मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश से पूज्य महाराज जी की क्या वार्तालाप हुई ?

मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश और पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के बीच हुई वार्तालाप का सारांश। जानिए कैसे कर्तव्य, धर्म और भक्ति का समन्वय मानव जीवन और न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक है। पढ़ें पूरी बातचीत और प्राप्त करें जीवन को बदलने वाली शिक्षाएँ।

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6/8/20251 मिनट पढ़ें

मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश और पूज्य महाराज जी की वार्तालाप: आध्यात्मिक दृष्टिकोण और कर्तव्यबोध

मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश और पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के बीच हुई वार्तालाप न केवल एक आध्यात्मिक संवाद थी, बल्कि यह जीवन के परम उद्देश्य, कर्तव्यबोध और धर्म की रक्षा के महत्व को भी उजागर करती है। इस संवाद का सारांश, विशेष रूप से वीडियो के 2:35 मिनट से 3:14 मिनट तक, समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए प्रेरणादायक है।

वार्तालाप का सारांश

पूज्य महाराज जी ने मुख्य न्यायाधीश से कहा कि मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति है। उन्होंने समझाया कि जीवन में पद, प्रतिष्ठा, संबंध, शरीर, वैभव—ये सब अस्थायी हैं और एक न एक दिन छूट जाएंगे। केवल धर्म, सच्चिदानंद और भगवद् भक्ति ही शाश्वत हैं। महाराज जी ने कहा कि "धर्मो रक्षति रक्षिता"—जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को प्रेरित किया कि अपने पद के कर्तव्य को पूजा बनाकर भगवान को समर्पित करें, क्योंकि यही सच्ची भगवत्प्राप्ति का मार्ग है1।

महाराज जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि अर्जुन को भी युद्ध रूपी पूजा करने के लिए कहा गया था। यदि युद्ध में गले काटना पूजा हो सकता है, तो न्याय के क्षेत्र में दोषी को दंड देना और निर्दोष को बचाना भी धर्म है। उन्होंने न्यायाधीश से कहा कि न भय, न प्रलोभन—कोई भी चीज़ न्याय के मार्ग से विचलित न करे। उन्होंने यह भी कहा कि भगवान का नाम स्मरण करते हुए, अपने कर्तव्य को धर्मपूर्वक निभाना ही जीवन का परम लक्ष्य है1।

कर्तव्य और धर्म का समन्वय

पूज्य महाराज जी ने बताया कि जब हम अपने कर्तव्य से च्युत होकर भय या प्रलोभन के वशीभूत हो जाते हैं, तभी समाज में अशांति और पीड़ा आती है। उन्होंने कहा कि समाज भगवत्स्वरूप है, और भगवान ने हमें जो भी पद दिए हैं, वह सेवा के लिए हैं। इसलिए निर्भय और निर्लोभी बनकर अपने पद का पालन करें, यही भगवान की सच्ची पूजा है। यदि भगवान प्रसन्न हो गए, तो सर्व मंगल होगा1।

महाराज जी ने यह भी कहा कि मनुष्य जीवन की गारंटी नहीं है, 84 लाख योनियाँ हैं—अगर हमसे चूक हो गई, तो सब यहीं रह जाएगा। केवल हमारे कर्म हमारे साथ जाएंगे। इसलिए ऐसे कर्म करें, जिससे भगवान की प्राप्ति हो और जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाए। भगवान को अगरबत्ती, धूप आदि की आवश्यकता नहीं, वे केवल हमारी भावना चाहते हैं। दृढ़ निश्चय और धर्मपूर्वक कर्तव्य ही भगवान को प्रसन्न करता है।

न्याय में निष्पक्षता और भगवान का आश्रय

महाराज जी ने न्यायाधीश को यह भी समझाया कि कभी-कभी निर्णय लेते समय यदि कोई निर्दोष को दंड मिल जाए, तो मन में ग्लानि हो सकती है। ऐसे में भगवान से प्रार्थना करें कि "हे नाथ, मैंने प्रमाण के अनुसार निर्णय किया है, यदि कहीं त्रुटि हो तो आप संभालिए।" इस प्रकार, भगवान को साक्षी मानकर कर्तव्य निभाने से जीवन निष्पाप होता चला जाता है और भगवत्प्राप्ति संभव है1।

आशीर्वाद और भक्ति का संदेश

वार्तालाप के अंत में मुख्य न्यायाधीश ने पूज्य महाराज जी से आशीर्वाद मांगा कि वे अपने पद पर बैठने से पहले महाराज जी का आशीर्वाद लें। महाराज जी ने उन्हें राम नाम की अखंड भक्ति का आशीर्वाद दिया और कहा, "खूब राम राम लिखिए, खूब राम राम जपिए।" यही सच्ची भक्ति और जीवन का सार है।

निष्कर्ष

यह संवाद न केवल न्यायपालिका के लिए, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणादायक है, जो अपने कर्तव्य को धर्म और सेवा के रूप में देखना चाहता है। पूज्य महाराज जी का संदेश है कि अपने-अपने कर्तव्यों को पूजा मानकर, भगवान को समर्पित करें, भय और प्रलोभन से मुक्त रहें, और सच्चे अर्थों में धर्म की रक्षा करें। यही जीवन का परम लक्ष्य और समाज के कल्याण का मार्ग है।

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