एकमात्र श्रीकृष्णकी कृपा ही जीव का परम सम्बल है। उनकी कृपा में यदि अनास्था है तो जीव के लिये कोई आश्रय नहीं। (EN)

४३-एकमात्र श्रीकृष्णकी कृपा ही जीव का परम सम्बल है। उनकी कृपामें यदि अनास्था है तो जीवके लिये कोई आश्रय नहीं। कृपा-कणिकाको प्राप्त करनेके लिये जीवके पास एक ही उपाय है कि श्रीकृष्णके चरणोंका आश्रय ले लिया जाय।

४४-शब्दका बड़ा महत्त्व है। शब्द ब्रह्म माना गया है। वेद शब्द ही है, भगवान्‌की वाणी है। वैदिक, तान्त्रिक आदि जो मन्त्र हैं, वे शब्दात्मक हैं और उनमें अनन्त शक्ति भरी हुई है। अर्थ बिना समझे केवल उन शब्दोंके उच्चारणमात्रसे ही कल्याण हो जाता है।

४५-शब्दमें दो बातें है- (१) शब्दका उच्चारण होते ही वह समस्त आकाशमें उसी क्षण व्याप्त हो जाता है और (२) शब्द नित्य रहता है और अपने रूपमें रहता है। जिस रसका, जिस भावका जो शब्द उच्चरित होता है, वह उसी रस, उसी भाव और उसी ध्वनिको लेकर नित्य रहता है।

४६-काल, ऋतु आदिको लेकर शब्दके बहुत भेद होते हैं। कालके अनुसार एक ही आदमीके शब्दोंकी ध्वनिमें अन्तर होता है; काम, क्रोध, लोभ आदि भावोंके अनुसार शब्दकी ध्वनिमें अन्तर होता है; मनुष्यके शरीरकी स्थितिके अनुसार शब्दकी ध्वनिमें अन्तर होता है, जिस व्यक्तिके साथ शब्द बोला जाता है, उसको लेकर भी शब्दकी ध्वनिमें अन्तर होता है, तिथियों, वारों, नक्षत्रों और प्रातः, मध्याह्न, संध्या, रात्रि आदिमें भी शब्दकी ध्वनियोंमें अन्तर होता है।

४७-जो लोग अनर्गल बोलते हैं, उनकी वाणीमें बहुत दोष आ जाते हैं। थोडा बोलनेवाला हो, बकवाद न करे, जो बोले शुभ-सत्य बोले, तो वह जो बोलेगा, प्रकृतिको उसे पूरा करना ही पड़ेगा।

माहात्माओंकी वाणी सिद्ध होती है, उसमें यही बात है। ४८-बुरा शब्द अपने लिये घातक है, जिसके प्रति बोला गया, उसका बुरा तो प्रारब्धवश होगा।

४९-वाणीकी शक्ति दो प्रकारसे नष्ट होती है- (१) असत्य बोलनेसे और (२) व्यर्थके भाषणसे।

५०-जैसे पानी कपड़ेसे छानकर पीते हैं, वैसे ही शब्दको सत्यसे छानकर बोले।

५१-शब्दके उच्चारणमें प्रधान बात है- परिमित बोले और शुभबोले। बिना आवश्यकता कुछ बोला ही न जाय। शेष समयमें भगवान्‌के नामका उच्चारण करता रहे।

५२-मिठास कहाँ है-जहाँ प्रेम है; जलन, विष कहाँ है- जहाँ द्वेष है। प्रेममें आनन्द है, माधुर्य है; द्वेषमें विष है, जलन है।

५३-भगवान्के लिये कोई भी काम ऐसा नहीं, जो वे न कर सकें।

अतएव जब हम किसीसे कहते हैं कि भगवान्पर विश्वास करो, तुम्हारा यह काम हो जायगा, तब इसमें तनिक भी झूठ नहीं है। हम जो इन शब्दोंके कहनेमें कुछ हिचकते हैं, इसमें हमारी नास्तिकता काम करती है। नहीं तो भगवान्पर यदि किसीने सच्चा विश्वास कर लिया तो उसका काम अवश्य हो ही जायगा।

५४-किसीमें शक्ति हो तो आशीर्वाद पाप नहीं है। हमारे विश्वाससे तो आशीर्वाद देने से शक्ति बढ़ती है; क्योंकि आशीर्वादमें अपने पुण्यका दान किया जाता है। अतः उस पुण्य-दानका महाफल होगा ही। हाँ, आशीर्वाद भी होना चाहिये निष्काम और अहंकारशून्य ।

५५-संदेहको लेकर जो अनुष्ठान होता है, वह सफल नहीं होता।

यह वस्तु है, मिलती है और मुझे अवश्य मिलेगी- अर्थात् वस्तुमें, उसकी प्राप्तिमें और अपनेमें- इन तीन बातोंमें जहाँ पूर्ण विश्वास है, वहाँ सफलता-ही-सफलता है। इन तीन बातोंमें जहाँ सन्देह है, वहीं असफलता होती है।

५६-मनुष्य कठिनाइयोंपर विजय पा सकता है- इसलिये कि वह भगवान्‌का अंश है; आग्रह, अहंकार, पुरुषार्थ आदिसे नहीं। सबसे बड़ा बल जो उसके पास है, वह भगवान्‌का है। मनुष्य यदि भौतिक पदार्थोंके बलपर भौतिक कठिनाइयोंको मिटाना चाहे तो वे घटेंगी नहीं, बढ़ेंगी। जहाँ भौतिक बलको मनुष्य त्याग देता है-निर्बल होकर बल-रामको पुकारता है-वहाँ कठिनाइयाँ रह नहीं सकतीं। उनकी कृपासे सारी कठिनाइयाँ अपने-आप हट जाती हैं-

सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।

५७-जिसको वास्तविक प्रेम कहते हैं, वह वाणीका विषय नहीं है, वह तो एक सहज स्थिति है और वह स्थिति त्यागके बहुत ऊँचे स्तरपर पहुँचनेपर प्राप्त होती है।

५८-प्रेम और भगवान्में अन्तर नहीं। भगवत्प्रेमकी प्राप्तिमें सबसे प्रथम और सबसे अन्तिम आवश्यक वस्तु है- सर्वस्वका समर्पण और उत्कट अभिलाषा। सब कुछ भगवान्‌को सौंप देना और भगवान्के अतिरिक्त और वस्तुको किसी भी स्थितिमें न चाहना, न लेना।

५९-जहाँ हमने भगवान्‌का आश्रय लिया, वहीं स्वाभाविकरूपसे दैवी सम्पत्ति हमारे जीवनमें आ जायगी। ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्योदयके साथ ही प्रकाश आ जाता है।

६०-भगवान्में जो दिव्य गुण हैं उनका अनुकरण करना, उनकी नकल करना, वे गुण किसी अंशमें अपनेमें आवें, इसके लिये प्रयत्न करना बड़े महत्त्वका साधन है। जैसे, भगवान् अपने सर्वस्वका जगत्में वितरण करना चाहते हैं, तो उनके इस गुणका अनुकरण कर हम भी अपने पास जो सम्पत्ति और गुण हों, उनको भगवान्‌की सेवाके निमित्त जगत्में वितरण करते रहें। देनेपर ही चीज मिलती है और हम जैसी चीज देते हैं, वैसी ही चीज हमें मिलती है और मिलती है अनन्तगुनी होकर। अतएव हम सद्गुणोंका वितरण करेंगे तो हमारे सद्गुण अनन्तगुना बढ़ जायेंगे। भगवान्‌के राज्यमें बुरेका फल अच्छा आर अच्छेका फल बुरा कदापि नहीं हो सकता। बीज एक होता है और फल अनेक। साथ ही बीजसे उसका ही फल होता है, दूसरा नहीं। अतः जैसा भला-बुरा हम करते हैं, वैसा ही अनन्तगुना भला-बुरा हमें प्राप्त होगा।

६१-भगवान्के जितने भी सुन्दर गुण हैं, सभी अंशरूपमें हमारे

अंदर हैं, क्योंकि हम भगवान्‌के अंश हैं। पर उन गुणोंका विकास नहीं होता, वे छिपे रहते हैं। इसीलिये साधनाकी आवश्यकता होती है। साधनामें सबसे पहली वस्तु है- भगवान्की ओर हमारा मन आकृष्ट हो, भगवान्‌को हम अपने जीवनका आधार बनावें और उनका चिन्तन करें। यह गुण आधाररूप है जो अन्य गुणोंको खींचकर लाता है। भगवान्‌का भजन करें, उनकी शरण ग्रहण करें, मनको उनसे जोड़े-यह पहली बात है। यदि हमने इसे कर लिया तो अन्यान्य गुण हमारे अन्दर अपने-आप ही प्रकट होने लगेंगे। हमने आग जला ली तो उसके साथ उसकी दाहिका शक्ति अपने-आप आ जाती है। इसी प्रकार हम देवको अपने घरमें ले आयें तो उनके साथ दैवी सम्पत्ति अपने-आप आ जायगी। पर आज हम देवको छोड़कर दैवी सम्पत्ति चाहते हैं; सूर्यका बहिष्कार करके उसके प्रकाशको चाहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम दैवी सम्पत्ति या प्रकाशसे वंचित रह जाते हैं। भगवान्में अविश्वास करनेवालोंमें भी कभी-कभी दैवी गुण दिखायी पड़ जाते हैं, पर बिना दैवी आधारके वे टिक नहीं सकते, ठीक उसी प्रकार जैसे बिना सजलमूल नदी जल्दी ही सूख जाती है।

६२-अभ्यास और प्रेम दोनोंमें ही चिन्तन होता है। अभ्यास होनेपर चिन्तन अपने-आप होता है, प्रेम होनेपर भी चिन्तन अपने-आप होता है। परन्तु अभ्यासका चिन्तन रूखा है, प्रेमका सरस। अभ्यासमें क्रिया है, प्रेममें भाव। क्रिया और भाव साथ-साथ चल सकते हैं, पर अपने-अपने स्वरूपमें ही। अतएव भगवान्‌के जिस रूपकी ओर रुचि हो, उसके चिन्तनका अभ्यास करना चाहिये और साथ-ही-साथ उसमें प्रेमभाव भी बढ़ना चाहिये। अभ्यासके साथ भाव होनेसे धीरे-धीरे रस आने लगेगा और फिर उसे हम छोड़ नहीं सकेंगे।

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