
प्रश्न-पुत्री (कन्या) तो पतिके घर चली जाती है, तो फिर वह माँ-बाप की सेवा कैसे कर सकती है और सेवा किये बिना माँ-बापका ऋण माफ कैसे हो सकता है?
उत्तर-जैसे, किसी पर इतना अधिक ऋण हो जाय कि उसको चुकाने की मनमें होनेपर भी वह चुका न सके तो वह ऋणदाता के पास जाकर कह दे कि मैं और मेरे स्त्री-पुत्र, घर जमीन आदि सब आपके समर्पित हैं; अब आप इनका जैसा उपयोग करना चाहें, वैसा कर सकते हैं। ऐसा करनेसे उसपर ऋण नहीं रहता, ऋण माफ हो जाता है। इसी तरह कन्या बचपनसे ही माता-पिता के समर्पित रहती है। वह अपने मनकी कुछ भी नहीं रखती। माता-पिता जहाँ उसका सम्बन्ध (विवाह) करा देते हैं। वह प्रसन्नतापूर्वक वहीं चली जाती है। वह अपने गोत्र को भी पति के गोत्र में मिला देती है। जिसने ऐसा त्याग किया है, उसपर माता-पिता का ऋण कैसे रह सकता है? नहीं रह सकता।
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.








