प्रश्न- परिवार नियोजन नहीं करेंगे तो जनसंख्या बहुत बढ़ जायगी, जिससे लोगोंको अन्न नहीं मिलेगा, फिर लोग जीयेंगे कैसे ?
Question- If family planning is not done then the population will increase a lot, due to which people will not get food, then how will people survive?
महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY
प्रश्न- परिवार नियोजन नहीं करेंगे तो जनसंख्या बहुत बढ़ जायगी, जिससे लोगोंको अन्न नहीं मिलेगा, फिर लोग जीयेंगे कैसे ?
उत्तर- यह प्रश्न सर्वथा ही अयुक्त है, युक्तियुक्त नहीं है। कारण कि जहाँ मनुष्य पैदा होते हैं, वहाँ अन्न भी पैदा होता है। भगवान के यहाँ ऐसा अँधेरा नहीं है कि मनुष्य पैदा हों और अन्न पैदा न हो.
प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिंता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर ॥
माँ के स्तनोंमें दूध पहले पैदा होता है, बच्चा पीछे पैदा होता है। इसका क्या पता? जब बच्चा पैदा होता है, तब माताएँ स्तनोंमेंसे पुराना दूध निकालकर बच्चेको नया दूध पिलाती हैं। हम भी कहीं जाते हैं तो वहाँ व्यवस्था पहले होती है, हम पीछे पहुँचते हैं। ऐसा नहीं होता कि व्याख्यान पहले होगा, पण्डाल पीछे बनेगा। बारात ठहरनेकी जगह पहले तैयार की जाती है या बारात आनेके बाद ? कोई उत्सव होता है तो उसकी व्यवस्था पहले होती है। ऐसा नहीं होता कि पहले उत्सव हो, फिर व्यवस्था हो। ऐसा देखा भी जाता है और वैज्ञानिकोंका भी कहना है कि जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं, वहाँ वर्षा अधिक होती है। जहाँ वृक्ष नहीं होते, वहाँ वर्षा कम होती है। ऐसे ही मनुष्य अधिक होंगे तो अन्न भी अधिक पैदा होगा। अन्नमें कमी कैसे आयेगी? क्या मनुष्य वृक्षोंसे भी नीचे हैं?
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.
स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।