संसार में छल-कपट भरा हुआ है ऐसे में उन्ही के बीच कैसे रहें, कभी कभी सहन नहीं होता ?

​संसार में छल‑कपट क्यों दिखता है?

महाराज जी कहते हैं कि कलियुग का प्रभाव ऐसा है कि यहां अधिकतर लोग स्वार्थ, वासना और अपने लाभ के लिए एक‑दूसरे से रिश्ता रखते हैं, इसलिए धोखा, कपट और गाली भी सामान्य बात हो गई है। लोग जब तक अपनी इच्छाओं की पूर्ति होती देखेंगे तब तक “प्यार” का दिखावा करेंगे, लेकिन जैसे ही उनकी वासना या स्वार्थ पूरे नहीं होंगे, वही लोग विरोध, दूरी और धोखे पर उतर आएंगे।

इसलिए “सब अपने हैं, सब मुझे सच्चा प्यार करते हैं” यह मान्यता ही दुख की जड़ है, क्योंकि जब व्यवहार उल्टा मिलता है तो मन टूटा हुआ महसूस करता है। महाराज जी साफ कहते हैं कि “यहां पोषण नहीं, शोषण मिलेगा; पोषण केवल भगवान से मिलता है।”

सबकी गलतियों के बीच कैसे रहें?

प्रश्न यह था कि जब पता है कि लोग छल‑कपट करते हैं और कोई अपना नहीं, फिर भी उन्हीं के बीच रहना पड़ता है, तो कैसे जिया जाए। महाराज जी कहते हैं, “हट नहीं सकते तो उन्हीं में भगवत‑भाव करके जियो” – यानी हर व्यक्ति में भगवान को देखकर रहो कि “मेरे भगवान इस रूप में आए हैं।”​

उनका स्पष्ट निर्देश है:

  • अगर कोई तुम्हारे साथ छल करे, करने दो; तुम छल मत करना।
  • कोई कपट करे, करने दो; तुम कपट मत करना।
    तब तुम भगवान के लाडले हो जाओगे, और जिस पर भगवान की कृपा होती है, उसके सामने सब सुख झुकते हैं। मतलब संसार जैसा भी हो, तुम्हारा चरित्र, तुम्हारी सत्यनिष्ठा, तुम्हारा प्रेम भगवान के लिए हो, लोगों की बुराई देखकर तुम बुरे मत बनो।

मोह: क्यों छोड़ नहीं पाते?

महाराज जी बताते हैं कि हम खुद भी जानते हैं कि सामने वाला हमें धोखा दे रहा है, हमें प्यार नहीं करता, स्वार्थ में पड़ा है, फिर भी उससे चिपके रहते हैं, यह “मोह” है। मोह की दशा यह है कि अगर वही लोग हमें घर से निकाल दें, अपमान करें, फिर भी मन उन्हीं से प्रेम ढूंढता रहेगा और उनके पीछे भागेगा।

यह मोह इसलिए है कि मन भगवान से जुड़ा नहीं है; अगर मन भगवान में लग जाए तो एक‑एक इंसान की चाल समझ में आ जाएगी और फिर अंदर से टूटन नहीं होगी, केवल स्थितप्रज्ञता रहेगी। मोह में बंधा मन संसार को छोड़े बिना भगवान की ओर नहीं जा पाता, और यही सबसे कठिन साधना है – “सबकी ममता के तागे बटोरकर मन को प्रभु के चरणों में बांध देना।”​

असली प्यार क्या है?

आज जो लोग “मैं तुमसे प्यार करता/करती हूं” कहते हैं, वहां भी कई बार अंदर से वासना या स्वार्थ ही छुपा होता है, न कि त्याग वाला प्रेम। महाराज जी बताते हैं कि असली प्यार का स्वरूप है:

  • अपने प्रिय के सुख के लिए अपने प्राण तक दे देना।
  • यह चाहना कि “तुम जहां खुश हो, जिस के साथ खुश हो, भगवान तुम्हें वही सुख दे, मैं कभी तुम्हारे बीच में रोड़ा नहीं बनूंगा।”

वे कहते हैं कि ऐसा प्रेम फिल्मों में दिख जाता है, पर प्राय: व्यवहार में नहीं दिखाई देता; व्यवहार में लोगों का प्रेम स्वार्थ से बंधा होता है। इसीलिए वे बार‑बार कहते हैं – “प्यार भगवान से करो, तो आनंदित हो जाओगे, पर भगवान प्रगट नहीं हैं, अव्यक्त परमात्मा हैं, इसलिए उनसे प्यार करना कठिन लगता है।”​

सहन नहीं होता, तब क्या करें?

पूछने वाली भक्तिन ने कहा कि “कभी‑कभी लगता है, अब सहन नहीं हो रहा।” इस पर महाराज जी कहते हैं कि ऐसा इसलिए लगता है कि आपने भगवान को अपना नहीं माना, यदि भगवान को सच्चा अपना मान लो तो सब कुछ सहन करने की शक्ति आ जाती है।

वे अपना उदाहरण देते हैं कि “पूरा जीवन हो गया, एक भी दोस्त नहीं बनाया; न दोस्त, न दुश्मन, केवल मेरा मित्र गोविंद (ठाकुर) है।” वे कहते हैं कि उसी एक दोस्त (भगवान) के बल से वे गरजते हैं, दहाड़ते हैं, और उनको न भगवान से शिकायत है न जगत से, क्योंकि उन्होंने अपेक्षा का केन्द्र ही बदल दिया है – लोगों से हटाकर भगवान पर लगा दिया है।

भगवान से संबंध कैसे बने?

महाराज जी का मार्ग बहुत सरल है, पर मन के लिए कठिन:

  • निरंतर भगवान का नाम जप: “राधा राधा जपो, कृष्ण कृष्ण जपो, उसी से प्यार हो जाएगा।”
  • सब में भगवत‑भाव: हर व्यक्ति, हर घटना को इस भावना से देखना कि “मेरे प्रभु का यही संकेत है, जो मेरे प्यारे को अच्छा लगे वही मेरे लिए ठीक है।”​

वे कहते हैं कि जब साधना प्रगाढ़ होती है तो साधक को हर कदम पर भगवान का इशारा, संकेत, और साथ महसूस होने लगता है – खाने‑पीने, हंसने‑बोलने, खेलने तक में उसे प्रभु का ही साथ दिखाई देता है। यह केवल बातों से नहीं, नियमित साधना, नाम‑जाप, भजन और अंदरूनी समर्पण से अनुभव में आता है।

व्यावहारिक जीवन में अपनाने योग्य बातें

महाराज जी की बातें रोजमर्रा के जीवन में कुछ तरह से उतारी जा सकती हैं:

  • लोगों के छल‑कपट को देखकर टूटो मत; इसे कलियुग और माया का खेल समझो, व्यक्तिगत दुश्मनी मत मानो।
  • अपने आचरण को साफ रखो: झूठ, धोखा, चालाकी से बचकर सत्य और करुणा से व्यवहार करो, चाहे सामने वाला जैसा भी हो।
  • दिल की गहराई से भगवान को अपना “सबसे नज़दीकी” मानकर रोज कुछ समय नाम‑जाप, भजन और मन की बात प्रभु के सामने कहने की आदत बनाओ।
  • जब भी “अब सहन नहीं हो रहा” लगे, वहीं रुककर मन में दो‑तीन मिनट नाम जपो, और यह भाव करो कि “प्रभु, यह स्थिति भी आपकी दी हुई है, आपकी इच्छा में मुझे स्वीकार है।”

इस प्रकार महाराज जी की मुख्य सीख है: संसार की अपेक्षाओं से मुक्त होओ, भगवान के प्रेम में बंधो, स्वयं छल‑कपट से बचो और हर परिस्थिति को प्रभु की लीला मानकर शांत मन से स्वीकार करो; तब भीतर ऐसी शक्ति आ जाती है कि दुनिया चाहे जैसा भी व्यवहार करे, मन टूटता नहीं, बल्कि और अधिक भगवान के पास भागता है।

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