सकाम भक्ति भी फल देकर मरती नहीं

२३-सकाम भक्ति भी फल देकर मरती नहीं। भगवान् कहते हैं

‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ – चारों प्रकारके भक्त मुझे प्राप्त हो जाते हैं। भगवद्भक्ति ऐसी चीज है कि उसके बदले हम कुछ माँग भी लेते हैं तो भी वह बनी रहती है। भगवान् भक्तकी माँगी हुई वस्तु देकर भौ उसके विश्वासको नष्ट नहीं करते।

२४-सकामभावसे विश्वासपूर्वक यदि भगवान्को पुकारा जाय तो दो बातोंमेंसे एक अवश्य हो जाती है- (१) या तो वह कामना पूर्ण हो जाती (२) या उस काम्य वस्तुके अभावके कारण उत्पन्न खेद मिट जाता है। अधिकतर कामनाकी पूर्ति ही होती है।

२५-जगत् दुःखी क्यों है? अपने मँगतेपनके कारण, कामनाके कारण। भगवान्‌को याचनेपर यह मँगतापन, यह कामना जल जाती है; इसलिये कुछ माँगना भी हो तो उन्हींसे माँगे –

जग जाचिय कोउ न जाचिय, जौ इक जाचिय जानकि जानहि रे। जेहि जाचत जाचकता जरि जाय जो जारत जोर जहानहि रे ॥

२६-किसी भी इच्छासे भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ लेना अच्छा है।

२७-समय बहुत अमूल्य धन है। हमारे पास और उस समयका दुरुपयोग करना या सदुपयोग करना अथवा समयसे हानि उठाना हमारे हाथकी बात है। समयको यदि हम सत्कर्ममें लगाते हैं तो उससे लाभउठा रहे हैं और यदि व्यर्थके कामोंमें लगाते हैं तो उसे खो रहे हैं और यदि उसे बुरे कामोंमें लगाते हैं तो हानि कर रहे हैं। मनुष्यके जीवनका एक-एक क्षण बड़े कामका है। भगवान्पर विश्वास हो और उस विश्वासको लेकर मनुष्यका मन उनपर निर्भर हो जाय तथा सत्कर्ममें लग जाय तो समयका बड़ा सदुपयोग है। जितना समय भगवान्में लग गया, उतना सार्थक है, सफल है शेष सब तो व्यर्थ ही जा रहा है।

२८-व्यर्थताके दो स्वरूप हैं-(१) जिसका कोई सदुपयोग न हुआ और (२) जिसमें नये पाप पैदा हुए। प्रथमसे दूसरा स्वरूप अधिक भयावह है।

२९-समयको परदोष-कथन, दूसरेको हानि पहुँचाने, तन-मन-वचनसे पापकर्मोंका आचरण, निन्दा आदि निषिद्ध कार्योंमें व्यतीत करनेसे मानव-जीवनकी व्यर्थता ही सिद्ध नहीं होती, उलटे हम अपनेको नाना नरकयोनियोंमें ले जाते हैं। विभिन्न जीव-शरीरोंमें जीवको जो विभिन्न प्रकारके दुःख मिलते हैं, वे सभी मनुष्य जीवनमें किये गये कुकर्म-बीजोंके ही फल होते हैं।

३०-जिस किसी क्षण जीवका मन एकान्तभावसे भगवान्में लग जाता है, उसी क्षण वह मुक्त हो जाता है।

३१-जो समय भगवत्स्मरण-शून्य है, वह सबसे बड़ी विपत्तिका समय है; सांसारिक विपत्तिका समय विपत्तिका नहीं। विपत्तिमें भी यदि भगवत्स्मरण हो तो वह विपत्ति भी अभिनन्दनीय है।

३२-भगवान्के लिये हमारे कर्म हों, भगवान्के लिये हमारा मन हो, भगवान्के लिये ही हमारी वाणी हो-जो समय इस रूपमें बीते, वही सदुपयोगका है।

३३-भगवान्के सामने तो दीन, पर विकारोंके सामने परम बलवान् होना चाहिये। यह बल अपना नहीं, भगवान्‌का –

अब मैं तोहि जान्यो संसार ।

बाँधि न सकहि मोहि हरिके बल प्रकट कपट आगार ॥

पाप ताप आकर हमें घेर लेंगे- ऐसा माननेवाले भगवान्की शक्तिका अपमान करते हैं। हम भगवान्‌के हैं और भगवान्‌की शक्ति हमारी रक्षाके लिये निरन्तर प्रस्तुत है। हमारे भगवान्के साथ रहते हमारे पास पाप-ताप आ नहीं सकते।

३४-जाननेका अर्थ है- विश्वास हो जाना।

३५-भगवान् अमुक काम कर सकते हैं, अमुक काम नहीं कर सकते- जो लोग युक्तियों, तर्कोंसे इस प्रकारकी मीमांसा करने बैठते महाशक्तिपर विश्वास करके उनके चरणोंका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं. वे शान्ति पा जाते हैं।

३६-भगवान्‌का निग्रह एवं अनुग्रह दोनों ही बड़े विचित्र हैं। उनके निग्रहमें भी अनुग्रह है, अतएव उनकी लीला कौन जान सकता है।

३७-भगवान्‌का कोप, भगवान्का निग्रह-निग्रह एवं कोप नहीं होते, क्योंकि उनके पास किसीका अहित करनेवाली चीज है ही नहीं। वे जिनपर कोप करते हैं, वे जिनका निग्रह करते हैं, वे भी बड़े सौभाग्यशाली हैं।

३८-भगवान्‌की लीलाओंका तत्त्व जाननेकी चेष्टा न करके उन लीला-कथाओंका गायन करें, श्रवण करें-हमारा यही कर्तव्य है।

३९-भगवान् बड़े अद्भुतकर्मा हैं। उनकी सारी लीलाएँ ही परम अद्भुत एवं चमत्कारमयी हैं। उन्हें देखकर पहले भ्रान्ति होती है; पर परिणाम देखकर बड़ा सुख मिलता है; बड़ी चमत्कृति होती है।

४०-असलमें भगवान्की बात भगवान् ही जानते हैं। जो लोग संसारमें किसी दुःखको पाकर भगवान्पर अप्रसन्न होते हैं, उनको कोसते हैं, वे यह नहीं जानते कि यह दुःख भी किसी महान् सुखकी पूर्व-भूमिका है।

४१-सेवामें सबसे श्रेष्ठ और आवश्यक वस्तु है प्रेम। बड़े भारी उपकरणोंसे सेवा की जाय, पर प्रेम नहीं तो वह सेवा सेवा नहीं होती, दिखावा होता है। किन्तु यदि प्रेम है तो वह अपने-आप उपकरणोंको (चाहे वे अत्यन्त अल्प ही हों) सजा देता है और उनसे विशुद्ध सेवा होती है।

४२-भगवान्के जितने वस्त्र हैं, अलंकार हैं, अस्त्र-शस्त्रादि हैं, सब-के-सब दिव्य, चेतन एवं सच्चिदानन्दमय हैं और भगवत्स्वरूप हैं। वे वैसे अदृश्य रहते हैं, पर समय-समयपर किसी घरवालेके द्वारा या भक्तके द्वारा प्रकट हो जाते। यशोदा मैया जब श्रीकृष्णको कोई आभूषण आदि पहनाती हैं, तब भगवान्‌के वे अदृश्य आभूषण आदि किसी-न-किसी रूपमें उनके कोषागारमें प्रकट हो जाते हैं और उन्हीं आभूषणोंसे मैया उनका श्रृंगार करती हैं; किंतु भक्तको अथवा घरवालोंको यह ज्ञात नहीं होता कि भगवान्‌के दिव्य आभूषण प्रकट हुए हैं और वह उनके द्वारा उनका श्रृंगार कर रहा है।

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