जिसके मन, बुद्धि, शरीर एवं इन्द्रियों पर भगवान्‌ का पूर्ण अधिकार हो गया, वही मुक्त है-प्रथम माला

भगवान् ने कहा, ‘अर्जुन ! युद्ध करो, पर विजय के लिए नहीं आशारहित होकर, ममतारहित होकर (निराशीर्निर्ममो भूत्वा ) युद्ध करो, केवल निमित्तमात्र बनो, मैं कराऊँ वैसे करते जाओ।’ ऐसी ही साधना करनी है।

१००-जो होता है, सब भगवान्‌का किया ही होता है। इसलिये अहंकारका त्याग कर दो। कर्मका फल भी छोड़ दो भगवान्पर ही। भगवान्‌के हाथके यन्त्र बनकर उनके इच्छानुसार करते चले जाओ।

१०१-जिसके जिम्मे जो काम है, वह वही करे, पर करे भगवान्‌की सेवाके लिये। यहाँतक कि मनके प्रत्येक संकल्प-विकल्पको भी भगवत्सेवासे जोड़ दे।

१०२-जिसके मन, बुद्धि, शरीर एवं इन्द्रियोंपर भगवान्‌का पूर्ण अधिकार हो गया, वही मुक्त है।

१०३-श्रीगोपीजनोंके मन, बुद्धि, शरीरपर एकमात्र श्रीभगवान्‌का ही अधिकार था। भगवान्ने उनके लिये स्वयं यह स्वीकार किया है- ‘ता मन्मनस्का मत्प्राणाः ।’

१०४-सब काम करो, पर करो भगवान्‌को याद रखते हुए उन्हींके प्रीत्यर्थ ! हम नौकरी करते हैं, व्यापार करते हैं, पर उस नौकरी या व्यापारको भगवान्‌को याद करते हुए भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये करें तो वह व्यापार ही भगवत्पूजा बन जायगा।

१०५-सारे पदार्थोंपरसे अपनी मालिकी उठा दो। मालिक भगवान्‌को बना दो और स्वयं मैनेजर बन जाओ।

१०६-भगवान्के चिन्तनमें ही सुखकी, तृप्तिकी खोज करो। फिर जीवन दिव्य बन जायगा। क्रियाएँ सब-की-सब भगवान्के लिये होने लग जायँगी। ऐसा असम्भव नहीं है।

१०७-कुछ भी न हो सके तो जिस किसी भावसे हो, भगवान्‌का नाम लेते रहो।

१०८-नामका सच्चा आश्रय लेकर निश्चिन्त हो जाओ।

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