प्रश्न – ननद (लड़की) और भौजाई (बहू) आपसमें लड़ें तो माता-पिताको क्या करना चाहिये ?

प्रश्न – ननद (लड़की) और भौजाई (बहू) आपसमें लड़ें तो माता-पिताको क्या करना चाहिये ?

उत्तर-माँ लड़कीको समझाये कि ‘देखो बेटी! यह (भौजाई) तो आजकलकी छोरी है। यह कुछ भी कह दे, तुम बड़ी समझकर इसका आदर करो। यह घरकी मालकिन है; अतः तुम मेरेसे भी बढ़कर विशेषतासे इसका आदर करो। मेरा आदर कम करोगी तो मैं जल्दी नाराज नहीं होऊँगी; क्योंकि मेरी कन्या होनेके नाते मेरे साथ तुम्हारी ममता है।’

भौजाईको चाहिये कि वह ननदका ज्यादा आदर करे; क्योंकि वह अतिथिकी तरह आयी है। वह ननदके बच्चोंको अपने बच्चोंसे भी ज्यादा प्यार करे*। बच्चे राजी होनेसे उनकी माँ भी राजी हो जाती है-यह सिद्धान्त है। इस तरह ननदको राजी रखना चाहिये। दूसरोंको राजी रखना अपने कल्याणमें कारण है।

बेटीमें मोह होनेके कारण माँ बेटीको कुछ देना चाहे तो बेटीको नहीं लेना चाहिये। बेटीको माँसे कहना चाहिये कि ‘मेरी भौजाई देगी, तभी मैं लूँगी। अगर तू देगी तो भौजाईको बुरा लगेगा और वह आपसे लड़ेगी तो मैं कलह कराने यहाँ थोड़े ही आयी हूँ! माँ! तेरेसे लूँगी तो थोड़े ही दिन मिलेगा, पर भौजाईके हाथसे लूँगी तो बहुत दिनतक मिलता रहेगा। अतः त्यागदृष्टिसे, व्यवहारदृष्टिसे और स्वार्थदृष्टिसे भौजाईके हाथसे लेना ही अच्छा है।’

* बहूको एक नम्बरमें (सबसे अधिक) ननदके बच्चोंको लाड़-प्यार करना चाहिये। ऐसे ही दूसरे नम्बरमें देवरानीके बच्चोंको, तीसरे नम्बरमें जेठानीके बच्चोंको, चौथे नम्बरमें सासके बच्चोंको और पाँचवें नम्बरमें अपने बच्चोंको लाड़-प्यार करना चाहिये

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।

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