लेख प्रश्न से प्रारंभ:
“अगर मेरी पत्नी बहुत झूठ और प्रपंच करती है, जीवन के महत्वपूर्ण विषयों पर सहयोग नहीं देती और हमेशा प्रतिकूलता देती है, तो मैं क्या करूं?” – इस सवाल को श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने गहराई से आध्यात्मिक दृष्टि से समझाया है। आइए उनकी प्रत्येक सीख, परामर्श और विचार को विस्तार से जानें।
मूल समस्याएँ: झूठ, प्रपंच, प्रतिकूलता
महाराज जी से जब यह सवाल पूछा गया कि पत्नी झूठ और प्रपंच करती है, साथ भी नहीं देती, तो उन्होंने इसे एक सामान्य परिवारिक/सामाजिक समस्या बताया, जिसके समाधान के लिए सबसे पहले हमें अपने प्रारब्ध को समझना चाहिए। वह कहते हैं कि जीवन में यदि कोई प्रतिकूलता है, तो उसे अपनी किस्मत, कर्मफल और भगवान की योजना समझकर सहर्ष स्वीकारना चाहिए।
शांति से संघर्ष, द्वेष मत पालें
संवाद की शुरुआत में ही महाराज जी समझाते हैं कि यदि पत्नी प्रतिकूलता देती है, तो मन में उसके प्रति द्वेष या दोष भावना नहीं जगनी चाहिए। वह कहते हैं, “यदि किसी सदस्य का व्यवहार अनुचित या प्रतिकूल है, तो उसे प्रारब्ध मान शांति से सह लें। अहंकार को बढ़ने न दें, द्वेष न रखें।”
कर्तव्य का बोध: प्यार और सुविधा देना
महाराज जी की बात में मुख्य धारा यह है कि पति का सबसे बड़ा कर्तव्य पत्नी को प्यार देना और उसकी सुविधा का ध्यान रखना है। “भले ही पत्नी अपना कर्तव्य भुलाकर दुख, कड़वे वचन, और प्रतिकूल व्यवहार देती है, फिर भी अपने प्यार में अंतर नहीं लाना चाहिए। इसी में वास्तविक आध्यात्मिकता है। यह देखना कि आपका कर्तव्य क्या है – यही साधना है।”
परिवार में कोई भी सदस्य प्रारब्ध का माध्यम
कोई भी व्यक्ति – पत्नी, पुत्र, या अन्य – परिवार में प्रारब्ध भोगाने आता है। उसके व्यवहार की चिंता किए बिना, अपने कर्तव्य का पालन करने में ही मुक्ति है।
धर्म-अधर्म की पहचान और सलाह
महाराज जी कहते हैं कि यदि कोई सदस्य अधर्म आचरण करता है, तो उसका विरोध नहीं करें, बल्कि सरल भाषा में उसे समझा दें कि यह अधर्म है। यदि वह न माने तो भी आप अपने मार्ग पर चलें, अपने त्याग में कमी न आने दें।
उत्तम आध्यात्मिकता: क्रोध और फैसले में संयम
वह कहते हैं – उत्तम आध्यात्मिक कभी क्रोधित नहीं होता, जल्दीबाजी में फैसले नहीं लेता। “कर्म को बहुत गंभीरता, विवेक और सोच-समझकर करें। तब परिवार बच सकता है, विपत्तियों से बचा जा सकता है।”
सहनशीलता: परिवार और आत्म-कल्याण का मूल
दु:ख और कठिनाई के समय में सहनशीलता विकसित करने का संदेश है। महाराज जी बताते हैं: “आज सहनशीलता कम हो रही है, छोटी बात पर गुस्सा और हिंसा होती है। अपने को प्रेम से पीछे खींचने का प्रयास करें।”
प्रेम: भूमिका का नाटक है, असली प्रेम केवल प्रभु से
महाराज जी का सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है -“यह संसार रंगमंच है। हर संबंध – पिता, पुत्र, पति, मित्र – भूमिका निभाना है; प्रेम का नाटक करना है। असली प्रेम प्रभु से करें। यदि सच्चा प्रेम संसार से करेंगे, दुःखी ही होंगे।”
उदाहरण:
धृतराष्ट्र-गांधारी का उदाहरण देते हैं – गांधारी ने शादी से पूर्व ही अपने पति की कमी को स्वीकार कर उसे अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। ऐसा प्रेम वस्तुतः दुर्लभ है।
असल प्रेम की परिभाषा और स्वार्थ
महाराज जी स्पष्ट करते हैं -“यहाँ का प्रेम स्वार्थ और आसक्ति है। अगर हमारी बात नहीं बनती या सुख नहीं मिलता, तो प्रेम का स्वरूप बदल जाता है। शास्त्र, संत, और हृदय कहता है – कोई भी अपनी माँग के अनुसार ही प्रेम देता है।”
सहज स्वीकार्यता और प्रभु में निष्ठा
“पूर्ण निष्ठा से प्रेम केवल भगवान से करना चाहिए। पत्नी, पुत्र, परिवार, सबका प्रेम अभिनय है। संसार में सच्चा प्रेम संभव नहीं, केवल प्रभु से प्रेम करना चाहिए।”
भावनात्मक अपेक्षाएँ: असंतुष्टि का कारण
“अगर आप पूर्ण निष्ठा से प्रेम करेंगे, तो उम्मीद करेंगे सामने वाला भी वैसा ही करे। परंतु, यहाँ का प्रेम धोखेबाजी है। सच्चा प्रेम केवल प्रभु देता है।”
संसार में रिश्ते: कर्मों की परिणति
महाराज जी समझाते हैं कि “कोई संतान माता-पिता को हमेशा सुख देती है, तो कोई हमेशा दुख देती है – यह सब कर्मों का भोग है। परिवार, रिश्ते सब कर्मफल के अनुसार बने हैं।”
नवीन गंदे कर्म न बनाएं, अध्यात्म से कल्याण करें
“अपने कर्मों का सही भोग लें, नए गंदे कर्म न बनाएं। अध्यात्म के माध्यम से संसार से अपना कल्याण करें।”
पति-पत्नी संबंध में प्रतीक्षा और त्याग
यदि पत्नी त्याग देती है, तो पति को त्याग नहीं करना चाहिए; विरोध नहीं करना चाहिए। अधर्म बताने के बाद भी सुनता नहीं है, तो उसका परिणाम भगवान के हाथ है।
कठिन समय के फैसले: विवेक और गंभीरता
“कठिन फैसले बहुत विवेक और गंभीरता से लें। नाक में गुस्सा न रखें, लड़ाई-झगड़े से बचें।”
असली प्रेम और अभिनय की अवधारणा
महाराज जी प्रेम की परिभाषा बताते हैं –
“असली प्रेम किसी से नहीं, केवल प्रभु से। बाकी सब अभिनय है। अपने रोल का सच्चा अभिनय करें। भगवान ही डायरेक्टर हैं। आपने पति का रोल मिला है, ठीक निभाएं, चाहे पत्नी गलत निभा रही हो।”
भक्ति और प्रेम में एकाग्रता
संसार में सहभागिता, प्रेम, और रिश्तों केवल अभिनय है। “सच्चा प्रेम सिर्फ प्रभु से; बाकी सब अभिनय। भगवान से प्रेम करो; संसार में प्रेम का नाटक करो और मुक्त हो जाओ।”
निष्कर्ष
- प्रश्न से उत्तर तक: पत्नी का व्यवहार प्रतिकूल हो, सहयोग न करे, झूठ बोले, तो दुखी न हों।
- धैर्य और सहनशीलता: अपने कर्तव्य को निभाएं, द्वेष न रखें, उसे प्रारब्ध मानें।
- प्रेम में अभिनय: असली प्रेम प्रभु से करें, रिश्तों में निभाने/नाटक की भावना रखें।
- अधर्म को बताएं, विरोध न करें: समझाने के बाद भी यदि सामनेवाला न माने, तब अपने मार्ग पर चलें।
- कर्म भोगना, नए गंदे कर्म न बनाना: हर रिश्ता, परिस्थिति कर्मफल है।
- भावनात्मक अपेक्षाएँ कम करें: संसार में सच्चा प्रेम संभव नहीं; स्वार्थ और आसक्ति का प्रेम है।
- अध्यात्म से कल्याण: भौतिक समस्याओं का समाधान आध्यात्मिक दृष्टि से करें।
- रोल निभाएं, डायरेक्टर भगवान: अपने रोल को पूरी निष्ठा से निभाएं।
- सहनशीलता और विवेक: परिवार और आत्म-कल्याण के लिए सहनशीलता, विवेक, संयम अत्यंत आवश्यक है।
- सच्चा आध्यात्मिक वही है, जो संकट में शांत और विवेकी रहे।
इसी प्रकार महाराज जी ने विवाह, परिवार, रिश्ते, और प्रेम के तमाम पहलुओं को गहरे, सहज और व्यावहारिक तरीके से समझाया है। यह विचार आज हर व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक हैं, जिन्होंने परिवार और रिश्तों में संघर्ष या निराशा का सामना किया हो।
मूल समस्या का समाधान आध्यात्मिक दृष्टि में है, भौतिक नहीं। हर रिश्ते में अभिनय, असली प्रेम सिर्फ भगवान से। बाकी सब में त्याग, सहनशीलता, और विवेक।
लेख में संग्रहीत प्रमुख बातें:
- प्रश्न पर महाराज जी की समग्र विवेचना।
- परिवार/रिश्ते के संघर्ष पर हर पहलू का उल्लेख।
- अध्यात्म, कर्तव्य, त्याग, प्रेम व अभिनय के सिद्धांत।
- दैनिक जीवन की चुनौतियों में समाधान के लिए व्यावहारिक उपाय।








