सारे साधनों का प्राण है- भगवान्‌का नाम -चतुर्थ माला (EN)

सारे साधनोंका प्राण है- भगवान्‌का नाम

४१-सारे साधनोंका प्राण है- भगवान्‌का नाम । ‘नाम रामको अंक है, सब साधन हैं सून।’ खूब भजन करो और दूसरोंसे करवाओ।

४२-मनुष्य सदा डरता रहता है। अपमानका, अकीर्तिका, शरीरनाशका डर उसे घेरे रहता है। वह कभी निर्भय नहीं हो पाता। पर यदि वह भगवान्‌की शरण ले ले तो फिर सर्वथा निर्भय हो जाय। भगवान् रामने कहा है कि ‘जो एक बार मेरी शरण ले लेता है, उसे मैं सबसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’

४३-मनुष्य यहाँ उस वस्तुको पानेके लिये आया है, जिसे पाकर कह सके कि मैं अमर हो गया हूँ। वह वस्तु है भगवान्‌की प्राप्ति- भगवत्प्रेमकी प्राप्ति।

४४-सृजन और संहारकी लीला चलती रहती है। बच्चा है, वह जवान होगा, बूढ़ा होगा और फिर मर जायगा। यह नहीं हो तो फिर शैशव, यौवन और बुढ़ापेकी लीला कैसे देखनेको मिले। ऐसा न होनेसे तो जगत्की शोभा ही न रहे।

४५-भगवान्‌की प्राप्ति ही इस जीवनका लक्ष्य है। यहाँ बड़े-छोटे बनते रहनेमें कुछ भी नहीं धरा है। न जाने – हम कितनी बार इन्द्र बने होंगे और कितनी बार चींटे।

४६-स्वाँगके अनुसार जो पार्ट हमें मिला है, हम करें, पर यह याद रखें कि यह नाटक है और अपने खेलको खूब अच्छी तरह खेलकर मालिकको रिझाना है।

४७-हम इसीलिये बार-बार घबड़ा उठते हैं कि संसार-नाटकके पीछे छिपे हुए भगवान्‌को नहीं देखते।

४८-जीवनके लक्ष्य होने चाहिये थे- भगवान्। पर हो रहे हैं- सांसारिक विषय। इसीलिये पद-पदपर भय एवं दुःख है। लक्ष्य बदलो, फिर सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द है।

४९-अभय पद हैं भगवान्‌के श्रीचरण। उन्हें प्राप्त करो। उनकी ओर बढ़नेका उपाय है निरन्तर भगवान्‌का नाम लेना, भगवान्‌की लीलाओंका गान करना और सत्संग करना।

५०-सबसे पहले अपने घरको झाड़ो। तुम्हारा मन तुम्हारा घर है इसे साफ करो। दुनियाको ठीक करनेकी चेष्टा छोड़ दो-

तेरे भावें जो करो, भलो बुरो संसार । ‘नारायण’ तू बैठ कर, अपनो भवन बुहार ॥

५१-मनुष्यसे यही भूल होती है कि वह दुनियाको तो सुधारना चाहता है, पर स्वयं सुधरना नहीं चाहता।

५२-मनुष्य यदि अपने दोषोंकी ओर देखने लग जाय तो फिर उसे दुनियाके दोषोंको देखनेका अवकाश ही नहीं मिले।

५३-जबतक मनमें कामना है, लोभ है, तबतक पापसे बचना बड़ा ही कठिन है।

५४-दूसरेके साधारण दोषके लिये भी मनुष्य उसे दण्ड देना चाहता है, पर यह नहीं विचारता कि वह स्वयं यही दोष करता है।

५५-मनुष्यके हाथमें जबतक अधिकार रहता है, तबतक वह अपने दोषोंको देख ही नहीं पाता।

५६-मनुष्य पुण्यका फल- सुख चाहता है, पर पुण्य नहीं करना चाहता और पापका फल- दुःख नहीं चाहता, पर पाप नहीं छोड़ना चाहता। इसीलिये सुख नहीं मिलता और दुःख भोगना ही पड़ता है।

५७-याद रखिये- चोरीका पैसा कभी घरमें स्थायी नहीं रहेगा। इतना ही नहीं, वह बहुत दुःख देकर जायगा।

५८-बुरे कर्मका फल अच्छा हो ही नहीं सकता। बुरा कर्म करते हुए जो किसीको फलते-फूलते देखा जाता है, वह उसके इस बुरे कर्मका फल नहीं है। वह तो पूर्वके किसी शुभ कर्मका फल है, जो अभी प्रकट हुआ है, अभी जो वह बुरा कर्म कर रहा है, उसका फल तो आगे चलकर मिलेगा।

५९-पाप करते समय मनुष्य यह भूल जाता है कि इसका फल क्या मिलेगा।

६०-नरकोंका वर्णन लोग सुनते नहीं। जो सुनते हैं, वे भी उसपर विश्वास नहीं करते। पर सच मानिये, यह वर्णन बिलकुल सत्य है और पाप करनेवालोंको वहाँ जाना ही पड़ता है।

६१-मनुष्य मोहवश यह कह बैठता है कि ‘अमुक काम नहीं करेंगे तो घरका निर्वाह कैसे होगा।’ यह भ्रम छोड़ देना चाहिये। निर्वाह तो भगवान् करते हैं, मनुष्य तो व्यर्थका गर्व करता है।

६२-तुम कह देते हो कि घरवालोंके लिये यह पाप कर रहा हूँ। पर याद रखो – घरवाले पापमें हिस्सा नहीं बँटायेंगे। अपने किये पापोंके लिये तुम्हें ही दण्ड भोगना होगा। देखो – जब तुम बीमार पड़ते हो, अत्यन्त पीड़ा होती है, तब चाहनेपर क्या कोई उसमें हिस्सा बँटा सकता है?

६३-परचर्चा, परनिन्दा-सुननेमें बड़ी मीठी मालूम होती है, पर है बहुत बुरी। इससे सर्वथा बचो।

६४-कानोंको लगाओ भगवान्‌के नाम, गुण, लीला, चरित्र आदिके सुननेमें। आँखोंको लगाओ भगवान्‌की मूर्तियोंके दर्शन करनेमें। यह नहीं करके, यदि परचर्चा-परनिन्दा सुनते हो, बुरे-बुरे दृश्योंको देखते हो तो इतनी बड़ी हानि हो रही है कि अभी तो उसकी कल्पना भी नहीं है, पर पीछे बहुत पछताना पड़ेगा।

६५-निष्प्रयोजन बोलना छोड़ दो। कामभर बोल लो, बाकी समय भगवान्‌के नामका जप करो या भगवान्‌के लीलागुणोंका गान।

६६-इन्द्रियोंके द्वारा ही पापके दृश्य मनमें आते हैं, इसलिये भूलकर भी इन्द्रियोंको बहिर्मुख मत होने दो। सब तरहसे उन्हें भगवान्में लगाये रखनेका प्रयत्न करो। यह प्रयत्न रात-दिन निरन्तर करनेकी चीज है।

६७-बुरी चीजको आग और साँपकी तरह मानकर उनसे बचते-डरते रहो

६८-विषयासक्ति-मनका बड़ा भारी रोग है। यह रोग मिटेगा- बार-बार सभी इन्द्रियोंको भगवान्में लगाते रहनेसे ।

य है औ

६९-जो मनुष्य अपनी उन्नति चाहता है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंमें गुण देखनेकी आदत डाले।

हीं करें नर्वाह

७०-जब मनुष्योंमें पराया दोष देखनेकी बान पड़ जाती है, तब दोष हुए बिना भी उसे दूसरोंमें दोष दीखने लग जाते हैं।

७१-रोग मिटानेके लिये तीन बातें होनी चाहिये-

(१) कुपथ्यका त्याग, (२) सुपथ्यका ग्रहण और

(३) ओषधिका

रहा है। पापोंवे

सेवन।

ड़ते हो

इस प्रकार भवरोगको मिटानेके लिये तीन बातें होनी चाहिये-

(१) पापका त्याग-यही कुपथ्यका त्याग है।

(२) दैवी सम्पदाका अर्जन- यही सुपथ्यका ग्रहण है।

(३) भगवान्‌का भजन- यही परम ओषधि है।

पर है

७२-कलियुगका प्रधान शस्त्र है- कपट। कलियुग कपटके पीछे चलता है।

७३-दो चीज कलके लिये मत रखो – एक भजन, दूसरा दान।

देखरे

मय

७४-जो भगवत्प्रेमी जन हैं, वे ही बड़भागी हैं तथा जिसके पास भजनरूपी धन नहीं है, असलमें वही निर्धन है।

७५-भाग्यवान् भगवत्प्रेमी लक्ष्मीके भोगोंको उलटीकी तरह त्याग देता है ‘तजत बमन जिमि जन बड़ भागी ॥’

७६-यदि कहीं भगवान् लक्ष्मी दे ही दें तो फिर भरतजीकी तरह ही उससे सम्बन्ध रखें। रामायणमें कहा है- ‘चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।’ जिस प्रकार भौंरा चम्पाके वनमें रहकर भी किसी भी चम्पाके फूलपर नहीं बैठता, उसी प्रकार भरतजी अयोध्याके ऐश्वर्यसे निर्लिप्त रहे। ठीक इसी प्रकार भोगोंसे निर्लिप्त रहे। भगवान्‌की अर्द्धांगिनी लक्ष्मी मैयाको भगवान्‌की सेवामें ही संलग्न रखे।

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