आजकल स्त्री को पुरुष के समान अधिकार देने की बात कही जाती है, क्या यह ठीक है ?

प्रश्न- आजकल स्त्री को पुरुष के समान अधिकार देने की बात कही जाती है, क्या यह ठीक है ?

उत्तर-यह ठीक नहीं है. वास्तव में स्त्री का समान अधिकार नहीं है, प्रत्युत विशेष अधिकार है. कारण कि वह अपने पिता आदि का त्याग करके पति के घर पर आयी है; अतः घर में उसका विशेष अधिकार होता है। वह घर की मालकिन, बहुरानी कहलाती है. बाहर पति का विशेष अधिकार होता है। जैसे रथ दो पहियों चलता है, पर दोनों पहिये अलग-अलग होते हैं. अगर दोनों पहियों को एक साथ लगा दिया जाय तो रथ कैसे चलेगा? जैसे दोनों पहिये अलग-अलग होने से ही रथ चलता है, ऐसे ही पति और पत्नी का अपना अलग-अलग अधिकार होनेसे ही गृहस्थ चलता है। अगर समान अधिकार दिया जाय तो स्त्री की तरह पुरुष गर्भ धारण कैसे करेगा ? अतः अपना-अपना अधिकार ही समान अधिकार है। इसी में दोनों की स्वतन्त्रता है।

अपना-अपना अधिकार ही श्रेष्ठ है, उत्तम है। हमारे को थोड़ा अधिकार दिया गया है और पुरुष को ज्यादा अधिकार दिया गया है-इस बात को लेकर ही भीतर में यह वासना होती है कि हमारेको समान अधिकार मिले, पूरा अधिकार मिले। इस वासना में हेतु है-बेसमझी, मूर्खता। समझदारी हो तो थोड़ा ही अधिकार बढ़िया है। कर्तव्य अधिक होना चाहिये। कर्तव्य का दास अधिकार है, पर अधिकार का दास कर्तव्य नहीं है। यदि अपने कर्तव्य का तत्परतासे पालन किया जाय तो संसार, सन्त- महात्मा, शास्त्र और भगवान् – ये सब अधिकार दे देते हैं।

अधिकार प्राप्त करने की इच्छा जन्म-मरण का हेतु है और नरकों में ले जानेवाली है। हमने देखा है कि एक मोहल्ले का कुत्ता दूसरे मोहल्लेमें जाता है तो उस मोहल्ले का कुत्ता उसको काटनेके लिये दौड़ता है। दोनों कुत्ते आपस में लड़ते हैं। आगन्तुक कुत्ता नीचे गिर जाय, पैर ऊपर कर दे, नम्रता स्वीकार कर ले तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसके ऊपर खड़ा होकर राजी हो जाता है। कारण कि वह उस मोहल्ले पर अपना अधिकार मानता है, पर आगन्तुक कुत्ता उस मोहल्लेपर अपना अधिकार नहीं मानता, उसके सामने नम्रता स्वीकार कर लेता है तो लड़ाई मिट जाती है। इससे सिद्ध होता है कि अधिक अधिकार पाने की लालसा तो कुत्तों के भीतर भी रहती है। ऐसी है लालसा यदि मनुष्यों के भीतर भी रहे तो मनुष्यता कैसी ? अधिक अधिकार पानेकी लालसा नीच मनुष्यों में होती है। जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं, वे अपने कर्तव्य का ही उत्साहपूर्वक तत्परता से पालन करते हैं। कर्तव्यका पालन करनेसे उनका अधिकार स्वतः ऊँचा हो जाता है।

वास्तवमें देखा जाय तो स्त्रियोंका अधिकार कम नहीं है। वे घरकी मालकिन, गृहलक्ष्मी कहलाती हैं। घर के जितने भी लोग बाहर काम-धंधा करते हैं, वे आकर स्त्रियों का ही आश्रय लेते हैं। स्त्रियाँ घरभर के प्राणियोंको आश्रय देनेवाली होती हैं। वे सबकी सेवा करती हैं, सबका पालन करती हैं। अतः उनका अधिकार ज्यादा है। परन्तु जब वे अपने कर्तव्य से च्युत हो जाती हैं, तभी उनके मन में अधिक अधिकार पानेकी लालसा पैदा होती है।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।

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