इस वीडियो में परम पूज्य वृंदावन रसिक संत श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के विचार और प्रवचनों का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया गया है। नीचे उन्हीं विचारों और शिक्षाओं पर आधारित एक 2000 शब्दों का विस्तृत हिन्दी लेख प्रस्तुत है:
श्री प्रेमानंद जी महाराज के प्रवचनों की विस्तृत व्याख्या
1. गौ सेवा की सार्थकता
महाराज जी ने अपने प्रवचन की शुरुआत में गौ माता के अस्पताल की बात की। वे कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में धन के प्रयोग की सबसे उत्तम सार्थकता तभी है जब उसका उपयोग कुछ परोपकारी कार्यों में किया जाए। उन्होंने गौ सेवा को परम धर्म बताया और कहा कि “जिन गौओं की सेवा नहीं होती या जो असमर्थ, रोगी हैं, उनके दुख निवारण की बहुत बड़ी बात है।” गौ सेवा केवल एक धार्मिक कृत्य ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज के कल्याण का माध्यम है। जिस प्रकार स्वस्थ गायें देश की कृषि, पोषण, और पर्यावरण संतुलन हेतु आवश्यक हैं, उसी प्रकार उनकी सेवा द्वारा मनुष्य लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
यहाँ महाराज जी धन के विधानसभा और उसके सही संयोग के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। उनका संदेश है कि जितना भी धन अर्जित हो, उसे अधिकतर परोपकार-कल्याण में ही प्रयोग करना चाहिए, न कि मात्र व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं में। गौ सेवा, कष्ट में पड़ी गौओं का उपचार ही श्रेष्ठ धन की सार्थकता है।
2. नाम जप एवं भगवद् भक्ति का महत्व
महाराज जी कहते हैं, “भगवान का यश गाओ और स्वयं नाम जप करो और धर्म से चलो, जीवन का यही लाभ है।” अर्थात वे बतलाते हैं कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य प्रभु के नाम का स्मरण और भक्ति में तत्पर रहना है। स्वयं के जीवन में कर्म, धर्म और परोपकार का समन्वय करके भगवद कृपा प्राप्त की जा सकती है।
महाराज जी का यह कथन अत्यंत प्रासंगिक है कि – “भगवान की जिस पर कृपा होती है, उन्हें सब कृपा उन्हीं की कृपा से मिलती है…” वे रामायण में जटायु के प्रसंग का उदाहरण देते हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं “मेरी कृपा से तुम परम पद प्राप्त नहीं कर रहे हो, अपनी करनी से प्राप्त कर रहे हो।” इससे यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर की कृपा के साथ कर्म और धर्म का अनुपालन अनिवार्य है। नाम जप, भगवत पार्षद की भावना और स्वरूप चिंतन भक्ति-पथ के लिए अनिवार्य हैं।
3. परमार्थ एवं परोपकार की महत्त्वता
महाराज जी बार-बार परमार्थ और परोपकार की महिमा का गुणगान करते हैं। वे कहते हैं, “जितना आवे, अपने पर कम खर्चा करके परमार्थ पर खर्च करो; जीवन का लाभ परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं।” यदि हम दूसरों का हित करते हैं, भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
शास्त्रों में भी उल्लेखित है – “परोपकाराय सतां विभूतयः”। वही बात महाराज जी भी कहते हैं कि परमार्थ में की गई सेवा, चाहे गौमाता की हो, सत्संग-प्रवचन की हो, या समाज के पिछड़े, असहाय वर्ग के लोगों की हो, वह परमात्मा का आशीर्वाद प्राप्त करने का सहज मार्ग है। परहित करना ही जीवन की श्रेष्ठ साधना है।
4. ब्रज एवं धाम वास का भाव
महाराज जी ब्रजवास के विषय में गहन विचार रखते हैं। वे कहते हैं, “कभी-कभी एक भाव आता है कि हमें ब्रज में जन्म मिला, पर ब्रजवास नहीं मिलता।” लेकिन वे तुरंत स्पष्ट करते हैं कि ब्रजवास केवल भौतिक निवास नहीं, बल्कि सेवा का भाव है। यदि कोई व्यक्ति ब्रज के लोगों, समाज, और परमात्मा के यश की सेवा कर रहा है, और उनके नाम-लीला, धाम में दूसरों का राग-आसक्ति जगा रहा है, तो यही सच्चा ब्रजवास है।
वे कहते हैं, “यदि हम बृजेंद्र नंदन के आश्रित हैं और ब्रजकिशोरी के चरणों का चिंतन करते हैं, और समाज के सोए हुए लोगों को जगाकर नाम रूप लीला धाम में लगाते हैं, तो हमें इस बात का पश्चाताप नहीं होना चाहिए कि हमें धामवास नहीं मिल रहा।” महाराज जी की दृष्टि में सेवा का भाव ही सच्चा धामवास है।
5. संतों एवं भागवताचार्य की भूमिका
महाराज जी उस भूमिका को रेखांकित करते हैं जो संत, वैष्णव, भागवत प्रवक्ता, और रासाचार्य निभाते हैं। वे समाज के उन सोए हुए, दुर्बल लोगों को जागृत करते हैं, जिन्हें प्रभु के प्रेम, भक्ति और धाम की ओर खींच लाते हैं। उन्होंने कहा, “अगर संत, वैष्णव, भागवत प्रवक्ता, रासाचार्य ना जाए, तो कोई वृंदावन और प्रभु की तरफ जाए ही ना।” यही कारण है कि भागवताचार्य, संत समाज की जागृति का मूल स्तम्भ हैं।
रासलीला और भागवत कथा के माध्यम से लोगों के हृदय में प्रिया-प्रितम अर्थात श्रीकृष्ण और राधा के प्रति आसक्ति जगाने का कार्य करते हैं। यह कार्य बाहरी क्षेत्र में प्रसारित होकर लोक कल्याण एवं सांस्कृतिक सशक्तिकरण में सहायक होता है।
6. जीवन की गति और धाम उपासना
महाराज जी ज्ञानवर्धक दृष्टिकोण रखते हैं। वे कहते हैं, “हम भगवान का जस गा रहे हैं और भगवान के पार्षद हैं। हमारा चाहे जहां शरीर छूटे, हम धाम में ही जाएंगे।” भक्त का संबंध शारीरिक स्थल पर नहीं, बल्कि भावना, श्रद्धा और उपासना पर निर्भर करता है। वे स्पष्ट करते हैं, “हम धामवासी नहीं हो पाए, लेकिन धाम उपासी तो हैं। धाम उपासी और धामवासी एक ही गति होती है।” इसी विश्वास और निष्कलंक प्रेम के कारण भक्त, चाहे अमेरिक हो या अन्य कहीं, शरीर छोड़ने पर धाम में ही जाता है।
उनका प्रतीकात्मक उदाहरण, “भारतीय सैनिक कहीं भी शरीर छोड़े, तिरंगा में लपेटकर भारत ही आएगा।” उसी प्रकार धाम का जीव जहां भी रहे, उसकी गति धाम की ही होती है। धाम के शरणागत, गुरु के शरणागत, नाम के शरणागत होने से मंगल में थोड़ी कमी या पश्चाताप नहीं करना चाहिए, बल्कि उत्साहपूर्वक भगवत लीला, गुणानुवाद गायन और अर्थ का प्रयोग परिवार-समाज के पोषण में करना चाहिए।
7. संक्षिप्त प्रेरक बातें
महाराज जी के प्रवचन से कई ऐसी प्रेरक बातें निकलती हैं जो हर इंसान के जीवन में अमूल्य हैं:
- धन की सार्थकता: धन का उपयोग आवश्यकता से अधिक अपने सुख-सुविधा में नहीं, बल्कि समाज, गौमाता, और असहाय वर्ग के उत्थान में करें।
- सेवा भाव: गौसेवा, समाज सेवा, सत्संग, और लोकहित के प्रति सतत जागरूक रहें।
- भगवान का स्मरण: नाम जप और भगवद भाव ही जीवन के आनंद का वास्तविक स्रोत हैं।
- धाम उपासना: ब्रज, धाम और गुरु की उपासना स्थायी सुख व मोक्ष का मार्ग है।
- उत्साह एवं विश्वास: जीवन में चुनौतियों को पश्चाताप के रूप में न लेकर उत्साहपूर्वक, श्रद्धा और विश्वास से आगे बढ़ें।
8. आध्यात्मिक शिक्षा एवं समाज के प्रति कर्तव्य
महाराज जी मानते हैं कि धार्मिकता और आध्यात्मिकता केवल कर्मकांड नहीं, अपितु व्यवहार और सोच का आधार बन जाए। व्यक्ति को समाज के लिए, राष्ट्र के लिए सतत योगदान देना चाहिए। बृजवासियों, संतों की प्रेरणा को अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन भगवत कृपा और मंगल की ओर प्रशस्त कर सकता है।
वे कहते हैं कि मनुष्य को अपने धन, शक्ति, और समय को धर्म एवं परोपकार में लगाने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। “जितना परोपकार कर सको अर्थ बढ़े तो ऐसे ही परोपकार करना चाहिए।” यही परम उपदेश है।
9. कैसे होती है भगवत कृपा
महाराज जी के विचारों में भगवत कृपा का मुख्य आधार अपने कर्म और परहित के भाव में है। जैसे जटायु ने सीता जी की रक्षा करने का प्रयास किया, वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति को यथासम्भव संसार के दुखों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
भगवान श्रीराम कहते हैं, “मेरी कृपा से तुम परम पद प्राप्त नहीं कर रहे, अपनी करनी से प्राप्त कर रहे हो।” इसका तात्पर्य है कि कर्म और सेवा ही जीवन का मूल है।
10. निष्कर्ष: त्याग, सेवा और भक्ति ही जीवन की मंजिल
महाराज जी की समस्त बातों का सार यही है कि धर्म, परमार्थ, सेवा, और भगवत भक्ति ही मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। धन का सही प्रयोग, गौसेवा, नाम जप, समाज की जागृति, और ब्रज-धाम की उपासना, ये सभी जीवन को जागृत, परोपकारी और आनंदमय बनाते हैं।
उनकी शिक्षाएँ प्रत्येक वर्ग, समाज और उम्र के व्यक्ति को प्रेरणा देने वाली हैं। वे कहते हैं – “जीवन का लाभ परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं।” अर्थात परहित से उत्तम कोई धर्म नहीं, और परपीड़ा से बढ़कर कोई अधर्म नहीं।
संतों, वैष्णवों, और भागवताचार्यों की सहायता से समाज का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास होता है। सभी को चाहिए कि वे जीवन के हर क्षेत्र में — चाहे परिवार, समाज, व्यवसाय, राष्ट्र — सेवा, त्याग और भगवत भक्ति को सर्वोच्च स्थान दें।
अंत में, महाराज जी के प्रेरणादायक विचार हमें बतलाते हैं कि मनुष्य जीवन केवल भौतिक उपलब्धियों, धन-संपत्ति या व्यक्तिगत सुख-सुविधा का नाम नहीं है। इसका परम उद्देश्य सेवा, धर्म, परमार्थ, और भगवत भक्ति है।
ये प्रवचन वर्तमान समाज के लिए न केवल मार्गदर्शन हैं बल्कि आत्मकल्याण, समाज कल्याण और चरम आनंद प्राप्ति के श्रेष्ठ उपाय भी हैं। महाराज जी की बातें हर किसी के लिए एक नई प्रेरणा और नई दिशा हैं — सरल जीवन, उच्च विचार, उत्तमकर्म, और भगवत प्रेम ।youtube





