प्रश्न- परिवार में प्रेम और सुख-शान्ति कैसे रहे?

प्रश्न- परिवार में प्रेम और सुख-शान्ति कैसे रहे?

उत्तर-

मनुष्य अपने उद्देश्य को जाग्रत रखे

जब मनुष्य अपने उद्देश्यको भूल जाता है, तभी सब बाधाएँ, आफतें आती हैं। अगर वह अपने उद्देश्यको जाग्रत् रखे कि चाहे जो हो जाय, मुझे अपनी आध्यात्मिक उन्नति करनी ही है, तो फिर वह सुख-दुःखको नहीं गिनता- ‘मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् ॥’ और अपने स्वार्थ एवं अभिमानका त्याग करनेमें उसको कोई कठिनाई भी नहीं होती। स्वार्थ और अभिमानका त्याग होनेसे व्यवहारमें कोई बाधा, अड़चन नहीं आती।

जब मनुष्य अपनी मूँछ रखना चाहता है

व्यवहारमें, परस्पर प्रेम होनेमें बाधा तभी आती है, जब मनुष्य अपनी मूँछ रखना चाहता है, अपनी बात रखना चाहता है, अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है।

दूसरेका भला कैसे हो, उसका कल्याण कैसे हो, उसका आदर-सम्मान कैसे हो, उसको सुख-आराम कैसे मिले- यह बात जब आचरणमें आ जाती है, तब सब कुटुम्बी प्रसन्न हो जाते हैं। किसी समय कोई कुटुम्बी अप्रसन्न भी हो जाय तो उसकी अप्रसन्नता टिकेगी नहीं, स्थायी नहीं रहेगी; क्योंकि जब कभी वह अपने लिये ठीक विचार करेगा, तब उसकी समझमें आ जायगा कि मेरा हित इसी बातमें है। जैसे बालकको पढ़ाया जाय तो खेलकूदमें वृत्ति रहनेके कारण उसको पढ़ाई बुरी लगती है, पर परिणाममें उसका हित होता है। ऐसे ही कोई बात ठीक होते हुए भी किसीको बुरी लगती है तो उस समय भले ही उसकी समझमें न आये, पर भविष्यमें जरूर समझमें आयेगी। कदाचित् उसकी समझमें न भी आये तो भी हमें अपनी नीयत और आचरणपर सन्तोष होगा कि हम उसका भला चाहते हैं और हमारे भीतर एक बल रहेगा कि हमारी बात सच्ची और ठोस है।

स्वार्थ और अभिमान

आपसमें प्रेम रहनेसे ही परिवारमें सुख-शान्ति रहती है। प्रेम होता है अपने स्वार्थ और अभिमानके त्यागसे। जब स्वार्थ और अभिमान नहीं रहेगा, तब प्रेम नहीं होगा तो क्या होगा ? दूसरा व्यक्ति अपने स्वार्थके वशीभूत होकर हमारे साथ कडुआ बर्ताव करता है तो कभी-कभी यह भाव पैदा होता है कि मैं तो इसके साथ अच्छा बर्ताव करता हूँ, फिर भी यह प्रसन्न नहीं हो रहा है, मैं क्या करूँ ? ऐसा भाव होनेमें हमारी सूक्ष्म सुख-लोलुपता ही कारण है; क्योंकि दूसरे व्यक्तिके तत्काल सुखी, प्रसन्न होनेसे एक सुख मिलता है।

निष्कर्ष

अतः इस सुख-लोलुपताका पता लगते ही इसका त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि हमें केवल अपना कर्तव्य निभाना है, दूसरेका आदर करना है, उसके प्रति प्रेम करना है। हमारे भाव और आचरणका उसपर असर पड़ेगा ही। हाँ, अन्तःकरणमें कठोरता होनेके कारण उसपर असर न भी पड़े तो भी हमने अपनी तरफसे अच्छा किया- इस बातको लेकर हमें सन्तोष होगा। सन्तोष होनेसे हमारा प्रेम घटेगा नहीं और परिवारमें भी सुख-शान्ति रहेगी।

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।

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