पूर्व में हुए पापों का प्रायश्चित कैसे करें?

पूर्व में हुए पापों का प्रायश्चित: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज जी के विचार


1. पापों की क्षमा और उपाय

  • भगवान का नाम संकीर्तन, आधा घंटा नाम संकीर्तन करो और नाम जप करो। दोनों से पाप नष्ट हो जाएंगे।
    “नाम संकीर्तनम यस सर्व पाप प्रणाशनम।”
    सब प्रकार के पापों का नाश भगवान के नाम कीर्तन से हो जाता है।
    तो राधा नाम या जो भी नाम प्रिय हो, आधा घंटे नाम कीर्तन करो और कुछ समय नाम जप करो।
    काउंटर तो है ही है। उसी से नष्ट हो जाएंगे।
    परंतु आगे पाप न हो, अब नश आज तक किया, अब आगे नहीं करूंगा।
    तो उसके पाप नष्ट हो जाते हैं।
    पर ऐसा नहीं कि आधा घंटा नाम कीर्तन कर लिया, फिर पाप कर रहे हैं –
    फिर नहीं नष्ट होगा।
    दवा का प्रयोग रोग नाश के लिए है, रोग बढ़ाने के लिए नहीं है।
    तो इसलिए नाम का प्रयोग करके फिर पाप करना वो नाम अपराध बन जाएगा।

2. सत्कर्मों का दान और उसका फल

  • साधु-संतजन अपने सत्कर्मों को प्रेम या करुणा से किसी दुखी को दान कर देते हैं।
    ऐसा करने से उनके सत्कर्म समाप्त नहीं होते, दोगुने फल मिलते हैं।
    जैसे १० माला भजन किसी को दिया, उसका मंगल हुआ, भगवान प्रसन्न हुए।
    संतजन कोई व्यक्तिगत फल नहीं चाहते, सिर्फ प्रभु की प्रसन्नता चाहते हैं।
    जन्म का आशय प्रभु को प्रसन्न करना है – “जे विधि प्रभु प्रसन्न होई करुणा सागर कीजे सोई।”
    जब प्रभु प्रसन्न हो जाए, तो सारे दुर्लभ कार्य स्वतः सिद्ध हो जाते हैं।

3. सामाजिक मंगल और संतों का भाव

  • संत अपनी साधना, तपस्या, भजन सबको समर्पित कर देते हैं।
    “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः…”
    उनका उद्देश्य होता है सबका मंगल, सबका आनंद, किसी को दुख न पहुंचे।
    भगवान प्रसन्न होने पर संत भगवान को प्राप्त कर लेते हैं, और परमानंद की अनुभूति होती है।

4. व्यक्तिगत आशीर्वाद और उसका परिणाम

  • अगर कोई भजन को व्यक्तिगत लाभ देने के भाव से देता है – जैसे शिष्य की सेवा या पुत्र की प्राप्ति का आशीर्वाद –
    तो वो भजन पाने वाले को फल देता है, लेकिन देने वाले को नहीं।
    सार्वजनिक आशीर्वाद में सबका मंगल चाहा जाता है, जिसमें भगवत प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
    सिद्ध महापुरुष व्यक्तिगत आशीर्वाद या श्राप नहीं देते, सिर्फ सार्वजनिक आशीर्वाद ही देते हैं।

5. मन और उसकी वृत्तियों पर विजय कैसे पाएं?

  • शरीर से तो वस्तु का त्याग कर सकते हैं, मगर मन के विकारों का त्याग कठिन है।
    नाम जप से अध्यात्मबल आता है, जिससे भीतर की वृत्तियों से लड़ सकते हैं।
    नाम जप का स्वाद आने पर असत वृत्तियाँ खुद लय हो जाती हैं।
    भजन के बिना मन की असत वृत्तियों से लड़ना मुश्किल है, अंततः हारना ही पड़ता है।
    भजन से ही वृत्तियाँ नष्ट होती हैं और माया पर विजय संभव है।

6. साधना में शुद्धता और पवित्रता

  • पूजा-पाठ में, प्रसाद ग्रहण में शुद्धता और पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
    कई बार बाहरी वस्तुएं या शरीर का स्पर्श शुद्धता भंग करने जैसा लगता है,
    लेकिन अगर भावनात्मक रूप से भगवान को हर जगह मानें, हर कण में भगवान को देखें, तो मन विस्तार होगा।
    पवित्रता ध्यान में रखें, पर उसमें परेशान न हों, संयम और सावधानी रखें; हर टच में भगवान देखना भाव का विस्तार है।

7. सेवकों और महाप्रसाद की प्राप्ति

  • जगन्नाथ जी के निज सेवकों को महाप्रसाद और वस्त्र मिलते हैं,
    उसी से उनका भरण-पोषण होता है।
    सेवा के बदले जो वस्त्र, भोजन, पैसा मिलता है, वो भीख नहीं है, वो सेवा का परिणाम है।
    मंदिर में प्रसाद मांगना और लेना सौभाग्य है, पर प्रसाद में जन्म नहीं लेना पड़ता, प्रसाद मांग लेना चाहिए।

8. व्रत का उद्यापन करना जरूरी है?

  • हनुमान जी के व्रत का उद्यापन जरूरी नहीं,
    यदि व्रत मनोकामना या संकल्प से किया है तो उद्यापन करना चाहिए।
    सहज भाव से भक्ति में कोई कठिनाई नहीं है।

9. साधना में आनंद का प्रसंग

  • पहली बार भजन करते समय आनंद मिलता है,
    वो भगवान की कृपा से आकर्षण के लिए मिलता है।
    उसके बाद साधना द्वारा खुद आनंद लेना पड़ता है।
    नारद जी के प्रसंग में भी यही दृष्टांत मिलता है – प्रारंभ में भगवान का दर्शन और आनंद, आगे साधना द्वारा स्व-पृथक आनंद की प्राप्ति।

10. मन: मित्र या शत्रु?

  • मन दो विभागों में बाँटा है: सत विभाग और असत विभाग।
    सत विभाग सत्कर्म, भजन, दान में प्रेरित करता है; असत विभाग भोग, द्वेष, हिंसा, प्रमाद, आलस्य लाता है।
    सात्विक भोजन, शास्त्र स्वाध्याय, नाम जप से विवेक जागृत होता है।
    असत प्रेरणा को नकारने और उसकी जलन सहने वाला व्यक्ति परमात्म प्राप्ति का अधिकारी होता है।

11. भगवान की सर्वज्ञता और जीव की प्राप्ति

  • भगवान भूत, भविष्य, वर्तमान सब जानते हैं।
    उन्हें पता रहता है कि किस जीव को किस समय भगवत प्राप्ति होगी, उसी अनुसार उसकी जीवन यात्रा और परिस्थितियाँ निर्धारित कर देते हैं।
    भगवत प्राप्ति के लिए भगवान संयोग और सत्संग दिलाते हैं।

12. भजन के बिना सुख संभव नहीं

  • सुख का प्रयास सिर्फ धन, मकान, भोग की वस्तुएँ देकर नहीं मिलता।
    राग-द्वेष, हिंसा, क्रोध, लोभ, मोह, मद – इन विकारों पर जब तक विजय नहीं होगी, तब तक सुख नहीं मिलता।
    सच्चा सुख भजन, नाम जप, श्रेष्ठ आचरण अपनाने से ही संभव है।

13. सच्चे संत: परमहंस और अवधूत की स्थिति

  • मोक्ष की प्राप्ति करने वाला परमहंस कहलाता है,
    और आनंद में उन्मत्त होकर सबकुछ भूल जाने वाला अवधूत।
    परमहंस केवल भगवान के आनंद में रहते हैं, अवधूत अवस्था में शरीर की बाह्य चेष्टाएँ भी औपचारिक नहीं रहतीं।
    परमहंस आत्मअनुभूति में लीन रहते हैं, शरीर की चिन्ता नहीं करते, बाह्य सुख-दुख से परे हो जाते हैं।

14. गुरु और इष्ट स्मरण

  • मरते समय यदि स्मरण शक्ति बनी रहे, तो गुरु और इष्ट का भेद न रखें;
    गुरु साक्षात परम ब्रह्म हैं, वही परमात्मा हैं।
    सच्चा प्रेम – इष्ट और गुरु एक ही हैं।

15. आत्मा का स्वरूप

  • “तुम कौन हो?”
    मनीष तिवारी ढांचे का नाम है।
    शरीर का नाम है, तुम “मैं” हो, “मेरा” और “मैं” में अंतर समझो।
    मेरा शरीर, मेरा हाथ, मेरा टेबल – मेरे से जुड़े हैं, पर “मैं” उनका ज्ञाता हूँ।
    सार ये है कि आत्मा अलग है, शरीर, नाम, रूप, स्थान अलग हैं।

16. अनुभव प्राप्ति: साधना का महत्व

  • केवल बोल या सुन लेने से मुक्त अनुभव नहीं हो सकता, उसकी साधना करनी पड़ती है।
    गुरुदेव का आश्रय लेकर साधना के द्वारा ही अनुभव आता है।
    वेदों का सार, जब सीधा अनुभव में आ जाता है, दुख-सुख, जन्म-मरण, चिंता-शोक सब समाप्त हो जाता है।
    परमहंस स्थिति का यही सार है – जीवन का उद्देश्य भगवत प्राप्ति और उसका सतत आनंद।

17. साधना की शुरुआत: संतसमागम

  • साधना की शुरुआत संत समागम से होती है,
    पूर्णता भी संत समागम से होती है।
    गुरु के चरणों से साधना आरंभ होती है, संत महापुरुषों के संग से ही बोध मिलता है।
    तत्व ज्ञान और तत्व बोध में अंतर है – अनुभव का बोध ही सच्चा ज्ञान है।
    पढ़ने से प्रवचन हो सकते हैं, पर तत्व बोध तो संत संग से ही प्रकट होता है।

18. भगवत भजन और अनुभूति

  • भजन के प्रताप से सिद्ध महापुरुषों को अपने हृदय में ही भगवान का साक्षात्कार होता है।
    राम, कृष्ण, शिव, सब नाम एक ही परमात्मा के हैं, जो माया के परदे को हटाते हैं।
    भजन से ही हृदय में परमात्मा प्रकट होता है, साधक को परमात्मा केवल अनुभव से ही साक्षात होते हैं।

19. सार एवं संक्षिप्त निष्कर्ष

  • पापों का प्रायश्चित भगवान के नाम जप और भजन से करना चाहिए।
    संतों के सत्कर्म, साधना का उद्देश्य सबका मंगल है।
    वृत्तियों पर विजय भजन, संयम और विवेक से संभव है।
    सुख और आनंद की प्राप्ति भक्ति, साधना और इष्ट स्मरण में छिपी है।
    गुरु, इष्ट, आत्मा, साधना – इन सबका सम्बन्ध गहरा है, आत्मनुभूति ही जीवन का सार है।

यह पूरी बातें श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज जी के प्रवचन “पूर्व में हुए पापों का प्रायश्चित कैसे करूँ?”

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