प्रश्न – रामचरितमानस में आता है- ‘समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं ॥’ (बाल० ६९।४)। अतः जिनको राज्य मिला है, बड़ा पद मिला है, वे (राजा, सरकार) समर्थ हैं, तो फिर उनको पाप कैसे लगेगा?
उत्तर- वे समर्थ नहीं हैं। समर्थ वे हैं, जिनमें दूसरोंके दोषोंको नष्ट करनेकी शक्ति है। जैसे- सूर्य गन्दगीका शोषण कर लेता है; अपवित्रको पवित्र, अशुद्धको शुद्ध बना देता है; सबके जलीय भागको खींच लेता है; समुद्रके खारे जलको खींचकर मीठा जल बना देता है। परंतु ऐसा करनेपर भी सूर्य खुद कभी अशुद्ध, अपवित्र नहीं होता। अग्नि सब गन्दगीको जला देती है, सबका भक्षण कर जाती है, सबको शुद्ध कर देती है, पर वह अशुद्ध नहीं होती, उसको दोष नहीं लगता. गंगाजी गंदे जल को पवित्र कर देती हैं, पापों का नाश कर देती है, पर उनको दोष नहीं लगता. तात्पर्य है कि अशुद्ध को शुद्ध बना देना और स्वयं ज्यों-का-त्यों ही रहना-यह समर्थपना है. जिसको राज्य, वैभव मिल गया, वे समर्थ हैं-यह बात है ही नहीं.
सांसारिक पद, अधिकार, वैभव आदि मिलने से मनुष्य समर्थ नहीं होता; क्योंकि उसकी सामर्थ्य पद, अधिकार आदि के अधीन है. वह तो पद, अधिकार आदि का गुलाम है, दास है, पराधीन है ; अत: वह खुद समर्थ कैसे हुआ? तात्पर्य है कि जो मिली हुई चीज से अपने को समर्थ मानता है, वह वास्तव में असमर्थ ही है, क्योंकि उसमें जो सामर्थ्य दिखती है, वह उस चीज की है, खुद की नहीं है. जो वास्तव में समर्थ होते हैं, उनकी सामर्थ्य किसी के अधीन नहीं होती; जैसे- सूर्य, अग्नि और गंगाजी की सामर्थ्य किसी के अधीन नहीं है, प्रत्युत स्वयं की है. अत: राज्य के पद के मद में आकर जो पाप करते-करवाते हैं, वे अपनी सामर्थ्य का महान दुरुपयोग करते हैं, जिसका दंड उनको भोगना ही पड़ेगा. उनकी सामर्थ्य पापों को दूर करनेवाली न होकर पाप करानेवाली है. इसलिए वास्तव में जो समर्थ नहीं है, उस सरकार को समर्थ मानकर उसकी प्रेरणा से मनुष्य को कभी पाप नहीं करना चाहिए.
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.
स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।