क्रिसमस फेस्टिवल को हफ्ता भी नहीं बाकी है, लेकिन क्या आपने नोटिस किया कि बाजारों में इसे लेकर कुछ ज्यादा रौनक नहीं देखने को मिल रही. मुझे याद आता है कि कुछ साल पहले इस तरह का फीका माहौल दिखता नहीं था. लोग क्रिसमस पार्टी की तैयारियां पहले से करना शुरू कर देते थे. बाजार में भी फेस्टिवल को लेकर साजो सामान स्टॉक कर लिया जाता था. मैंने एक दुकानदार से बात की, उसका कहना था कि सर पिछले कुछ सालों से क्रिसमस पर माहौल फीका है. लोगों में क्रेज नहीं है. दिसंबर आते ही शहरों में झिलमिलाती लाइटें, सजे हुए पेड़, लाल-सफेद कपड़े पहने सैंटा क्लॉज़ दिखने लगते । मगर इस बार कुछ अलग दिख रहा है — बाज़ार थोड़े सुस्त हैं, दुकानदार पुराना स्टॉक बेचने में लगे हैं, और खरीदारों की भीड़ जैसे गायब सी है। सवाल उठता है — आखिर ऐसा क्यों?
मैंने दुकानदार से पुछा ऐसा क्यों हो रहा है ? पहले तो उसने कहा, पता नहीं. फिर थोडा खुलने पर बताया कि सर मोबाइल इन्टरनेट कैम्पेन से फर्क आ रहा है. लोग अब इस त्यौहार को ‘विदेशी’ कह रहे हैं. दूकानदार का कहना था कि लोगो में भारतीय त्योहारों को मनाने को लेकर शायद लोग ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. इसलिए बाजार वाले भी इस बात को समझ रहे और थोडा सामान ही रख रहे है. दुकानदार ने बताया कि दिल्ली के सबसे बड़े थोक बाजार सदर बाजार में भी माहौल फीका है. वहां के दुकानदारों ने पुराना स्टॉक ही निकाल रखा है. अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता जैसे मुद्दों पर बात हो रही है. सरकार की तरफ से गीता जयंती मनाई गई. उसे लेकर भी सोशल मीडिया पर कई पोस्ट वायरल हुए जैसे ‘क्रिसमस नहीं गीता जयंती मनाओ ‘
सोशल मीडिया अभियान में कहा जा रहा है कि “हैलोवीन, क्रिसमस, वैलेंटाइन्स डे” जैसे पश्चिमी उत्सव हमारी सामाजिक संरचना को बदल रहे हैं — बच्चे अब दीपावली से ज़्यादा सैंटा क्लॉज़ को जानते हैं, होली से ज़्यादा हैलोवीन पार्टी की बातें करते हैं। इस बदलाव को रोकने के लिए “अपने त्योहार, अपनी संस्कृति” को बढ़ावा देने की मुहिम चल रही हैं।
कुछ लोगों से बात की थी तो उनका कहना था कि टीवी चैनलों, अख़बारों और ऑनलाइन पोर्टलों में अब क्रिसमस पर उतनी कवरेज नहीं दिखती जितनी कभी हुआ करती थी। जहाँ पहले “क्रिसमस सेल” या “सैंटा परेड” जैसी रिपोर्टें आम थीं, वहाँ अब “गौरवशाली हिंदू संस्कृति” या “गीता जयंती पर्व” पर केंद्रित कार्यक्रम बढ़ गए हैं। ये एक बदलता ट्रेंड है.








