ऐशोआराम की Luxurious life पर महाराज जी ने क्या कहा
मुख्य विषय: ऐशोआराम की Luxurious life
- आरंभिक संवाद
- सवाल पूछा गया: “ऐशोआराम की लाइफ जीना क्या गलत है?”
- जवाब में संत कहते हैं:
ऐशोआराम यानी विलासिता का जीवन क्या सही है?
जैसे कोई व्यक्ति बीमार है, अगर वह अपनी बीमारी को बढ़ाने वाली चीज ही खाता रहे, तो क्या वो स्थिति ठीक कही जा सकती है?
उसी प्रकार, इस संसार में ‘भव रोग’ लगा है — बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार दुख, बार-बार विपत्ति;
और जो चीज़ें इस भव रोग को बढ़ाती हैं, वे हैं ‘भोग विलासिता’।
- भोग-विलासिता का स्वरूप
- जब हम ऐशोआराम और भोगों में मन लगाते हैं, तो हम इस भव-रोग को बढ़ा रहे हैं।
- गंदी बातें, भोग-विलासिता, जीवन में धीरे-धीरे अपवित्रता बढ़ाती जाती है।
- यही भोग-विलासिता धर्म का नाश कर रही है।
- संतुष्टि और धर्म का मार्ग
- जब पति-पत्नी एक-दूसरे से संतुष्ट होकर, धर्मपूर्वक चलते हैं तो उनका मार्ग अलग हो जाता है।
- जब संतुष्टि नहीं होती तो मन अन्यत्र भटक जाता है और वह मार्ग नरक की ओर ले जाता है।
- भोग-विलासिता को साधारण भोग न समझें।
- यदि वही भोग किसी उच्च उद्देश्य (जैसे मंदिर, गौशाला, अस्पताल बनवाना) के लिए किया जाए, तो मार्ग बदल जाता है।
- संपत्ति का सदुपयोग
- यदि धन का प्रयोग सामाजिक कल्याण (मुफ्त दवाईँ, अस्पताल, आदि) के लिए किया जाए और स्वयं साधा व सीधा जीवन जिया जाए,
तो यह धन भगवान की प्राप्ति का मार्ग बन जाता है। - दूसरी ओर, जब धन भोग-विलास की तरफ जाता है, वहाँ से शराब, अन्य स्त्रियों में रुचि, चोरी, झूठ, हिंसा आदि जीवन में आ जाते हैं
और यह सब नरक की ओर ले जाते हैं।
- यदि धन का प्रयोग सामाजिक कल्याण (मुफ्त दवाईँ, अस्पताल, आदि) के लिए किया जाए और स्वयं साधा व सीधा जीवन जिया जाए,
- भोग-विलासिता के परिणाम
- भोग-विलासिता गंदे आचरण में ले जाती है, दुर्गति करवाती है।
- संत का स्पष्ट मत — ऐशोआराम और विलासिता का जीवन ठीक नहीं है।
- यदि आपके पास साम्राज्य है, तो उसे बाँटिए, लोगों को सुख दीजिए, स्वयं भी धर्मपूर्वक रहिए;
यही मार्ग भगवान की प्राप्ति की ओर ले जाएगा।
- बुद्धि और विनाश
- भोग-विलासिता बुद्धि को भ्रष्ट करती है और नरक का मार्ग मजबूत करती है।
- अगर ऐसी विलासिता जीवन में आ जाए, तो उसका धर्म में लगावना चाहिए, दूसरों की भलाई में लगाना चाहिए।
- अपने लिए उचित मात्रा में भोगना चाहिए, धर्मपूर्वक चलना चाहिए;
इसी में मनुष्य जीवन सार्थक है, अन्यथा बिलकुल बेकार है।
- दो वर्ग का समाज
- एक वर्ग जो भोग-विलासिता में पूरी तरह डूबा हुआ है, उन्हें कुछ समझ नहीं आएगा, वे समझना भी नहीं चाहेंगे।
- दूसरा वर्ग वे हैं, जो दूसरों को भोग-विलासिता में देखकर ललचाते हैं —
यही सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि दुर्गति बहुतों की होती है, सद्गति एक-दो की।
- इंद्रियों की विजय — साधना का महत्व
- भगवान के मार्ग पर चलना कठिन है, क्योंकि इंद्रियों को समेटना, उन पर विजय पाना होता है।
- भोग-विलासिता में इंद्रिय सुख है, और तत्काल सुख के लिए मन लालायित हो जाता है।
- दूसरों को भोग में लिप्त देखकर मन में इच्छा आती है,
लेकिन असल में ये ‘माया की चमकाहट’ है, इसमें सच्चा सुख नहीं है।
- धर्म और सेवा का रास्ता
- आपको जीवन में जो भी भोग-सामग्री उपलब्ध है, उसे धर्मपूर्वक प्राप्त करें और दूसरों की सेवा में लगाएँ।
- इससे आपका कल्याण होगा।
- स्वेच्छाचार और भोग-विलासिता में जीवन की ऊर्जा, धन और समय व्यर्थ हो जाएगा।
- निष्कर्ष व उपसंहार
- जीवन का उद्धेश्य है — धर्म, सेवा और भगवान का स्मरण।
- जीवन में ऐशोआराम और विलासिता का बहकावा केवल आपको नष्ट करेगा।
- भोग-विलासिता आपकी बुद्धि का नाश करेगी और आपको नरक के मार्ग पर ले जाएगी।
- इसका सदुपयोग कर लें, धर्म-सेवा व साधना से जोड़ें, तो जीवन सार्थक होगा।








