अगर पति त्याग कर दे तो स्त्री को क्या करना चाहिए ? (EN)

अगर पति त्याग कर दे तो स्त्री को क्या करना चाहिए ?

उत्तर – वह अपने पिता के घर रहे। पिता के घर पर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहरवालों के नजदीक किराये का कमरा लेकर उसमें रहे ओर मर्यादा, संयम, ब्रहम्चर्यपूर्वक अपने धर्म का पालन करे, भगवान का भजन स्मरण करें। पिता से या ससुराल से जो कुछ मिला है, उससे अपना जीवन निर्वाह करे। अगर धन पास में न हो तो घर में रहकर अपने हाथों से कातना-गूंथना, सीना पिरोना आदि काम करके अपना जीवन-निर्वाह करे। यद्यपि इसमें कठिनता होती है, पर तप में कठिनता ही होती हैए आराम नहीं होता। इस तप से उसमें आध्यात्मिक तेज बढ़ेगा, उसका अन्तःकरण शुद्ध होगा।

माता पिता, भाई-भौजाई आदि कों विशेष ध्यान देना चाहिए कि बहन-बेटी धर्म की मूर्ति होती है; अतः उसका पालन-पोषण करने का बहुत पुण्य होता है। उनको यह उक्ति अक्षरशः चरितार्थ कर लेनी चाहिये- ‘बिपति काल कर सतगुन नेहा’ (मानसस किष्किन्धा० ७। ३) अर्थात् विपत्तिके समय बहन-बेटी आदि से सौगुना स्नेह करे। यदि वे ऐसा न कर सकें तो लड़की को विचार करना चाहिये कि जंगलमें रहनेवाले प्राणियों का भी भगवान पालन-पोषण करते हैं, तो क्या वे मेरा पालन-पोषण नहीं करेंगे। सबके मालिक भगवान्‌के रहते हुए मैं अनाथ कैसे हो सकती है। इस बात को दृढ़ता से धारण करके भगवान के भरोसे निधड़क रहन चाहिये, निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक रहना चाहिये.

एक विधवा बहन थी। उसके पास कुछ नहीं था। ससुरालवाले ने उसके गहने भी दबा लिये। वह कहती थी कि मुझे चिन्ता है ही नहीं! दो हाथों के पीछे एक पेट है, फिर चिन्ता किस बात की! लड़‌कियों को बचपन से ही कातना-गूँथना, सीना-पिरोना, पढ़ना- पढ़ाना आदि सीख लेना चाहिये। विवाह होने पर पति की सेवा मे कमी नहीं रखनी चाहिये, पर भीतर में भरोसा भगवान्‌का ही रखना चाहिये। असली सहारा भगवान्‌ का ही है। ऐसा सहारा न पति का है। न पुत्रका है और न शरीर का ही है- यह बिलकुल सच्ची बात है। अतः यदि पति त्याग कर दे तो घबराना नहीं चाहिये। इस विषय में अपनी कोई त्रुटि हो तो तत्काल सुधार कर लेना चाहिये और अपनी कोई त्रुटि न हो तो बिलकुल निधड़क रहना चाहिये। हृदयमें कमजोरी तो अपने भाव और आचरण ठीक न रहने से ही आती है। अपने भाव और आचरण ठीक रहने से हृदयमें कमजोरी कभी आती ही नहीं। अतः अपने भावों और आचरणोंको सदा शुद्ध, पवित्र रखते हुए भगवान्‌का भजन-स्मरण करते रहना चाहिये। भगवान् के भरोसे किसी बात की परवाह नहीं करनी चाहिए. आज के युवकों को चाहिए कि वे स्त्रियों को छोड़े नहीं. स्त्री का त्याग करना महापाप है, बड़ा भारी अन्याय है. ऐसा करनेवाले भयंकर नरकों में जाते है.

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।

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