अधर्म के पैसे से पुण्य करे तो क्या भगवान् मिलेंगे? क्या संतान से सुख की आकांक्षा करना गलत है?

श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के “एकान्तिक वार्तालाप” 19-11-2025 (YouTube #1098) के पहले दो सवालों —

  1. मनमाने ढंग से कमाए पैसे से खूब दान–पुण्य करें, तो क्या भगवान मिलेंगे?
  2. क्या संतान से सुख की आकांक्षा करना गलत है?

— के उत्तरों की गहराई और मूल भाव को आधार बनाकर, विस्तृत हिंदी में विश्लेषणात्मक और भावनात्मक आर्टिकल यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।


प्रस्तावना

मनुष्य के जीवन में दो प्रश्न सदा अमूर्त स्वरूप में विद्यमान रहते हैं—धर्म और सांसारिक सुख। जहाँ एक ओर व्यक्ति पुण्य, दान, साधना, भक्ति तथा भगवान के मिलन की लालसा रखता है, वहीं दूसरी तरफ सांसारिक बंधन, संतान की प्राप्ति और उससे सुख पाने की स्वाभाविक आकांक्षा भी उसमें प्रबल रहती है।

प्रेमानंद महाराज के प्रवचनों की गहराई इस बात में है कि वे शास्त्र, तर्क और अनुभव तीनों के समन्वय से इन सवालों के उत्तर देते हैं। ये उत्तर केवल सूक्तियाँ नहीं, बल्कि जीवन हेतु दिशा-निर्देशक प्रकाशपुंज हैं।


प्रश्न 1: मनमाने ढंग से कमाए पैसे से खूब दान–पुण्य करें, तो क्या भगवान मिलेंगे?

प्रश्न की पृष्ठभूमि

यह सवाल हर उस व्यक्ति के अंतर्मन में, उठता है जो धन, दान और अध्यात्म के गठजोड़ से भगवान को प्राप्त करना चाहता है। प्रश्न के मूल में चिंता है — क्या साधनों (पैसे) की शुद्धता मायने रखती है या मात्र बड़े-बड़े दान से ही परम लक्ष्य प्राप्त हो सकता है?

उत्तर—महाराज जी का दृष्टिकोण

1. धन के अर्जन का तरीका अधिक महत्वपूर्ण:

महाराज जी ने स्पष्ट समझाया कि,
“यदि धन का अर्जन ही मनमाने ढंग, यानी अधर्म, कपट, छल, शोषण, या अनैतिक मार्गों से किया गया है, तो उस धन से चाहे जितना भी दान-पुण्य क्यों न किया जाए, भगवान की कृपा या साक्षात्कार संभव नहीं।”

क्यों? क्योंकि दान, भले ही कितना भी सत्य प्रतीत हो, यदि उसकी नींव पाप पर है, तो वह वृक्ष कभी मीठा फल नहीं दे सकता। धर्म से विमुख होकर अर्जित धन, बाह्य आडंबर के लिए दान, मंदिर निर्माण, प्रवचन मंडप, भंडारे आदि में खर्च होने से परमात्मा प्रसन्न नहीं होते।

2. शुद्ध साधनों से अर्जित धन ही स्वीकार्य:

महाराज जी यह दृष्टांत देते हैं—धन की शुद्धता, उस जल के समान है जो गर्भस्थ शिशु को पुष्ट करता है। गंदा जल, चाहे कितनी भी मात्रा में हो, रोग ही देगा; वैसे ही अपवित्र साधनों से कमाया गया धन, चाहे परम धार्मिक प्रयोजनों में लगा दिया जाए, उसका परिणाम भीतर से पतन ही है।

3. दान का भाव सर्वोपरि, आडंबर नहीं:

यथावत भगवान भाव के भूखे हैं, दिखावे या मात्र बाहरी दान के नहीं। संकीर्ण तथा स्वार्थपूर्ण हृदय से किया गया दान शून्यता ही लाएगा। महाराज श्री उद्धृत करते हैं—“भगवान तो केवल हृदय की गहराई और सर्वस्व समर्पण के भाव को स्वीकारते हैं, न कि मनमर्जी से जीकर संचित काले धन के पाखंडपूर्ण दान को।”

4. सच्चा धर्म – शुद्धि के संकल्प में:

मूल बात ये है कि धर्म के क्षेत्र में साध्य और साधन दोनों की शुद्धता अनिवार्य है। यदि धन की कमाई सत्कर्म, परिश्रम, ईमानदारी और धर्म के अनुरूप है, तो उस एक दाना भी भगवान तक पहुंचता है, किंतु अधर्म से अर्जित धन का प्राचीनकाल से तिरस्कार हुआ है।

5. सर्वोच्च मूल्य–स्वतः की आत्मशुद्धि:

महाराज जी कहते हैं कि अंत:करण की पवित्रता, भक्त के काम-धंधे, उसकी सोच, उसकी कमाई, उसकी सेवा और उसकी श्रद्धा—यह सबकुछ साथ-साथ चलता है। संकीर्ण सोच, लोभ, स्वार्थ, दूसरों को परेशान करके जुटाया धन कभी जीवन मे शांति, भगवान, या तृप्ति नहीं दे सकता।


विश्लेषण:

किसी भी धार्मिक, लोककल्याण या अध्यात्मिक कार्य में प्रयुक्त साधनों की शुद्धता सर्वाधिक आवश्यक है। वरना, ऐसे अनेक उदाहरण पुराण, वेद, इतिहास और संत साहित्य में हैं, जहाँ कई प्रसिद्ध, अमीर दानियों की दान राशि केवल दिखावा ही रही — उन्हें प्रभु-प्रेम का अंशमात्र भी प्राप्त न हो सका।

धम्मपद और भगवद्गीता में भी यही उद्घोष है—‘त्याग का आधार धर्मसंगत हो, लोभ, पाप, अहंकार, और दूसरों के शोषण से अर्जित धन, सत्य के श्रीविग्रह तक नहीं पहुँच सकता।’

मौलिक प्रश्न का मर्म

सामान्यजन यह सोच सकता है कि यदि पाप-दुष्ट आचरण कर और फिर उसका कुछ हिस्सा दान कर दिया जाए तो क्या पाप नष्ट हो जाएगा? महाराज जी का कथन सटीक है—जैसे शराब से गंदे हुए वस्त्र पर कितनी भी सुगंध छिड़क दो, वह वस्त्र गंदा ही रहता है; वैसे ही अधर्म से अर्जित धन, चाहे दिखावा कितना भी हो, प्रभुता प्राप्ति के मार्ग में बाधा बना रहेगा।

निष्कर्ष

  • पवित्रता से अर्जित, श्रमसिद्ध पैसे द्वारा किया गया छोटा-सा दान भी प्रभु-प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम है।
  • धर्म, निष्ठा व खरे भाव के बिना किआ गया दान मात्र कर्मकांड बन जाता है, न कि भगवत्प्राप्ति का साधन।
  • सत्पथ, सद्गुण, सत्य और निष्कलंक जीवन—यही भगवान को प्रसन्न करते हैं न कि मोटी रकम का प्रदर्शन।

प्रश्न 2: क्या संतान से सुख की आकांक्षा करना गलत है?

प्रश्न की पृष्ठभूमि

हर माता-पिता अपने जीवन की संध्या में संतान से सुख, सेवा, आदर या कम से कम उपस्थिति की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन क्या यह इच्छाशक्ति, संसार के परिदृश्य में, गलत मानी जाए? क्या धार्मिक या अध्यात्मिक दृष्टि से संतान से सुख चाहना अनुचित है?

उत्तर—महाराज जी का दृष्टिकोण

1. स्वाभाविक मानवीय भावना:

महाराज जी बहुत दार्शनिक और मानवीय दृष्टिकोण से कहते हैं—
“माता-पिता के हृदय में संतान के प्रति प्रेम और उनकी सेवा पाने की कामना पूरी तरह स्वाभाविक है। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।”

यह आकांक्षा न कोई पाप है, न अधर्म; यह तो जीवन चक्र का सहज हिस्सा है।

2. किंतु, अपेक्षाएँ बंधनों का कारण:

मगर, महाराज यहाँ सूक्ष्म अंतर भी बताते हैं—संसार में किसी भी चीज, व्यक्ति, संतान या संपत्ति से सुख की आशा करना, जीवन को बंधन में बांध देता है। यदि संतान से सुख नहीं मिला, तो उसकी पीड़ा हृदय को घेर लेती है। तब व्यक्ति दुखी हो जाता है, शिकायतें जन्म लेती हैं।

3. अपेक्षाएं सीमित होनी चाहिए:

महाराज जी संवेदनशीलता के साथ कहते हैं कि योग्यता, शिक्षा और संस्कार देना माता-पिता का कर्तव्य है। किंतु इसके बाद अपनी संतानों की ओर से सेवा, श्रद्धा व ‘सदा सुख’ की उम्मीद पालना, कई बार आत्मिक कष्ट का कारक बनता है।

4. सत्संग, सेवा और संतुलन—जीवन का सार:

संतों का विचार है कि ‘सर्वोत्तम सुख केवल परमात्मा की शरण में है, न कि संतान, धन, या अन्य सांसारिक वस्तुओं में।’ यदि माता-पिता अपने जीवन में प्रभु-भजन, सत्कर्म, सत्संग एवं भगवान के प्रति निष्ठा को प्रमुखता दें, तो उनके अंत:करण में संतुलन और तृप्ति स्वयं पैदा होगी।

5. आशा की नाव अपेक्षा के सागर में न डूबे:

अर्थात, यदि संतान आज्ञाकारी, संस्कारी, और सेवा भावी है, तो कृतार्थ समझें। यदि नहीं, तो भी प्रभु का धन्यवाद करें — क्योंकि संसार में ही सब कुछ परिपूर्ण नहीं होता। अपने मन का केंद्र परमात्मा में स्थिर करें, जिससे दुःख की लहरें हृदय को विचलित न करें।


विश्लेषण:

संक्षेप में: संतान से सुख की आकांक्षा स्वाभाविक है, किंतु इसकी अति न हो। अपने फ़र्ज (कर्तव्यों) को निभाने के बाद संतान की ओर से किसी भी अपेक्षा का पालन यदि उदारता, दया और संतुलन से किया जाए, तो हृदय शांत रहेगा।

हमारे समाज की पड़ताल करें, तो हजारों परिवारों में देखा जाता है कि जब संतान उम्मीदों पर खरा न उतरे तो माता-पिता दुख और निराशा से ग्रस्त हो जाते हैं—इसलिए महाराज जी का उपदेश है कि अपने जीवन का सबसे पक्का आधार परमात्मा को मानो, सांसारिक संबंध थोड़े समय के हैं।


उपसंहार

इन दोनों सवालों—धन की शुद्धता और संतान से सुख की अपेक्षा—में महाराज जी ने शास्त्र, तर्क और संयम, इन तीनों का समावेश किया है। उन्होंने दर्शाया कि—

  • धन का साध्य जितना आवश्यक है, साधन की शुद्धता उससे अधिक महत्वपूर्ण है।
  • संपत्ति, संतान, संबंध—ये सब जीवन यात्रा के पड़ाव हैं, अंतिम गंतव्य नहीं।
  • भगवत्प्राप्ति, आनंद और स्थाई सुख अंत:करण की शुद्धता, सेवा, त्याग और तृप्ति में है—आडंबर, दिखावा, लोभ, अपेक्षा में नहीं।

इन जीवनदायी सिद्धांतों को अपनाकर, मनुष्य अपने जीवन को पूर्ण, शांत, और दिव्य बना सकता है।


लेखक का निवेदन:
यह लेख महाराज श्री के प्रवचनों, भारतीय शास्त्रों, और व्यापक समाज के अनुभवों पर आधारित है। आशा है कि यह लेख आपके मन और जीवन में स्थाई सुख, संतुलन एवं आध्यात्मिक उत्थान का बीज बो पाएगा।

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