आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक ‘सत्संग के बिखरे मोती ‘
९१-मनुष्य विषयोंको समीप बुलाता है और चाहता है कि अमर रहूँ, यह कैसे सम्भव है?
९२-जिसने विषयोंका मोह छोड़ दिया उसने बड़ा भारी काम कर लिया।९३-जो असली धनको नहीं खोये वही चतुर है। असली धन है भगवद्भजन-भगवत्स्मरण ।
९४-विषयोंकी चाहमें जीवन विषाद-शोकमें बीतता है। विषयोंको पानेके लिये जीवनभर पापकी कमाई होती है। जिसका परिणाम भी विषाद और दुःख ही होता है। इस प्रकार विषयोंमें आदिसे अन्ततक दुःख-ही-दुःख है।
९५-मोहमें पड़ी हुई बुद्धि विचार नहीं कर पाती। पर सोचो यहाँकी कौन-सी वस्तु साथ जायगी? इसके पहले भी, इस जीवनके पहले भी तो हम कहीं थे। वहाँसे हम क्या साथ लाये ? क्या कभी पूर्व-जीवनकी बात याद भी आती है? स्मरण करनेकी इच्छा भी होती है? ठीक यही दशा इस जीवनके बाद भी होगी।
९६-जिस वस्तुसे हमारा एक दिन बिलकुल कोई भी सम्बन्ध नहीं रहेगा, उस वस्तुके लिये भगवान्को भूलना कितनी बड़ी मूर्खता है! ९७-पैदा हुए मर गये। न भगवान्का स्मरण है, न अपने स्वरूपकी स्मृति। यह तो मानव जीवनका सर्वथा दुरुपयोग है।
९८-असली बात है- भगवान्के लिये ही जीवन बिताना। जीवनका उद्देश्य हो जाय –
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(गीता ९।२७)
‘जो करो, जो खाओ, जो कुछ होम, दान और तप करो, सब मेरे (भगवान्के) अर्पण करो।’ इसके अनुसार साधना करना भगवान्के लिये जीवन बिताना है। सब करो, पर अपने लिये नहीं भगवान्के लिये।