प्रश्न- पुरुष तो संयम रखे, पर स्त्री संयम न रखे तो क्या करना चाहिये ?

प्रश्न- पुरुष तो संयम रखे, पर स्त्री संयम न रखे तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर- यह बात नहीं है कि स्त्री संयम न रखे। वास्तवमें पुरुष ही स्त्रीको बिगाड़ता है। स्त्रियोंमें काम-वेगको रोकनेकी जितनी शक्ति होती है, उतनी पुरुषोंमें नहीं होती।

अगर पहलेसे ही संयम रखा जाय तो संयम सुगमतासे होता है। भोगवृत्ति ज्यादा होनेपर संयम रखना कठिन हो जाता है। अतः जब कामका वेग न हो, तब स्त्री-पुरुष दोनोंको शान्तचित्त होकर विचार करना चाहिये कि हम अधिक सन्तान नहीं चाहते तो हमें संयम रखना चाहिये, जिससे हमारा शरीर, स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। ऐसा विचार करके दोनोंको रात्रिमें अलग-अलग रहना चाहिये।

मनुष्य संयम तो सदा रख सकता है, पर भोग सदा नहीं कर सकता-यह स्वतः सिद्ध बात है। अतः संयमके विषयमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिये और गर्भपात, नसबन्दी-जैसे महापापसे बचना चाहिये।

जबतक यह हिन्दू-समाज गर्भपात-जैसे महापापसे नहीं बचेगा, तबतक इसका उद्धार मुश्किल है; क्योंकि अपना पाप ही अपने-आपको खा जाता है। अगर यह समुदाय अपनी उन्नति और वृद्धि चाहता है तो इस घोर महापापसे, ब्रह्महत्यासे दुगुने पापसे बचना चाहिये। एक भाईने हमें बताया कि गत वर्ष भारतमें लगभग इक्कीस लाख गर्भपात किये गये ! ऐसी लोक-परलोकको नष्ट करनेवाली महान् हत्यासे समाजकी क्या गति होगी, इसे भगवान् ही जाने ! धर्मपरायण भारतमें कितना धर्मविरुद्ध काम हो रहा है, इसका कोई पारावार नहीं है। इसका परिणाम बड़ा भयंकर निकलेगा, इसलिये समय रहते चेत जाना चाहिये-

‘का बरषा सब कृषी समय चुकें पुनि का सुखानें। पछितानें ॥’

हमारा उद्देश्य किसीकी निन्दा करना, किसीको नीचा दिखाना है ही नहीं। हमारा यह कहना है कि मनुष्य-शरीरमें आकर कम-से-कम गर्भपात-जैसे महापापोंसे तो बचें।

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गांवा ॥ (मानस, उत्तर० ४३।४)

कबहुँक करि करुना

नर देही।

देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥

(मानस, उत्तर० ४४।३)

‘दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः’

(श्रीमद्भा० ११।२।२९)

लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह

धीरः । (श्रीमद्भा० ११।९।२९)

– इस प्रकार जिस मनुष्य-शरीरको इतना दुर्लभ बताया गया है, उस मनुष्य-शरीरमें जीवको न आने देना, जीवको ऐसा दुर्लभ शरीर न मिलने देना कितना महान् पाप है! ऐसे महापापसे बचो।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।

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