
श्री धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी (बागेश्वर धाम) और परम पूज्य प्रेमानंद महाराज जी के मध्य संवाद में प्रेमानंद महाराज जी ने विशेष रूप से भक्ति, सेवा, और शरणागति के वास्तविक तत्त्वों को उजागर किया। बागेश्वर धाम के प्रमुख के लिए यह शिक्षा बिंदुवार निम्न प्रकार प्रस्तुत है, तथा पूरे संवाद को बिंदुओं में हिंदी लेख के रूप में संकलित किया गया है ।
प्रेमानंद महाराज जी की शिक्षा: बिंदुवार विस्तार
- भगवत नाम और गुण की महिमा
- महाराज जी ने कहा कि भगवान के नाम, गुण, लीला, और धाम का आश्रय लेने वाला व्यक्ति माया से पार हो जाता है। अन्य किसी उपाय से माया का पार पाना असंभव है।
- भगवत नाम और गुणों के निरंतर श्रवण और जप मात्र से जीव उत्तम मार्ग पाता है।
- माया में फंसे जीवों को भगवान के पार्षद ही मुक्त करते हैं, स्वयं माया-मुक्त रहते हुए भगवत महिमा का प्रचार करना उनकी सबसे बड़ी सेवा है।
- दैन्य भाव और अहंकार का त्याग
- साधना का अहंकार ‘मैं फलाहारी हूँ, मैं त्यागी हूँ’—यह मार्ग में बाधा है। जो इस ‘मैं’ का त्याग कर भगवान के दासत्व को स्वीकार करता है, वही सच्चा भक्त है।
- जब तक व्यक्ति अपने को नीच, तुच्छ और दास नहीं मानता, तब तक भगवान महान नहीं बनते। जितना अधिक व्यक्ति स्वयं को दीन समझेगा, भगवान उसे उतना महान बनाएंगे।
- भगवत कथा और भक्ति का महत्व
- भगवत कथा सुनने और नाम जपने मात्र से माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
- ब्राह्मण पत्नियों का उदाहरण देते हुए महाराज जी ने कहा कि केवल कथा अनुराग से उन्हें लाभ मिला, जबकि ब्राह्मण जन स्वयं क्रियाओं में लिप्त रहते हैं।
- भगवत लीला के श्रवण मात्र से भी जीव को भगवत प्राप्ति संभव है।
- स्वस्थ शरीर और स्वस्थ बुद्धि की कामना
- महाराज जी ने सभी को वैज्ञानिक दृष्टि से स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ बुद्धि में स्थित रहने का आशीर्वाद दिया।
- संसार में भगवत नाम का प्रचार पूर्ण निडरता, साहस और उत्साहपूर्वक करना ही सर्वश्रेष्ठ कार्य है। जिसको भगवान रक्षक बने हैं, उसकी सीमा को कोई नहीं छू सकता।
- सनातन धर्म और एकता का संदेश
- सनातन धर्म “स्वयंभू” है, किसी व्यक्ति, संस्था या कालखंड से निर्मित नहीं। जैसे वेद स्वयंभू हैं, ठीक वैसे ही सनातन धर्म और भगवान स्वयंभू हैं।
- समस्त मानवता को जोड़ते हुए “सनातन एकता यात्रा” का उल्लेख किया गया—जिसमें सबको जोड़ने का भाव है। सूर्य, वायु, भूमि, आकाश—सब सनातन का उदाहरण हैं, इनके बिना किसी की सत्ता नहीं है।
- कृपा और वास्तविक शरणागति
- महाराज जी ने कहा, “हम कोई साधना का बल, कोई ज्ञान बल नहीं रखते। हम पूरी तरह प्रभु पर निर्भर हैं—बालक की तरह मात्र मां की कृपा से जीवित हैं।”
- जो साधना का अहंकार त्यागकर पूर्ण शरणागति में आता है, वही भगवत प्राप्ति का अधिकारी है। बीमारी, कठिनाई, प्रतिकूलता भी भगवान की विशेष कृपा है—ये व्यक्ति को परिपक्व बनाती हैं और शरणागति का भाव बढाती हैं।
- सावधानी की वास्तविकता
- बालक कभी सावधानी नहीं बरतता; माता-पिता ही उसे संभालते हैं। इसी प्रकार भक्त को चाहिए कि वह अपने को भगवान का बालक मानकर प्रभु की कृपाशक्ति पर निर्भर रहे।
- चतुर शिरोमणि भगवान हैं, भक्त तो उनकी मस्ती में चलता है—भगवान हर बार उसे संभालते हैं।
- प्रत्कूलता को अनुकूलता में बदलना
- जीवन में आयी प्रतिकूलताएं भगवान की ओर से परिपक्व करने के लिए आती हैं। सच्चा भक्त उन्हें कृपा प्रसाद मानकर स्वीकारता है।
- भगवान के बल में रहने वाला सदा प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलता है—भगवान का चिंतन करने वाला कभी विघ्नों में टूटता नहीं।
- शरणागति और साधना से परे प्राप्ति
- महाराज जी ने स्पष्ट कहा कि कभी-कभी साधना का अहंकार भगवत प्राप्ति में बाधक बनता है। जब शरीर साधना के योग्य नहीं रहता, सिर्फ प्रभु की शरणागति ही मार्ग देती है।
- जैसे उनकी बीमारी ने उन्हें वास्तविक शरणागति प्रदान की—यह साधना से नहीं, बल्कि भगवान की विशेष कृपा से मिला।
- अडिग विश्वास और धैर्य
- भगवान के भक्त को इतना धीरज रखना चाहिए कि विकट स्थिति भी हार नहीं बनती, वह आकर भी श्रृंगार बन जाती है।
- जैसा अंगद ने भगवान के बल से रावण की सभा में पैर जमा दिया, स्वयं का नहीं, सिर्फ स्वामी का बल था।
- मुक्त जीव, आनंद का अनुभव
- महाराज जी ने आनंदस्वरूप जीवन का संदेश दिया—जो भगवत प्राप्त कर चुका है, उसका मंगल पहले ही हो चुका है। अब केवल भूल गए संबंध को जागृत करना है।
- हर जीव भगवत स्वरूप है—बस इस ज्ञान में स्थित होकर सबका कल्याण करना चाहिए।
- निष्काम भाव की प्रीत
- भगवत कार्य निष्काम भाव से करें—कोई भी यदि भगवत प्रीति में स्थित है, तो उसे कहीं भी, किसी भी स्थिति में जुड़ना ही पड़ेगा।
- यह सनातन धर्म की विशेषता है कि उसमें निष्काम भाव से जुड़ना अनिवार्य है।
- उत्साहपूर्ण सेवा
- स्वयं को औरों को भगवत नाम, गुण और लीला में डुबाने का सुझाव दिया।
- भगवान की महिमा के प्रचार में निरंतर बाहर और भीतर दोनों में मस्त रहना प्रत्येक भक्त का कर्तव्य है।
- भक्त का वास्तविक बल
- भक्त का कोई व्यक्तिगत बल नहीं—बल केवल भगवान का है। उसका भरोसा अडिग होना चाहिए।
- भगवान का बल जीवन के हर कठिन दौर में उसे संभालता है—भक्त तो बेपरवाही से चलता है, भवसागर में भगवान की कृपा से तैरता है।
- महापुरुषों की कृपा
- संतों और महापुरुषों की कृपा जीवन में प्राप्त होना सबसे बड़ा सुख है। यह साधन, संपत्ति, या प्रयास से नहीं—श्रीजी के आदेश से मिलता है।
- महापुरुषों का जीवन स्वयं लीला है—बीमारी, दुख, कष्ट सब भगवान की लीला हैं।
- समाज में जागृति का कार्य
- जो संबंध भगवान से जुड़ चुका है, उसे जागृत करने का कार्य सर्वप्रमुख है। भूल गये जीवों को भगवत स्वरूप की अनुभूति कराना समाज की सबसे बड़ी सेवा है।
- स्वस्थ्य और बुद्धि का महत्व
- जीवन में स्वस्थ शरीर, स्वस्थ बुद्धि, और भगवत नाम के निरंतर प्रचार को जीवन का मूल मंत्र बताया गया।
- आश्रय और दासता
- दासभाव को सर्वोच्च स्थान दिया; सज्जनों को भगवत नाम और गुण महिमा का पान कराने की प्रेरणा दी।
इस प्रकार पूरे संवाद में प्रेमानंद महाराज जी ने बागेश्वर धाम के प्रमुख धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी को सम्पूर्ण जीवन के प्रत्येक पक्ष में भगवत नाम, गुण, लीला, एवं शरणागति को केंद्र में रखकर सेवा, भक्ति और संत-समाज की कृपा को सर्वोपरि माना। हर प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना, साधना का अहंकार त्यागना, वास्तविक शरणागति में आना, जीवन में निडरता और उत्साहपूर्वक भगवत नाम का प्रचार करना, सनातन धर्म की एकता, समाज में जागृति, व स्वस्थ्य एवं बुद्धि का महत्व—इन सभी बातों को महाराज जी ने स्पष्ट किया ।
यदि और ज्यादा विस्तार या सबटाइटल के अनुसार लेख-शिक्षा चाहिए, तो संवाद के संपूर्ण शब्दों को उसी क्रम में पुनः विस्तारपूर्वक जोड़कर भी प्रस्तुत किया जा सकता है।