मुंबई के एक फ्लैट खरीदार को महाराष्ट्र रियल एस्टेट अपीलीय न्यायाधिकरण (MahaREAT) ने एक अहम फैसले में बिल्डर को ₹13 लाख का ब्याज देने का आदेश दिया, जबकि बिल्डर को भी फ्लैट की डिलेवरी में करीब ढाई साल की देरी के लिए ₹24 लाख ब्याज देना होगा। इस पूरे विवाद में दोनों पक्षों की जिम्मेदारियों और लापरवाहियों का विश्लेषण करते हुए MahaRERA और MahaREAT दोनों ने स्पष्ट किया कि रेरा कानून (RERA Act, 2016) के तहत खरीदार और बिल्डर — दोनों पर समान दायित्व लागू होते हैं।
मामला कहां से शुरू हुआ
साल 2010 में मुंबई के कुर्ला-अंधेरी रोड पर एक बिल्डर ने नया हाउसिंग प्रोजेक्ट शुरू किया। 2017 में उन्होंने श्री प्रसाद (नाम बदला हुआ) नामक गृह खरीदार को यह प्रोजेक्ट दिखाया। बिल्डर ने अपने प्रोजेक्ट को लग्ज़री रेसिडेंशियल प्रोजेक्ट बताया और आकर्षक ब्रोशर व प्रचार सामग्री देकर खरीदने के लिए प्रेरित किया।
श्री प्रसाद के परिवार ने ‘डी विंग’ के फ्लैट नंबर 401 (लगभग 836 वर्ग फुट) को ₹1.65 करोड़ में खरीदने का निर्णय लिया। 4 अक्टूबर 2017 को विक्रय अनुबंध (Sale Agreement) रजिस्टर्ड हुआ। खरीदार ने अग्रिम ₹1.19 करोड़ का भुगतान कर दिया और बाकी राशि कब्जा मिलने पर देने की शर्त रखी। अनुबंध की शर्त नंबर 22 के अनुसार बिल्डर को 31 दिसंबर 2017 तक फ्लैट का कब्जा देना था।
कब्जा देने में ढाई साल की देरी
बिल्डर ने तय तिथि तक कब्जा नहीं दिया। 14 जुलाई 2020 को बिल्डर ने आखिरकार ‘ऑक्यूपेशन सर्टिफिकेट’ (OC) लिया और अगले दिन खरीदार को मेल भेजकर बाकी ₹65,76,046 भुगतान करने को कहा। खरीददार ने बिल्डर से देरी के बदले ब्याज मांगा, जैसा कि अनुबंध की धारा 9 में लिखा था। उन्होंने 20 जुलाई 2020 को बिल्डर को पत्र भेजा, लेकिन बिल्डर ने इसे अनदेखा कर 21 जुलाई को सिर्फ चर्चा की बात कही।
जब बिल्डर ने ब्याज भुगतान से इनकार किया, तब खरीदार ने 5 अगस्त 2020 को वकीलों के माध्यम से कानूनी नोटिस भेजा, जिस पर बिल्डर ने 17 अगस्त 2020 को जवाब देते हुए सभी दावे खारिज कर दिए। इसके बाद खरीदार ने मामला महाराष्ट्र रेरा प्राधिकरण (MahaRERA) के समक्ष दायर किया।
MahaRERA का फैसला
MahaRERA ने माना कि बिल्डर ने वादा किया हुआ कब्जा तय समय पर नहीं दिया, जबकि खरीदार ने भी पूरी कीमत समय पर नहीं दी। इस वजह से दोनों ही कानूनी रूप से दोषी पाए गए।
रेरा की धारा 18 के तहत, जब बिल्डर कब्जा देने में असफल रहता है, तो खरीदार को देरी के लिए ब्याज या मुआवजा मांगने का अधिकार होता है। वहीं, धारा 19(6) कहती है कि खरीदार को तय समय पर कीमत चुकानी होगी।
MahaRERA ने आदेश दिया कि:
- बिल्डर खरीदार को जनवरी 2018 से जून 2020 की अवधि के लिए ब्याज दे।
- खरीदार बिल्डर को बाकी ₹65.76 लाख का भुगतान ब्याज सहित करे।
- दोनों पक्ष ब्याज की रकम का परस्पर सेट-ऑफ करें और नेट राशि का ही भुगतान करें।
ब्याज की गणना
उस समय एसबीआई का अधिकतम एमसीएलआर 8.1% था।
- बिल्डर को खरीदार को देना था:
₹1.19 करोड़ × 8.1% × 2.5 साल = ₹24,22,305 - खरीदार को बिल्डर को देना था:
₹65,76,046 × 8.1% × 2.5 साल = ₹13,31,649
इस प्रकार, नेट अंतर = ₹24,22,305 – ₹13,31,649 = ₹10,90,656 (लगभग)।
अपील और MahaREAT का अंतिम निर्णय
खरीदार ने MahaRERA के आदेश के खिलाफ MahaREAT (अपील प्राधिकरण) में अपील की, लेकिन 17 अक्टूबर 2025 को यह अपील खारिज हो गई। MahaREAT ने कहा कि खरीदार ने अपनी अपील में राहत के दायरे को बढ़ा दिया था। मूल शिकायत में उन्होंने ब्याज का दावा 15 जुलाई 2020 तक किया था, जबकि अपील में “तारीख तक” भरने का दावा कर दिया, जो कानूनी रूप से स्वीकार्य नहीं है।
MahaREAT ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया, जैसे:
- Om Prakash Vs Ram Kumar
- Bharat Amratlal Kothari Vs Dosukhan Samadkhan Sindhi
इन मामलों में कहा गया था कि अदालत वही राहत दे सकती है जो याचिका में मांगी गई हो, उससे अधिक नहीं।
MahaREAT ने यह भी माना कि खरीदार ने 13 अगस्त 2020 को मामला दर्ज किया, जबकि बिल्डर 14 जुलाई को ही ओसी हासिल कर चुका था। यानी जब शिकायत दायर हुई तब बिल्डर ने पहले ही कब्जा देने की पेशकश कर दी थी, इसलिए ‘तारीख तक’ ब्याज मांगना उचित नहीं था।
अंतिम आदेश
MahaREAT के न्यायपीठ ने कहा:
- अपील संख्या 4T006000000325333 (2024) निरस्त की जाती है।
- दोनों पक्ष अपने-अपने खर्च खुद वहन करेंगे।
- MahaRERA का फैसला यथावत रहेगा।
- आदेश की प्रति संबंधित पक्षों को भेजी जाए।
मुख्य कानूनी बिंदु
- रेरा कानून की धारा 18 – यदि बिल्डर समय पर कब्जा नहीं देता है तो वह खरीदार को ब्याज या मुआवजा देने के लिए बाध्य है।
- धारा 19(6) – खरीदार भी समय पर भुगतान करने के लिए बाध्य है।
- धारा 19(10) – ओसी मिलने के दो महीने के भीतर खरीदार को कब्जा लेना होता है।
- न्यायिक सीमाएं – कोई भी पक्ष अपील में नई राहत नहीं मांग सकता जो मूल शिकायत में नहीं थी।
फैसला क्या संदेश देता है
यह निर्णय बताता है कि रेरा तंत्र दोनों पक्षों से अनुशासन की अपेक्षा करता है। यदि बिल्डर देरी करता है, तो उसे ब्याज देना पड़ेगा, और यदि खरीदार भुगतान टालता है, तो उस पर भी ब्याज लागू होगा। कोर्ट का उद्देश्य खरीदारों की सुरक्षा है, लेकिन वह न्यायिक प्रक्रिया की सीमाओं को भी मान्यता देता है।
इस केस से सीखा जा सकता है कि:
- घर खरीदते समय अनुबंध की प्रत्येक धारा ध्यान से पढ़ें।
- हर संचार (ईमेल, पत्र, नोटिस) को रिकॉर्ड में रखें।
- यदि शिकायत करनी हो, तो समय रहते और स्पष्ट राहत मांगें।
- अपील में नई मांगें जोड़ने से केस कमजोर हो सकता है।
कुल मिलाकर, इस पूरे विवाद में न्यायालय ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया — दोनों पक्षों की त्रुटियों को बराबर माना और एक “नेट सेटलमेंट” का रास्ता दिखाया, ताकि न तो खरीदार को अनुचित दंड मिले और न ही बिल्डर को अनुचित लाभ। यह मामला भारत में रेरा कानून के निष्पक्ष उपयोग का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है।






