यहाँ पर आपके अनुरोध अनुसार YouTube वीडियो (https://youtu.be/pf7UOGWuUcE) के“श्री कृष्ण जी ने अर्जुन जी को सन्यास के लिए मना करते हुए युद्ध करने के लिए क्यों कहा?” विषय पर पूज्य श्री हिट प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के बिंदुवार और शब्दशः, विस्तार से हिंदी लेख तैयार किया गया है:
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को सन्यास के लिए मना करते हुए युद्ध क्यों करने के लिए कहा? (पूज्य प्रेमानंद जी महाराज के प्रवचन से सारांश और मूलवचन)
1. युद्ध से पूर्व अर्जुन का शंका एवं श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन
- अर्जुन युद्ध से पहले सन्यास लेना चाहते थे, परन्तु श्री कृष्ण ने उन्हें युद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
- श्रीकृष्ण जी का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन कर्मभूमि है, यहाँ संघर्ष, परिश्रम एवं अपने कर्तव्य का निर्वाह करना अत्यावश्यक है।
- सन्यास, अर्थात सिर्फ एक ओर ध्यान लगाना, किसी जिम्मेदारी से भागना, प्रत्येक समय उचित नहीं है।
2. स्वधर्म का पालन सर्वश्रेष्ठ
- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने निज धर्म का पालन करने को कहा। निज धर्म का अर्थ, प्रत्येक मनुष्य की अपनी स्थिति, दायित्व और समाज में उसकी भूमिका।
- “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः”— व्यक्ति का खुद का धर्म (कर्तव्य) पालन, भले ही छोटा या सामान्य क्यों न लगे, वही उसके लिए उत्तम है।
बिंदुवार स्पष्ट उदाहरण:
- अर्जुन का उस समय छात्रधर्म, क्षत्रियधर्म के अंतर्गत युद्ध करना ही था।
- सन्यास – यानी सब छोड़ जगत से वैराग्य; लेकिन जब तक अपने स्वधर्म का कार्य बाकी है, तब तक सन्यास श्रेष्ठ नहीं।
- केवल जब स्वधर्म पूर्ण हो जाए, तभी सन्यास ले सकते हैं।
3. कर्तव्य के साथ भगवान-स्मरण
- श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन से कहा— “सर्वदा सर्वकालेषु माम् स्मर युद्ध च” – हर समय मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो।
- भाव यह हुआ कि अपने हर कर्म को ईश्वरार्पण भावना से करो।
- डॉक्टर हो, व्यापारी हो, मास्टर हो, मजदूर हो—जो भी कार्य मिला है, उसे ईश्वर के नाम स्मरण, भक्ति भाव एवं सत्यनिष्ठा से करो।
उदाहरण:
- श्री रैदास जी का प्रसंग: वे गृहस्थी थे, फिर भी अपने कार्य को ही पूजा समझते थे। उनकी निष्ठा और ईमानदारी के कारण गंगा जी भी उनके लिए आदर भाव दिखाती हैं।
- कर्म में ईमानदारी और भगवान के नाम स्मरण—यही पूजा है।
4. सफलता का रहस्य: कर्म में धर्म और भक्ति का समावेश
- श्रीकृष्ण बताते हैं कि सिर्फ कर्म करना पर्याप्त नहीं, कर्म में धर्म भाव, पुण्यभावना और भक्ति-भावना ज़रूरी है।
- हम कर्म तो करते हैं, पर धर्मपूर्वक और नाम जप के साथ नहीं करते, इसी कारण सिद्धि (सफलता, मन की शांति) नहीं मिलती।
- साधारण जीवन भी “भजनमय” बन सकता है, अगर उसमें भक्ति, सत्य, और निष्ठा हो।
बिंदु:
- कर्म में बेईमानी न हो
- भगवान का स्मरण करते हुए अपने दायित्व निभाएँ
- दो कमियाँ न रखें: (1) धर्मपूर्वक कर्म न करना (2) नामजप करते हुए कर्म न करना
5. प्रभु दासत्व और दीनता (Humility) की आवश्यकता
- महाराज जी समझाते हैं कि स्वामी (ईश्वर) के दासत्व का गर्व सर्वोत्तम है, संसार के दूसरे सारे अभिमान, पद, धन, वैभव का केवल निमित्तमात्र सदुपयोग ही करें।
- भक्त का कार्य है—दास बने रहना, सेवा भाव रखना। केवल धन का स्वामी बनना, अहंकार को बढावा देना—ये आपको सांसारिकता में बाँध देगा।
- महाराज जी दासत्व का उदाहरण देते हैं, “दासत्व का गर्व रहे, तो सारे अन्य गर्व समा जाते हैं।”
संस्मरण:
- चक्रवर्ती सम्राट अम्बरीश की कथा: अनंत वैभव होते हुए भी भगवान के चरणों का दासत्व ही सर्वोच्च समझा।
6. युद्ध या जीवन का संघर्ष क्यों आवश्यक?
- संघर्ष या कठिनाइयों से भागना मनुष्य का धर्म नहीं। जो भगोड़ापन लाता है, वो सन्यास का वास्तविक अर्थ नहीं।
- अपने कार्यक्षेत्र, कर्तव्य व समस्याओं से पलायन न करें, बल्कि “भगवत-स्मरण” के साथ उन्हें अखंडता, धैर्य, और भक्ति से निभाएँ।
महत्व:
- पलायन की मानसिकता त्यागें।
- संघर्षों और जीवन की चुनौतियों को भगवान का प्रसाद मान कर स्वीकारें।
7. भगवत-प्राप्ति का यही है सीधा रास्ता
- भगवान को पाना है तो अपना कर्तव्य निभाएँ… पूजा, अगरबत्ती, धूप बत्ती या दिखावे की जरूरत नहीं—सच्चाई, आस्था और समर्पण से किया प्रत्येक कार्य भी भगवत-प्राप्ति में सहायक है।
- हर कर्म को पूजा मानकर करें, कर्म ही भक्ति बन जायेगा।
अधिक विस्तार के लिए (शब्दशः वचनांश):
- “भगवान ने अर्जुन को कहा—सन्यास लेने की आवश्यकता नहीं। इस समय युद्ध धर्म की आवश्यकता है… मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो। यही तुम्हारे लिए परम धर्म है।”
- “अगर भगवान का नाम जप करते हुए कर्म करोगे—देखो सफलता, तृप्ति और प्रसन्नता निश्चित है।”
- “हमारा बल प्रभु है… हमारा बल, बल स्वयं का कोई नहीं।”
- “अगर हम प्रभु के दासत्व में है, तो अनंत ब्रह्मांडों के स्वामी के हम दास हैं—इस गर्व से ही सारे दुसरे गर्व स्वयं मिट जाते हैं।”
निचोड़:
कर्म, धर्म और भक्ति का समावेश ही मोक्ष, भगवत-प्राप्ति एवं जीवन की सफलता का सूत्र है। सन्यास या पलायन नहीं, बल्कि दायित्व का पालन, संघर्ष और भक्ति-स्मरण का संतुलन आवश्यक है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही सिखाया—”युद्ध करो, लेकिन भगवान के स्मरण में रहकर, अपनी जिम्मेदारी और धर्म को न भूलकर।”
यह लेख पूज्य प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के प्रवचन को ध्यानपूर्वक, शब्दशः एवं सूत्रगत तरीके से प्रस्तुत करता है,.






