नवधा भक्ति [8]
सख्य
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु । बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ॥
‘भद्र कहाँ है?’
‘कहीं कोनेमें छिपा होगा।’
‘गैयाँ घेरने गया है!’
‘उसका छींका तो उठा लाओ !’
‘जाने भी दो, क्या रखा है उसमें!’
‘ब्राह्मणको तो लड्डू ही भाते हैं। अभी श्रीदामका छींका उठाना होता तो दौड़े चले जाते !’
‘उसके लड्डू जैसे आप कभी छूते ही नहीं!’
देखा कि मधुमंगलसे काम नहीं चलता तो आप ही उठ खड़े हुए। सबसे दूर माधवी-कुंजमें लताओंके पीछे छिपाकर एक मैला-सा छींका टँगा था। वह इस प्रकार रखा था कि सहसा दीख नहीं पड़ता था।
‘कभी अपना कलेऊ नहीं खिलाता हमें!’ मन-ही-मन गुनगुनाये आप। ‘आज सब-का-सब अकेले ही न खा जाऊँ तो मेरा नाम ।’ छींका उतारकर गुपचुप उसी कुंजमें बैठ गये। उधर सखा जल पीने कालिन्दी-किनारे चले गये थे।
उसकी चारों गायें साथ ही बिसुक चुकी हैं। माँ किसीसे कुछ माँगनेमें अपमान अनुभव करती हैं। ‘अहीर भीख नहीं माँगते!’ घरमें गोरस है ही नहीं। व्रजमें उसीका घर सबसे अधिक दीन है। इतनेपर भी माखनचोर तीसरे-चौथे घरमें घुसकर उसके मिट्टी के बर्तन फोड़ आता है।
क्या उसकी इच्छा नहीं होती कि सखाओंकी मण्डलीमें अपना छाँका लेकर बैठे? अपने हाथसे मोहनको खिलाये और उसके हाथसे खाये ? किंतु वह सदा किसी एकान्त कुंजमें ही कलेऊके समय बैठता है। कैसे ये चनेकी बासी रोटियाँ सखाओंके सामने केवल नमक रखकर बोलेगा और कैसे उसे श्यामसुन्दरके मुखमें देगा। कहीं दूर बैठता है और चुपचाप कलेऊ कर लेता है। जल्दी-जल्दी समाप्त करके सखाओंकी उस समयकी क्रीड़ा देखा करता है कहींसे छिपकर । क्या-क्या सोचता है-कैसे कहा जाय।
उसका छींका यों भी कोई छूता नहीं। सब जानते हैं कि भद्र बहुत शीघ्र रो पड़ता है। फिर भी वह रखता उसे छिपाकर ही है। उसे ही प्रायः गायें घेरनी पड़ती हैं। सबसे दीन-दुर्बल होनेके कारण सब उसीको भगाया करते हैं। सीधे-सादे लड़के समवयस्कोंमें अधिक सताये जाते हैं। उसीको सब चिढ़ाते हैं।
वह नटखट ही सबसे बड़ी आफत है। वह उसे चिढ़ानेका कोई-न-कोई उपाय ढूँढ़ता ही रहता है। अच्छे हैं दाऊ भैया, वे न डाँटें तो पता नहीं ये सब उसे कितना सतायें। उन्हींकी कृपासे दिनमें दो-चार बार गायें घेरनेसे भी वह छुट्टी पा जाता है। वही क्या, सभी उन्हें मानते हैं। उन्हींसे कुछ गोपाल भी दबता है।
गायें बहुत दूर निकल गयी थीं। एकको हाँको तो दूसरी और दूसरीकी ओर जाओ तो तीसरी। बहुत झल्लाया वह। बड़ी कठिनतासे घेर पाया। समीप आते ही उसका हृदय धक्से हो गया। कदम्बके नीचे सखाओंका मण्डल बैठ चुका है और वे कन्हैयाको कलेऊके लिये पुकार रहे हैं। ‘क्या कोई असुर फिर उसे ले गया?’ झपटा वह उसी ओर।
पैर ठिठक गये। वह खड़ा खड़ा देखने लगा। जिस कुंजमें वह अपना छींका छिपा गया था, उसीमेंसे पीताम्बरका तनिक-सा छोर झलक गया था। उस लताओंके झरमुटमें दवकि आसनपर स्थिर विद्युत्-परिवेष्टित वह नवदूर्वादलश्याम बैठा था। छींका सामने पड़ा था- खुला हुआ। रोटीका एक टुकड़ा ही शेष था और नमक सम्भवतः समाप्त हो चुका था। आप आनन्दसे भोजन कर रहे थे या केलेके छिलके खानेके लिये अभ्यास कर रहे थे, वही जानें।
वह देखता रहा। साहस नहीं हुआ कि पुकारें। ‘अरे, चनेकी रोटी उसे हानि करे तो ?’ वह चौंका। ‘कनूँ !’ उसने पुकारा और घुस गया। क्या होता है ? बचा हुआ सारे-का-सारा टुकड़ा उसने मुँहमें ठूंस लिया और अँगूठा दिखाते हुए भाग खड़ा हुआ। देखनेयोग्य थी वह छटा। टुकड़ा बहुत बड़ा था। मुख चला भी नहीं पाता था और थूकना भी नहीं चाहता था। भद्र तो वह फूला मुख देखकर पेट पकड़कर हँसते-हँसते उन्हीं दूबोंपर लोटपोट होने लगा।
‘मैं तो उसकी दोनों रोटियाँ खा आया।’ हँसते-हँसते नटनागरने सखाओंसे कहा। ‘अब नहीं करता कलेऊ !’ सबके मुख उतर गये। उसके बिना आनन्द क्या आयेगा।
‘वह बेचारा भूखा रह जायगा !’ बड़े भैयाने गम्भीरतासे कहा। ‘पकड़ लाओ उसे !’ किसीके कुछ कहनेसे पहले कन्हैया ही दौड़ा। भैयाकी आज्ञा तो वह मानता ही है। उसके पीछे तो मण्डली ही भागी चली गयी।
वह अभी हँस ही रहा था। उस मुखकी-फूले कपोलोंवाले मुखकी याद ही नहीं भूलती थी, पकड़ लिया गया। उसकी एक भी चली नहीं। ले जाकर बड़े भैयाके समीप उसे बैठाकर दूसरी ओर वही रोटी-उड़ाऊ बैठ गया। एक बड़ा-सा लड्डू श्रीदामके छींके से निकालकर उसने उसके मुखमें ठूंस दिया हँसाकर। फिर सब उसे हँसानेका प्रयत्न करने लगे।
श्रीदामके छींकेका लड्डू वह जानता है कि बिहारीलाल उसे किसीको सरलतासे नहीं मिलने देते! श्रीदाम भी एक-दोमें ही रह जाता है। वह तो उनका प्यारा कलेवा है। उस दिन पता नहीं कितना मक्खन श्यामने अपने छींकेसे मैयाके हाथका मथा और पता नहीं कितने लड्डू श्रीदामके छींकेसे किसी बहुत ही कोमल सुकुमार करोंके सजाये खिला दिये! वह तो इतना ही जानता है कि पेट बुरी तरह उस गया।
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(२)
‘भद्र ! मेरी गैयाँ दूर चली गयी हैं।’
‘किसी दूसरेको भेज दो! मुझे तो इतना खिला दिया है कि उठा नहीं जाता!’ उस भोले बालकने सच ही तो कहा था।
‘कोई जाता नहीं, सब खेलमें लगे हैं!’ पीताम्बरसे मुख दबाकर हँसी रोक ली गयी थी। बेचारा भद्र घासपर लेटा था। उसे आज इन सबोंने इतना खिलाया है कि पेटमें श्वास लेनेको ठिकाना नहीं है। आप उसके पीछे खड़े हैं।
‘मुझसे तो चला जायगा नहीं!’ भद्र अप्रसन्न भी है। ‘क्यों उसकी यह दुर्दशा की सबोंने मिलकर ?’ दोष उसका भी है-उतना नहीं! मैयाके हाथका मक्खन और ‘वे’ लड्डू, सभी तो लालायित रहते हैं! कन्हैया मुखमें हँसाकर डाल दें तो क्या थूका जा सकता है? वह निरपराध ही है तब।
‘दाऊ मुझे डाँटेंगे!’ उस ढोंगीने स्वर बनाकर कहा। ‘तब तुम्हीं क्यों नहीं जाते !’ भद्र झल्ला उठा था।
‘अच्छा!’ वह चला तो गया, पर भद्रने समझा कि अभी खड़ा ही है। एक क्षण, दो क्षण कुछ क्षण बीत गये। पीछेसे कोई बोला नहीं।
‘मैं जरा देरमें जाता हूँ और घेर लाता हूँ!’ उसका मान मौनने भंग कर दिया। बड़े स्निग्ध स्वरमें उसने कहा- ‘गैयाँ जा कहाँ सकती हैं!’ करवट बदलकर उसने पीछेकी ओर खड़े सम्भवतः रूठे हुए अपने सखाको समझाना चाहा।
‘हैं, चला गया वह ?’ वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। ‘श्यामसयुन्दर !’ बड़े जोरसे-पूरी शक्तिसे पुकारते हुए उसने लठिया उठायी और खड़े होकर चारों ओर देखने लगा। उसे न तो उत्तर मिला और न कहीं उसका अभीष्ट दृष्टिगत हुआ।
‘वह तो सखाओंके संग भी नहीं है!’ अपने आप ही बड़बड़ाया। ‘इतनी कड़ी धूप है, पृथ्वी तवे-सी तप रही है, उसके कोमल चरण।’ सिरपर हाथ दे मारा उसने।
‘इधर काँटे भी खूब हैं। जाते कहाँ, इस कंकड़ और कुशोंसे भरे वनमें, आज आ गये हैं!’ वह दौड़ते-दौड़ते कह रहा था ‘गायें कुछ सरलतासे घिर जाती हैं ? हाय, कहीं ठोकर लगी तो ?’ वह पूरी शक्तिसे दौड़ रहा था।
‘आज उसे भी क्या सूझी है और कभी तो इस प्रकार नहीं भागता था गायें घेरने ! पता नहीं कितनी दूर निकल गयीं सब ! बड़ी उद्धत हैं, अभी तो यहीं छोड़ा था!’ उसे गायोंपर, इधर आनेवाले सखाओंपर, इस कंकड़-कण्टकसे भरी भूमिपर, सूर्यपर और अपने आपपर भी रोष आ रहा था। कहीं उसके सखाके लाल-लाल तलवोंमें छाले पड़ गये, कोई कुश-कण्टक या कंकड़ लग गया ! क्या होगा फिर ? पेट भरा है। बोल रहा है। कष्ट हो रहा है दौड़ते समय। पृथ्वीमें उसे भी ठोकरें
लग सकती हैं और काटे चुभ सकते हैं। चुप रहिये। यह व्यर्थकी बातें सोचनेका उसे अवकाश नहीं।
‘श्यामसुन्दर !’ वह बड़े जोर-जोरसे बार-बार पुकारता जा रहा था। ‘वह दीखा पीताम्बर! वह रहा मोरमुकुट ! वे पत्ते खड़के !’ पीले पुष्प, डालीपर बैठे मयूरकी पूँछ और ओटमें कूदते हुए कपियोंकी आहटने उसे बार-बार प्रलुब्ध किया।
‘वही तो है! सुनकर भी उसने मुख क्यों फेर लिया?’ गायें इधर-उधर भाग रही थीं और वह एक-एकको घेरने, इधर-से-उधर दौड़ रहा था। भद्रकी पुकार उसने बहुत दूरसे सुन ली थी। जान-बूझकर ही उसने उत्तर नहीं दिया था। सम्भवतः कुछ रूठ-सा गया था। यों सखाओंसे वह रूठता कम ही है।
पेट भरा था। धूप तीव्र थी! पूरी शक्तिसे वह दौड़ा आ रहा था। इतनेमें ठोकर लग गयी किसी पेड़की जड़से। धड़ामसे गिर पड़ा मुँहके बल। मूर्छित हो गया।
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(३)
पीताम्बर बार-बार हवा कर रहा था। उसने नेत्र खोले। उसका सखा एकटक उसीकी ओर देख रहा था, उसके मस्तकको अपनी गोदमें लिये हुए। एक तमालकी छायामें कोमल दूबोंपर वह लेटा था।
‘कैसा जी है, भद्र !’ बड़े मधुर स्वर पड़ें कानोंमें। ‘अच्छा तो हूँ!’ वह झटकेसे उठ बैठा। प्रश्नने सारी घटना स्मरण करा दी। लपककर सखाके दोनों पैर खींचकर गोदमें रख लिये और बड़े ध्यानसे उनके तलवे देखने लगा।
‘तुम्हें कोई काँटा तो नहीं लगा?’ बड़े सशंकित स्वरमें उसने पूछा।
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‘नहीं तो।’ हँसते हुए सखाने हृदय शीतल कर दिया।
‘भद्र। मैं आज बहुत सन्तुष्ट हैं ।’ सम्भवतः ऐश्वर्य स्मरण हो आया था। ‘तुम कुछ माँग लो- कुछ भी जो तुम्हें अच्छा लगे।’ वरदान दे रहे थे वरदाता।
‘क्या माँग लूँ !’ भद्रने सखाके मुखको गम्भीरतासे देखा और हँस पड़ा। उसे यह सब बड़ा ऊटपटाँग लग रहा था।
‘गायें, धन, राज्य, देवत्व, इन्द्रका पद !’ उस सखाने गम्भीरतासे कहा। ‘सिद्धियाँ, ब्रह्मलोक या मुक्ति ! जो तुम चाहो !’ उपहासकी कोई रेखा मुखपर थी नहीं।
भद्र कुछ नहीं बोला। वह चुपचाप सखाका मुख देखता रहा। ‘कन्हैयाको आज क्या हो गया है ?! ऐसी उलटी-पलटी बातें तो वह कभी नहीं करता था! उसकी छोटी-सी बुद्धिमें कुछ आता नहीं था।’
‘माँगो, भद्र !’ उसने फिर आग्रह किया।
‘आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है कनूँ! तू तो इतना गप्पी कभी था नहीं!’ उसने हँसते-हँसते कह ही दिया।
‘ओह, तुम इसे उपहास समझते हो ?’ भूल अब ज्ञात हुई थी। ‘अच्छा देखकर पसन्द कर लो ! तब माँगना!’ दृष्टि आकाशकी ओर उठायी उसने।
‘यह सब क्या है?’ भद्र चौंका। योगमाया अपना काम कर रही थीं। दृश्य बदलते जा रहे थे। वह मूक, स्तब्ध वह सब देख रहा था। उसका सखा सामने खड़ा मन्द मन्द मुसकरा रहा था। पता नहीं कबतक वह जाने क्या-क्या देखता रहा। अन्तमें जब वह सावधान हुआ, उसने अपनेको उसी तमालके नीचे पाया। सखा हँस रहा था।
‘मैंने बड़े सुन्दर स्वप्न देखे हैं कनूँ !’ उसने सखासे बड़ी
सरलतासे कहा।
कहा। ‘तुम उनमेंसे कुछ चाहते भी हो ? ‘तुम्हें मिल सकता है !’ सखाने
‘सच?’ वह हर्षसे बोला।
‘सचमुच ही तुम जो कुछ चाहोगे, मिलेगा !’ सखाका स्वर कह रहा था कि वह उपहास नहीं कर रहा है।
‘तुम्हारा वह सिंहासन तो बहुत सुन्दर था और तुम्हारे पास रत्न भी बहुत थे! हाथ जोड़े खड़े रहनेवालोंको मैं गिन ही नहीं सकता था!’ भद्रने आश्चर्यसे कहा। ‘एकको तुमने सिद्धियाँ दे दीं ! वह तो पूरा राक्षस हो गया ! कभी उड़ा-उड़ा फिरता, कभी पहाड़ हो जाता और कभी मच्छर-जैसा छोटा ! कभी तो वह दिखलायी ही नहीं पड़ता था! ऐसे तो राक्षस ही होते हैं। मुझे राक्षस नहीं बनना है!’ सिद्धियोंका उसने यही अर्थ समझा।
‘एकको तुमने बड़ा भारी राजा तो क्या बनाया, पूरी विपत्तिमें डाल दिया !’ उसके स्वरमें कुछ रोष था। ‘बेचारा दो रोटी भी सुखसे नहीं खा पाता था। कभी सेना बढ़ानी है, कभी हथियार अधिक बनवाने हैं और कभी खजाना खाली हो रहा है-उसे भरना है। कोई भी उसे भला नहीं कहता था। सभी गालियाँ देते थे। किसीके लड़केको उसने जेल दे दिया और किसीके भाईको फाँसी। रात-दिन उसे शाप ही मिलते हैं।’ वह समझ गया था कि राजाके चमकीले वस्त्र और सोनेके मुकुटसे तो यह फटी लंगोटी और कमरिया ही भली। सबकी गालियाँ कौन सुने।
‘इन्द्र बननेपर वह फूला नहीं समाया था!’ वह हँसते-हँसते कह रहा था। ‘जब दैत्योंने धावा किया तो हेकड़ी हवा हो गयी ! सब अमृत पसीनेसे निकल गया। पहाड़ोंकी कन्दराओंमें घर-द्वार छोड़कर मारे-मारे फिरता रहा। उससे तो हमीं भले हैं, जो कोई दैत्य आता है तो उसका कचूमर निकालनेको तू पास तो रहता है।’ सचमुच भैया ! तुम-सा भला कोई त्रिभुवनमें नहीं हुआ। होगा भी कोई आशा नहीं।
‘मेरे घर इतना आटा कहाँसे आयेगा!’ उसने दोनों हाथ फैलाकर बताया, ‘जो मैं अपने चार, पाँच या छः मुख बनवा लूँ। फिर माँ कहती है कि बैलपर बैठना पाप है और मोर भी नाचते ही भला लगता है। उस दुर्बलपर कौन बैठे ! दिन-रात बिना सिर उठाये खिलौने गढ़ना मेरे बसका नहीं!’ सखा हैरान था कि इस अहीरके नन्हे बालकको अन्ततः कुछ पसन्द है भी या नहीं।
‘उहँ, ये सब व्यर्थकी बातें है!’ उसने कहा- स्वप्न तो स्वप्न ही है। बड़ा सुन्दर स्वप्न था पर ! उसे कोई कैसे विश्वास दिलाये कि वह स्वप्न नहीं था, सत्य था और उसके सखाने कृपा करके उसे दिखाया था। वह योगमायापति भी तो उसे विश्वास दिलानेका मार्ग नहीं पा रहा था। विश्वास दिला देनेसे भी लाभ ? उसने तो अपनी समालोचनामें सबको दो कौड़ीका ठहरा दिया था।
‘तू कुछ देनेको कह रहा था न कनूँ !’ सहसा उसने इस प्रकार पूछा, मानो कोई भूली हुई बात स्मरण हो आयी हो।
‘वही तो पूछ रहा हूँ?’ सखाने उल्लसित होकर पूछा। ‘क्या चाहिये तुम्हें ? माँगो भी तो।’
‘तो देगा तू ! अवश्य देगा?’ उसने फिर पूछा।
‘अवश्य ! अवश्य !’ स्वरमें उल्लास था। ‘भैया ! तू जल्दीसे माँग ले! देर हो रही है! सखा ढूँढ़ रहे होंगे मुझे। स्नेहसे उसके सिरपर सखाने हाथ रखा।’
‘फिर ‘ना’ तो नहीं कर जायगा ?’ उसे विश्वास तो था, पर सोचता था कि इस नटखटका ठिकाना भी क्या।
‘कभी नहीं! तेरी शपथ !!’ सखाओंकी शपथ वह कभी नहीं करता। यदि कभी कर ही ले – तो वह वज्रकी रेखासे अधिक अमिट है। भद्र इसे भलीभांति जानता है।
‘तो तू अब कभी अपने इन कोमल चरणोंसे वनमें गैया घेरने भागना मत!’ चरणोंके समीप बैठकर उसने उनको छूते-छूते कहा। ‘चाहे मैं कितना ही रूठ जाऊँ, तु गैया घेरने नहीं जायगा-बोल!’ उसने अपने दोनों नेत्र भर लिये थे।
उस सदा प्रसन्नके कमलदलायत लोचन भी भर आये थे। दोनों हाथोंसे उसने चाहा कि सखाको उठाकर हृदयसे लगा ले, पर यह तभी शक्य हो सका, जब उसने बड़ी कठिनतासे भरे हुए कण्ठसे कह दिया-‘अच्छा !’
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