स्कूल पेरेंट्स मीटिंग में ज़्यादातर बच्चों को डाँट क्यों पड़ती है?

स्कूल का नाम सुनते ही ज़्यादातर बच्चों के मन में दो बातें आती हैं — पढ़ाई और परीक्षा। लेकिन जब “पेरेंट्स मीटिंग” (Parents-Teacher Meeting या PTM) की बात होती है, तो कई बच्चों के चेहरे पर चिंता दिखाई देने लगती है। उनके मन में यह डर रहता है कि कहीं आज फिर टीचर मम्मी-पापा से उनकी शिकायत न कर दें। यह डर उन्हें बेचैन कर देता है।
आइए समझते हैं कि आख़िर ऐसा क्यों होता है कि पेरेंट्स मीटिंग में ज़्यादातर बच्चों को डाँट पड़ती है।


1. पेरेंट्स मीटिंग का असली उद्देश्य क्या है?

सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि पेरेंट्स मीटिंग का असली मक़सद क्या होता है। यह मीटिंग स्कूल और घर के बीच एक सेतु (bridge) की तरह होती है।

  • इसका मुख्य लक्ष्य यह होता है कि शिक्षक और अभिभावक मिलकर बच्चे की प्रगति पर चर्चा करें।
  • यह देखा जाए कि बच्चा किन विषयों में अच्छा कर रहा है और किन क्षेत्रों में सुधार की ज़रूरत है।
  • बच्चे का व्यवहार, रुचि, मेहनत, और अनुशासन — इन सभी बातों पर खुलकर बातचीत हो सके।

लेकिन अक्सर यह मीटिंग ‘शिकायत सत्र’ (complaint session) बन जाती है, जहाँ बच्चे के अच्छे कामों से ज़्यादा उसकी गलतियाँ गिनाई जाने लगती हैं। यहीं से डाँट की शुरुआत होती है।


2. बच्चों को डाँट क्यों पड़ती है?

अब बात करते हैं उन मुख्य कारणों की जिनकी वजह से बच्चों को अक्सर पेरेंट्स मीटिंग में डाँट सुननी पड़ती है।

(क) पढ़ाई में कमी

बहुत से बच्चे पढ़ाई में उतने मन से मेहनत नहीं करते। मज़े में ज़्यादा, और किताबों में कम रहते हैं। जब टीचर अभिभावक को बताता है कि उनका बच्चा क्लास में ध्यान नहीं देता, होमवर्क अधूरा छोड़ता है या कम अंक लाता है — तो माता-पिता को बुरा लगता है। फिर वे वहीं डाँट देते हैं।

(ख) शरारती व्यवहार

कुछ बच्चे स्कूल में बहुत एक्टिव और मज़ाकिया होते हैं। कई बार यह सक्रियता अनुशासनहीनता में बदल जाती है। टीचर इसकी शिकायत करती है कि बच्चा क्लास में बात करता है, शरारत करता है, या दूसरों को परेशान करता है। इससे माता-पिता को लगता है कि बच्चा बिगड़ रहा है, और डाँट देना उचित है।

(ग) तुलना और अपेक्षा

कई माता-पिता अपने बच्चों की तुलना दूसरों से करते हैं —
“देखो शर्मा जी का बेटा कितना अच्छे नंबर लाता है, और तुम?”
इस तरह की बातों से बच्चे को चोट पहुँचती है, लेकिन उस समय माता-पिता को लगता है कि वे उसे सुधार रहे हैं। पर वास्तव में यह डाँट दबाव (pressure) बढ़ा देती है।

(घ) टीचरों द्वारा नेगेटिव रिपोर्ट

कभी-कभी टीचर बच्चों की कमियों पर ज़्यादा ध्यान देते हैं, उनकी अच्छाइयाँ बताना भूल जाते हैं। इस वजह से अभिभावक का पूरा ध्यान “गलती” पर जाता है, और वे डाँटने लगते हैं।

(ङ) माता-पिता का खुद का तनाव

कई बार पेरेंट्स खुद तनाव में रहते हैं — नौकरी का दबाव, समाज की सोच, आर्थिक स्थिति आदि। जब वे स्कूल में बच्चे की शिकायत सुनते हैं, तो भीतर का गुस्सा बच्चे पर उतर आता है।


3. बच्चों के मन पर इसका असर

अगर हर पेरेंट्स मीटिंग में बच्चे को सिर्फ़ डाँट ही मिले, तो इसका उनके मन पर गहरा असर होता है।

  • आत्मविश्वास (self-confidence) घटने लगता है।
  • बच्चा सोचता है कि “मैं हमेशा ग़लत हूँ।”
  • उसके अंदर डर और शर्म बैठ जाती है कि वह अपनी भावनाएँ खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाता।
  • धीरे-धीरे बच्चा पढ़ाई और स्कूल दोनों से दूरी बनाने लगता है।

कुछ बच्चे तो पेरेंट्स मीटिंग से पहले ही बीमार पड़ने का बहाना करने लगते हैं, ताकि स्कूल न जाना पड़े। इसका मतलब है कि कहीं न कहीं यह प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक रूप से बच्चे को प्रभावित कर रही है।


4. गलती केवल बच्चों की नहीं होती

यह समझना ज़रूरी है कि हर बार गलती सिर्फ़ बच्चे की नहीं होती।
कभी-कभी सिस्टम भी इसके ज़िम्मेदार होते हैं —

  • बढ़ा हुआ पाठ्यक्रम: आज स्कूलों में बोझ बहुत अधिक है। प्रोजेक्ट्स, टेस्ट, असाइनमेंट — बच्चे के पास आराम या रचनात्मकता का समय ही नहीं बचता।
  • कठोर शिक्षण शैली: कुछ शिक्षक अपने गुस्से या थकान में नाराज़ हो जाते हैं, जबकि बच्चा बस जिज्ञासावश कोई सवाल पूछ रहा होता है।
  • अत्यधिक अपेक्षाएँ: माता-पिता सोचते हैं कि बच्चा हर विषय में 90% से ज़्यादा लाए, खेलों में भी उत्कृष्ट हो, और सभ्य भी रहे। यह सब हर बच्चे के लिए संभव नहीं है।

इसलिए पेरेंट्स मीटिंग में डाँट पड़ना एक संयुक्त सामाजिक समस्या है, सिर्फ़ “बच्चे की गलती” नहीं।


5. बच्चों के दृष्टिकोण से

अगर हम बच्चों से पूछें कि उन्हें पेरेंट्स मीटिंग क्यों डरावनी लगती है, तो उनके जवाब अक्सर दिल को छू जाते हैं।

  • “मम्मी, टीचर सिर्फ़ मेरी गलतियाँ बताती हैं।”
  • “डैडी को लगता है मैं जानबूझकर पढ़ाई नहीं करता, पर असल में मुझे समझ में नहीं आता।”
  • “जब मुझे सबके सामने डाँटा जाता है, तो बहुत शर्मिंदा महसूस होता है।”

यह बातें दिखाती हैं कि बच्चे अपनी गलतियों से सीखना चाहते हैं, लेकिन डाँट से नहीं — समझ और सहयोग से।


6. शिक्षकों की भूमिका

एक अच्छा शिक्षक वह होता है जो बच्चे की गलती को सिर्फ़ गलती न मानकर, उसे सुधार का मौक़ा समझे। पेरेंट्स मीटिंग में शिक्षक की जिम्मेदारी होती है कि वह अभिभावक को संतुलित रिपोर्ट दे —

  • बच्चे की अच्छाइयों और प्रगति की चर्चा पहले करे।
  • फिर सुधार योग्य बातों पर शांत ढंग से बात करे।
  • माँ-बाप को सुझाव दे कि घर पर वे बच्चे को कैसे प्रेरित कर सकते हैं।

इस तरह की सकारात्मक संवाद शैली पेरेंट्स मीटिंग को “डाँट का दिन” नहीं, बल्कि “प्रगति का दिन” बना सकती है।


7. पेरेंट्स को क्या करना चाहिए?

माता-पिता बच्चों के सबसे बड़े सहायक होते हैं। वे यदि थोड़ी समझदारी बरतें, तो बच्चों का डर कम हो सकता है।

  • मीटिंग से लौटकर बच्चे को डाँटने के बजाय समझाएँ कि गलती कहाँ हुई।
  • बच्चे से खुलकर बातें करें, सुनें कि उसे किस चीज़ में कठिनाई आती है।
  • उसकी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर भी प्रसन्नता व्यक्त करें।
  • घर का माहौल दोस्ताना रखें, ताकि बच्चा अपनी बात कहने की हिम्मत जुटा सके।
  • यह बात हमेशा याद रखें कि “आपका बच्चा तुलना नहीं, समर्थन चाहता है।”

8. बच्चों को क्या करना चाहिए?

बच्चों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपनी भूमिका निभाएँ।

  • शिक्षकों की बात ध्यान से सुनें।
  • होमवर्क, प्रोजेक्ट या टेस्ट के प्रति ईमानदार रहें।
  • अगर कोई बात समझ में न आए तो टीचर से पूछने में झिझकें नहीं।
  • शरारतें करें, लेकिन सीमाओं के भीतर रहें।
  • सबसे ज़रूरी — डरकर नहीं, सीखने की उत्सुकता से पढ़ें।

जब बच्चा खुद सुधार की दिशा में बढ़ता है, तो पेरेंट्स मीटिंग भी मुस्कान भरा अनुभव बन सकती है।


9. समाधान और नए तरीके

आज कई स्कूलों ने पेरेंट्स मीटिंग को पारंपरिक रूप से बदल दिया है।

  • अब इन्हें “स्टूडेंट-लीड कॉन्फ़्रेंस” कहा जाता है, जहाँ बच्चा खुद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।
  • शिक्षक और अभिभावक टीम की तरह चर्चा करते हैं।
  • डिजिटल रिपोर्ट, वीडियो प्रेजेंटेशन, कला प्रदर्शन जैसी गतिविधियों से माहौल हल्का और प्रेरणादायक बनता है।

इन तरीकों से बच्चा भी सीखता है कि आलोचना सुधार का अवसर है, न कि डर का कारण।


10. निष्कर्ष

स्कूल की पेरेंट्स मीटिंग का उद्देश्य बच्चों को बेहतर बनाना है, भयभीत करना नहीं। जब शिक्षक, माता-पिता और बच्चा — तीनों एक-दूसरे को समझने लगते हैं, तो डाँट की जगह संवाद ले लेता है। बच्चे की मुस्कान सबसे बड़ी “रिपोर्ट कार्ड” होती है, जो यह बताती है कि वह सही दिशा में बढ़ रहा है।

इसलिए अगली बार जब पेरेंट्स मीटिंग हो, तो उसे “डाँट का दिन” नहीं, “समझ का दिन” बनाएँ।
बच्चों को भी महसूस होने दें कि वे सिर्फ़ अंक नहीं, भावनाएँ और सपने भी रखते हैं।
तभी शिक्षा सच में “सीखने” का नाम कहलाएगी, “डरने” का नहीं।


Related Posts

किशोर बच्चे माँ‑बाप की बात क्यों नहीं सुनते?

12 से 16 साल की उम्र में बच्चे अक्सर माँ‑बाप की बात कम सुनते हैं, क्योंकि इस समय उनके शरीर, दिमाग और भावनाओं में तेज़ बदलाव होते हैं और वे…

Continue reading
COACHING-TUTION के बावजूद बच्चो के नंबर क्यों नहीं आ रहे, पेरेंट्स क्या करे?

भूमिका आज के दौर में शिक्षा का महत्व पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा अच्छे अंकों से पास होकर एक सफल जीवन…

Continue reading

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You Missed

स्कूल पेरेंट्स मीटिंग में ज़्यादातर बच्चों को डाँट क्यों पड़ती है?

स्कूल पेरेंट्स मीटिंग में ज़्यादातर बच्चों को डाँट क्यों पड़ती है?

किशोर बच्चे माँ‑बाप की बात क्यों नहीं सुनते?

किशोर बच्चे माँ‑बाप की बात क्यों नहीं सुनते?

अगर कोई हमारी मेहनत से कमाया हुआ धन हड़प ले तो क्या करें?

अगर कोई हमारी मेहनत से कमाया हुआ धन हड़प ले तो क्या करें?

विराट कोहली और अनुष्का शर्मा ने महाराज जी से ली दीक्षा: आस्था, सादगी और भक्ति की अनोखी मिसाल

विराट कोहली और अनुष्का शर्मा ने महाराज जी से ली दीक्षा: आस्था, सादगी और भक्ति की अनोखी मिसाल

क्रिसमस की रौनक में ठंडक क्यों, क्या हिंदुत्व इसके पीछे कारण है?

क्रिसमस की रौनक में ठंडक क्यों, क्या हिंदुत्व इसके पीछे कारण है?

COACHING-TUTION के बावजूद बच्चो के नंबर क्यों नहीं आ रहे, पेरेंट्स क्या करे?

COACHING-TUTION के बावजूद बच्चो के नंबर क्यों नहीं आ रहे, पेरेंट्स क्या करे?