७९-जब भगवत्प्रेम जाग्रत् होता है, तब मालूम पड़ता है-ओह! मेरी कितनी मूर्खता थी, भ्रमसे मैं वहाँ उन विषयोंमें सुख ढूँढ़ता था जहाँ सुखका लेश भी नहीं है।
८०-प्रेम उत्पन्न होते ही भगवच्चरणोंसे मनुष्य दृढ़तासे, कभी अलग नहीं होनेके लिये चिपट जाता है।
८१-भगवत्प्रेमका आनन्द इतना महान् है कि उसकी कोई तुलना नहीं। स्वर्गीय अमृतसे इसकी क्या तुलना होगी ?
८२-प्रेमानन्दके सामने सभी आनन्द तुच्छ हो जाते हैं, पर प्रेमानन्दके उदय होनेपर ही ऐसी दशा होती है।
८३-जबतक हम विषयोंके मोहमें पड़कर अन्धे हो रहे हैं, तबतक भगवत्प्रेमका उदय होना सम्भव नहीं है।
८४-सत्यको ग्रहण करना चाहिये, जगत् कुछ भी क्यों न कहे।
८५-जो सत्य है, वह सत्य ही रहेगा। जगत्के न माननेसे सत्य मिटता नहीं।
८६-यदि हम बहुमतसे पास कर दें कि सूर्य कोई वस्तु नहीं तो क्या सूर्य हमारे ऐसा पास कर देनेसे नहीं रहेंगे? रहेंगे ही। इसी प्रकार सत्यवस्तु भगवान् तो किसीके न माननेपर भी रहेंगे ही।
८७-भगवान्की प्राप्ति ही मनुष्य जीवनका चरम और परम उद्देश्य है।
८८-जो भगवान्में मन लगाता है वही बुद्धिमान् है।
८९-ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥
पारसको छोड़कर घुँघची लेनेवाला जीवित रह जाता है, पर वह तो इससे भी अधिक मूर्ख है कि जो अमृत छोड़कर जहर लेता है। विषयोंमें मन लगाना तो अमृत छोड़कर जहर ही लेना है।
९०-विषयरूप जहर लेकर अमर होना चाहे, यह कितनी
मूर्खता है।