलता है, जो दूसरे ही क्षण नवीन कामनाके जाग्रत् होते ही नष्ट हो जाती है।

८६-भक्त की दृष्टिसे कहा जाय तो भी यही बात है। भक्त सुख और दुःख दोनोंमें अपने भगवान्‌की मूर्ति देखता है। वह अपने भगवान्‌को कभी बिना पहचाने नहीं रहता। वह वज्रसे भी कठोर और कुसुमसे भी कोमल दोनोंमें ही अपने प्रियतमको निरख-निरखकर उसकी विचित्र लीलाओंको देख-देखकर नित्य निरतिशय आनन्दमें निमग्न रहता है।

८७-उसकी इस आनन्दकी शान्तिको नष्ट करनेकी किसीमें भी सामर्थ्य नहीं है-

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।

यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।

(गीता ६।२२)

‘उस परम लाभकी प्राप्ति हो जानेपर उससे अधिक अन्य कोई लाभ नहीं जँचता और उस अवस्थामें स्थित पुरुष बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता।’

८८-क्योंकि वह सर्वत्र, सर्वदा अपने हरिको ही देखता है। भगवान् कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि सच मे न प्रणश्यति ॥

(गीता ६।३०)

‘जो मुझको सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उससे मैं कभी अदृश्य नहीं होता और वह मुझसे कभी अदृश्य नहीं होता।’

८९-ऐसी अवस्थामें यही सिद्धान्त मानना चाहिये कि तत्त्वज्ञानी शाश्वत शान्तिको प्राप्त पुरुषके लिये कर्म रहता ही नहीं। प्रारब्धसे शरीर रहता है; परन्तु उसमें अहंता और कर्ता-भोक्ता भाववाले किसी धर्मीका अभाव होनेसे क्रियामात्र होती है। वस्तुतः उसको कोई भोगता नहीं। उसके कर्मोंके सारे बन्धन टूट जाते हैं। कर्मोंका समस्त भार उसके सिरसे उतर जाता है। प्रारब्धके शेष हो जानेपर शरीर भी छूट जाता है।

९०-अब एक प्रश्न यह है कि (गीता अध्याय २।६० में) यह कहा गया है कि प्रमथनकारिणी इन्द्रियाँ विपश्चित् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं, यह विपश्चित् पुरुष शाश्वत शान्तिको प्राप्त होता है या अन्य किसी प्रकारकी शान्तिको ? इसका उत्तर एक तरहसे ऊपर आ चुका है। थोड़े शब्दोंमें पुनः समझ लीजिये कि वस्तुतः शाश्वत शान्तिको प्राप्त पुरुष ब्रह्ममें- भगवान्के स्वरूपमें नित्य एकत्व-रूपसे अचल रहता है। वह चलायमान होता ही नहीं! यहाँ ‘विपश्चित्’ शब्दसे बुद्धिमान् पुरुष समझना चाहिये। जो बहुत बड़ा बुद्धिमान् तो है; परन्तु भगवत्प्राप्त नहीं है, उसकी बुद्धि यदि मनके अधीन हुई रहे तो उसके मनको इन्द्रियाँ बलात् खींच लेती हैं। भजनकी गोपनीयता

९१-दोष रहते भजन न किया जाय, ऐसी बात नहीं। परन्तु जबतक दोषका सर्वथा नाश न हो जाय, तबतक भजन अत्यन्त गुप्त रहे। भजन इतना गुप्त रहे जितना सम्भ्रान्त कुलकी स्त्रीका किसी जारसे प्रेम। दुर्गुण और दुर्भाव वास्तविक भजन होनेपर रह ही नहीं सकते। भक्ति और भजनका यह अर्थ कदापि नहीं कि इसमें बुरे आचरणोंका समर्थन है। भक्ति बुरी बातोंका कदापि किसी प्रकार भी समर्थन नहीं करती। दुराचारी कभी भक्त नहीं कहला सकता और जो भक्त है, वह कदापि दुराचारी हो ही नहीं सकता।

९२-आजकल बहुत कम ऐसे भक्त मिलते हैं जिनमें कोई दोष हो ही नहीं। हमारी दृष्टि भी संस्कारवश दूषित और मलिन हो गयी है, इस कारण भक्तिका स्वरूप कुछ नीचा हो गया है। लोग यह समझने लगे कि भक्तोंमें भी दुराचार रहता है इसलिये भक्ति और दुराचार साथ चल सकते हैं। यही इस युगकी सबसे बड़ी भ्रान्ति है।

९३-भक्तिकी कसौटी भगवान्ने गीता (अध्याय १२ के १३-२० श्लोकों) में स्पष्ट बतला दी है। भगवान्ने डंकेकी चोट यह कहा कि ‘मेरा भक्त वह है, जो किसीसे द्वेष नहीं करता, जो सब भूतोंके साथ मित्रतासे बरतता है, जो कृपालु है, जो ममता और अहंकारसे रहित है, जो दुःख और सुखमें समान और क्षमाशील है, जो ध्यानपरायण, लाभ-हानिमें सदा संतुष्ट, संयमी तथा दृढ़निश्चयी है, जिसने अपने मन और बुद्धिको मुझमें अर्पण कर दिया है, वह मेरा भक्त मुझे प्यारा है। जिससे न तो लोगोंको क्लेश होता है और न तो लोगोंसे क्लेश पाता है, ऐसे ही जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगसे रहित है वही मुझे प्रिय है। मेरा वही भक्त मुझे प्यारा है, जो निरपेक्ष, पवित्र और दक्ष है अर्थात् जीवनके असली कामको आलस्य छोड़कर करता है, जो पक्षपातरहित है, जिसे कोई भी विकार डिगा नहीं सकता और जिसने सभी (काम्यफलके) आरम्भयानी उद्योग छोड़ दिये हैं, जो न हर्ष मानता है, न द्वेष करता है, जो न शोक करता है और न इच्छा रखता है, जिसने (कर्मके) शुभ और अशुभ फल छोड़ दिये हैं, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है। जिसे शत्रु और मित्र, मान और अपमान, सर्दी और गर्मी, सुख और दुःख समान हैं और जिसमें आसक्ति नहीं है, जिसे निन्दा और स्तुति दोनों एक-सी हैं, जो मननशील है, जो भी कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तुष्ट है एवं जिसका चित्त स्थिर है, जो अनिकेत है अर्थात जिसका ठिकाना मेरे सिवा कहीं भी नहीं रह गया है, वह भक्तिमान पुरुष मुझे प्यारा है।’

९४-बहुत स्पष्ट शब्दोंमें बहुत खोलकर और बहुत विस्तारस भगवान्ने भक्तके गुण कहे हैं। जबतक अपनेमें ये लक्षण नह मिलने लगते, तबतक अपनेको ‘भक्त’ कहना या भक्त मानन खतरेसे खाली नहीं। जबतक कुछ भी विकार है, तबतक यह मानना चाहिये कि प्रभुमें पूर्ण विश्वास नहीं हुआ। विश्वास होते ही विकार नष्ट हो जाने चाहिये। जहाँ जीवन भक्तिमय हो गया, वहाँ विकार कहाँ? भक्तिका प्रधान साधन है मन। सर्वोत्तम भक्ति वह है, जिसमें सारा हृदय, सम्पूर्ण तन-मन-प्राण भगवान्‌को समर्पित हो जायँ। ‘भजते मामनन्यभाक् ।’

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