पिता की आत्मा ही पुत्र के रूप में आती है-इसका क्या तात्पर्य है?

प्रश्न-पिताकी आत्मा ही पुत्रके रूपमें आती है-इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर- जैसे कोई किसी ब्राह्मणको अपना कुलगुरु मानता है, कोई यज्ञोपवीत देनेवालेको गुरु मानता है; परन्तु उनका शरीर न रहे तो उनके पुत्रको गुरु माना जाता है और उनका जैसा आदर- सत्कार किया जाता था, वैसा ही उनके पुत्रका आदर-सत्कार किया जाता है*। जैसे पिता धनका मालिक होता है और पिता मर जाय तो पुत्र धनका मालिक बन जाता है। ऐसे ही पुत्र होता है तो वह पिता का प्रतिनिधि होता है, पिता की जगह काम करने वाला होता है.

यहाँ ‘आत्मा’ का अर्थ गौणात्मा है अर्थात् ‘आत्मा’ शब्द शरीर का वाचक है। शरीर से शरीर (पुत्र) पैदा होता है; अतः संस्कार व्यवहार में पुत्र पिता का प्रतिनिधि होता है; परन्तु परमार्थ मिलनेसे (कल्याण) में पुत्र कोई कारण नहीं है।

* जब अर्जुन अश्वत्थामाको बाँधकर द्रौपदीके सामने लाते हैं, तब द्रौपदी अश्वत्थामाको छोड़ देनेका आग्रह करते हुए अर्जुनसे कहती है कि जिनकी कृपासे आपने सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र (अश्वत्थामा) के रूप में आपके सामने खड़े हैं-‘स एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते’।

(श्रीमद्भा० १।७।४५

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

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