
यह अंश में श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ऑफिस के माहौल, चापलूसी, असली और नकली बॉस, और भगवान की कृपा के महत्त्व की विस्तार से चर्चा करते हैं। नीचे दिए गए 2500 शब्दों के लेख में इन शिक्षाओं की गहराई से व्याख्या की गई है।
ऑफिस की राजनीति और चापलूसी
अक्सर ऑफिस में देखा जाता है कि लोग एक-दूसरे को नीचा दिखा कर, बॉस की चापलूसी करके अपना काम निकलवाते हैं। लोग अक्सर सच्चे प्रयास या योग्यता के बजाय अपने फायदे के लिए दूसरों की चापलूसी करने लगते हैं। इसका कारण इंसान का स्वार्थी स्वभाव है – मनुष्य तब तक किसी का साथ देता है जब तक उसे अपने स्वार्थ की पूर्ति होती है। जैसे ही किसी अन्य व्यक्ति से उसका स्वार्थ अधिक पूरा होने लगता है, वह पहले वाले को छोड़ देता है। इस परिस्थिति में कई बार योग्य व्यक्ति खुद को दरकिनार होता हुआ पाते हैं, जिससे मन में निराशा जन्म लेती है।
असली और नकली बॉस की पहचान
श्री महाराज जी बताते हैं कि हम अकसर ‘नकली बॉस’ के पीछे पड़ जाते हैं, जिनसे चापलूसी करके सांसारिक स्वार्थ पूरे हो सकते हैं। लेकिन ‘असली बॉस’, अर्थात् परात्पर भगवान, उनसे चापलूसी सम्भव नहीं है। भगवान शुद्ध, सच्चिदानंद स्वरूप हैं, जिनका स्वभाव अति दयालु है। वे अपने सेवकों को गम्भीर गलती होने पर भी कभी ठुकराते नहीं, बल्कि स्नेह से हृदय में स्थान देते हैं। मनुष्य जहां अपने स्वार्थ पूरे होते ही छोड़ देता है, वहीं भगवान किसी भी मात्रा की गलती और नीचता के बावजूद सेवक से प्रेम करते हैं।
भगवान की कृपा: प्रयास का मूल
महाराजजी कहते हैं कि इंसान अकसर इंसानों की कृपा चाहता है, लेकिन असल में भगवान की कृपा ही सब कुछ है। मनुष्य कपटी और सीमित होता है, उसकी कृपा कभी सम्पूर्ण नहीं हो सकती। जबकि भगवान जिस व्यक्ति पर कृपा करते हैं, उसके लिए सब सुलभ हो जाता है। भगवान के चरण पकड़ने से, उनका नाम जप करने से, और सबके साथ अच्छा व्यवहार करने से, व्यक्ति महान बन जाता है। यहाँ कोशिश, तप और सत्कर्म का अर्थ दोनों दृष्टियों से मिलता है – सांसारिक और आध्यात्मिक।
अर्जुन का उदाहरण
महाभारत के संदर्भ में महाराजजी बताते हैं – जहां अर्जुन के जूते हैं, वहां भगवान श्रीकृष्ण सारथी बने खुद हैं। यानी जो सच्चे सेवक हैं, उनके चरणों में भगवान स्वयं उपस्थित हो जाते हैं। भगवान भक्तों के लिए अपने स्वाभाव को बदल लेते हैं, उनकी सेवा करते हैं, उनके चरण चूमते हैं। यह दर्शाता है कि भगवान के आगे स्वार्थ और चापलूसी अप्रासंगिक है, उनकी भक्ति में विनम्रता एवं निष्कामता सर्वोपरि है।
चापलूसी का परिणाम
महाराजजी स्पष्ट करते हैं: मनुष्य की कृपा जब भी मांगी जाती है, स्वार्थ के साथ ही सीमित होती है। इंसानों के साथ चापलूसी चाहे सफल हो जाए, वह स्थायी नहीं है, पर भगवान की कृपा स्थायी, मुक्त और सच्ची है। भगवान से संपर्क स्थापित कर लेने पर, जीवन के हर क्षेत्र में सफलता और शांति दोनों सहज प्राप्त हो जाते हैं। यही निष्कर्ष है कि बड़ा बॉस, अर्थात् भगवान, ही असली मार्गदर्शक हैं; उसके आगे संसार के बॉस अप्रासंगिक हो जाते हैं।
द्रष्टिगत व्यवहार और परिणाम
महाराज जी बताते हैं कि जीवन में बात बनानी है तो असली बॉस, अर्थात प्रभु को पकड़ना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति पूछता है कि असली बॉस (भगवान) की चापलूसी करने से क्या मिलेगा? महाराजजी उत्तर देते हैं – “सब कुछ मिल जाएगा,” क्योंकि संसार की सारी वस्तुएं भगवान की हैं। जिस तरह अर्जुन ने अपने जूते की जगह भगवान को बैठा दिया, भगवान आपके सहाय बन जाते हैं – जहां भक्तों का प्रेम और समर्पण है, वहां भगवान अपने सभी रूपों में उपस्थित होते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि और आत्म-समर्पण
इस चर्चा में यह शिक्षा मिलती है कि हमें कृपा और सफलता जीवन में पाने के लिए मनुष्य के बजाय भगवान को अपना आधार बनाना चाहिए। सांसारिक चापलूसी और स्वार्थ पूर्ण प्रेम सिर्फ बाह्य सफलता दिला सकते हैं, सच्ची शांति अंतःकरण में तभी आएगी जब हमने भगवान में पूर्ण विश्वास और समर्पण किया हो। नाम जप, भजन, और सहनशीलता से व्यक्ति महान बन सकता है; बुरा व्यवहार सहने की पूरी शक्ति प्रभु से ही प्राप्त होती है। यह मार्ग जीवन के हर क्षेत्र में सफलता और सुख का स्रोत है।
निष्कर्ष
इस सम्पूर्ण संवाद का सार यही निकला कि असली मार्गदर्शक, उद्धारकर्ता और सच्चा बॉस भगवान हैं। उनकी कृपा के बिना किसी भी मनुष्य की कृपा या सफलता न तो स्थायी है, न ही समग्र। मधुर व्यवहार, नाम-जप, प्रभु को सर्वोच्च मानना, और सहनशीलता – यही संसार और आत्म शांति का सच्चा मार्ग है। सांसारिक चापलूसी सीमित और अस्थायी है, जबकि प्रभु की कृपा अनंत, प्रेममय और शाश्वत है।
इस प्रकार महाराजजी की वाणी इस अंश में “ऑफिस, चापलूसी और असली बॉस” के बहाने जीवन को सार्थक, संतुलित और दिव्य दिशा देने की शिक्षा देती है।