भगवान् के गुणों का, लीलाओं का, उनके चरित्रों का अध्ययन मनन कीजिये और नाम का जप कीजिये, भगवान्‌ की चाह अपने-आप बढ़ती जायगी। (EN)

८८. भगवान् के गुणोंका, लीलाओं का, उनके चरित्रोंका अध्ययन मनन कीजिये और नामका जप कीजिये, भगवान्‌की चाह अपने-आप बढ़ती जायगी

८९-गोपियोंकी आँखोंके सामने जो भी आवे, वह श्यामसुन्दर ही आवे! गोपियोंकी आँखोंमें श्रीकृष्णका ही प्रतिबिम्ब पड़ता है।

९०-साधनासे पहले मन बदलता है, फिर आँखें और फिर तमाम वस्तुओंमें वस्तुओंका दीखना बन्द हो जाता है और उनकी जगह भगवान् दीखने लगते हैं।

९१-जिस समय कोई युगावतार होता है, उस समय उसीके साथ-साथ जगत्में कुछ विलक्षण विभूतियाँ भी अवतीर्ण हुआ करती हैं, जो भस्मसे ढकी हुई अग्निकी तरह स्थान-स्थानपर छिपी रहती हैं; परन्तु समयपर अवतारी पुरुषका संकेत मिलते ही प्रकाशमें आकर अपना पावन कार्य करने लगती हैं।

९२-जबतक मनुष्यका (धन, जन और पद-मर्यादा आदि)

विषय-बलपर भरोसा रहता है, तबतक उसे भक्तिकी प्राप्ति नहीं होती; परन्तु जब वह संसारके समस्त विषयोंका बल छोड़कर एक भगवान्‌के प्रबल बलपर भरोसा कर लेता है, तब सफलता तत्काल ही उसके सामने आकर खड़ी हो जाती है।

९३-जबतक संसारका मायामय घर अपना घर मालूम होता है, तबतक असली घर दूर रहता है।

९४-जब मनुष्य अपने सारे छल-कपटको छोड़कर अत्यन्त दीन भावसे उन दीनबन्धु पतितपावन परमात्माकी शरण लेना चाहता है, तभी भगवान् हाथ बढ़ाकर उसे अपनी छातीसे लगा लेते हैं और सारे पापोंसे छुड़ाकर उसे सदाके लिये अभय कर देते हैं। काल्पनिक अनुताप, कृत्रिम दौनता या दम्भपूर्ण स्तुतिसे भगवान् कदापि प्रसन्न नहीं होते। खूब जानते हैं कौन सच्चा है और कौन झूठा। भला अन्तर्यामीसे क्या छिपा है ?

९५-जहाँ भगवान्में, शास्त्रोंमें विश्वास हो गया, वहींसे पारमार्थिक लाभ प्रारम्भ हो गया

९६-भगवत्कृपाका अधिकारी वही है, जो किसी पूर्वजन्मके सत्कर्मके फलस्वरूप किसी संतका संग प्राप्त कर ले।

९७-भगवान्‌का या भगवान्‌के किसी भक्तका अपराध होनेपर जीवन्मुल भी भव-बन्धनमें आ सकते हैं। भक्तोंका यह स्वभाव है कि वे किसीका बन्धनमें डालना नहीं चाहते, पर भगवत्प्रेरणासे बन्धन हो जाता है।

९८-कालक्षेप वह है, जिसमें भगवान्की चर्चा हो; अन्यथा तो झगड़ा है।

९९-नित्यसिद्धा प्रेमकी प्रतिमूर्ति हैं- यशोदा मैया। यशोदा मैया नित्यजननी हैं श्रीकृष्णकी और श्रीकृष्ण नित्यपुत्र हैं यशोदाके। यशोदा मैया वात्सल्यप्रेमकी ही घनीभूत मूर्ति हैं; उनमें और चीज है ही नहीं।

प्रश्न – श्रीकृष्णको पुत्ररूपमें प्यार करना तो यशोदाका अज्ञान है। इस प्रेमसे जब ज्ञान प्राप्त होगा, तभी तो उन्हें भगवत्तत्त्वकी प्राप्ति होगी न?

उत्तर-जो ज्ञान भगवान्‌को अलग रखे, जो ज्ञान भगवान्‌को अगोचर बताकर उन्हें न देखने दे, जो ज्ञान भगवान्‌को न सुनने दे, न स्पर्श करने दे, वह ज्ञान अच्छा कि यशोदाका यह अज्ञान अच्छा, जिसने भगवान्‌को प्राकृत बालककी भाँति पकड़ रखा है? जगत् भगवान्के पीछे चलता है, पर भगवान् यशोदा मैयाके पीछे चलते हैं।

१००-भगवान् जिन वैरियोंको मारते हैं, उनको सुगति देते हैं। भगवान् कितने दयालु हैं- मारकर भी तारते हैं, तारनेके लिये ही मारते हैं।

१०१-भगवान्‌को पूर्णरूपसे अनुभव करना शुद्ध प्रेमी (रागात्मक) भक्तोंके लिये ही सम्भव है।

१०२-जीवका स्वरूप, जीवकी मुक्ति-प्राप्ति कभी किसीके प्रत्यक्ष नहीं होती-यह सिद्धान्त है; किन्तु यदि इस सिद्धान्तके अनुसार अदृश्य जीव-चैतन्य अदृश्य सच्चिदानन्दघनतत्त्वमें लीन हो जाय तो यह धारणा कैसे होगी कि श्रीकृष्ण साक्षात् ब्रह्मतत्त्व हैं, वे जीवोंकी चरमगति हैं। इसी बातको प्रकट करनेके लिये श्रीकृष्ण अपनेको मारनेके लिये आनेवाले शत्रुओंको भी प्रत्यक्षरूपसे अपनेमें लीन कर लेते हैं।

१०३- भगवान्की साक्षात् सेवा सहजमें प्राप्त नहीं होती, इसीलिये उनकी प्रतिमाकी पूजा होती है। उनकी अष्टविध किसी भी प्रतिमाको अर्चना करके भक्त सिद्धि प्राप्त करते हैं। सचमुच बाह्यसेवाको बड़ी आवश्यकता है। इससे बड़े-बड़े कार्य हो जाते हैं। श्रद्धायुक्त साक्षात् भगवान् मानकर जब प्रतिमाकी पूजा होती है, तब उससे भगवान्‌का बार-बार चिन्तन होता रहता है। जो बाहासेवाके उपकरण जुटानेमें असमर्थ हों तथा जिनका भगवान्में मन लगता हो, वे मानस-सेवा कर सकते हैं। पर जो समर्थ हों और जिनका मन न लगता हो, वे यदि बाहापूजा छोड़ दें तो वे अवश्य गिरेंगे। जो सम्पत्तिशाली भक्त हैं, उनको पूरे उपचारोंके साथ भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये। यह कल्याण-प्राप्तिका सीधा मार्ग है। जो अपने भोगोंके संचयमें तो खूब खर्च करते हैं, पर भगवान्‌के लिये वह सोच लेते हैं कि वे तो भावके भूखे हैं, वे ठीक नहीं करते। इसी प्रकार नौकरों आदिसे भगवान्‌की सेवा करवाना भी निकृष्ट है। ऐसा कराना न करानेसे अच्छा है, पर निम्न श्रेणीका है। गृहस्थके नित्य कर्तव्योंका मूल है- भगवत्सेवा। भगवान्‌की अर्चना धर्म-वृक्षका मूल है, अतः उनकी सेवा अवश्य करनी चाहिये।*

(* भक्त प्रह्लादने तो यहाँतक कहा है कि जिस घरमें भगवान्‌की प्रतिमा नहीं, वह श्मशानके समान है।)

१०४-कोई भी हो-जो भगवान्‌के निकट एवं सामने बैठना चाहे और जिसको ऐसा न होनेपर प्राणान्त दुःख हो, वह चाहे जहाँ रहे, जैसे रहे भगवान्‌का मुख उसके सामने है, भगवान् उसके अति निकट हैं। भगवान् अपने सेवाकांक्षी भक्तोंके सामने नित्य रहते हैं और उनके निकट रहते हैं।

१०५-भगवान् स्वयं ज्ञानस्वरूप होकर भी भक्तवत्सलतासे ज्ञानको छिपा लेते हैं। जिनकी इच्छासे, जिनके शासनसे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड संचालित होते हैं। वे ही भगवान् प्रेमी बालकोंके प्रेमसे बछड़ोंके लिये बेसुध हो जाते हैं। उनमें कुछ शक्ति भी है, इसका उनको पता न रहता। वे प्राकृत अज्ञ बालककी भाँति उनको ढूँढ़ने चल पड़ते हैं। उनकी यह लीला बड़ी चमत्कारपूर्ण है। वे सर्वाकर्षण एवं परमानन्दस्वरूप होकर भी बछड़ोंके प्रेमसे स्वयं आकृष्ट हो जाते हैं और उनको खोजनेके लिये

निकल पड़ते हैं। १०६-बड़े-बड़े श्रोत्रिय वेद-ऋचाओंके द्वारा भगवान्‌को नाना

प्रकारकी अमूल्य वस्तुएँ भोग लगाते हैं, तो भी भगवान् उनको प्रत्यक्षरूपमें स्वीकार नहीं करके परोक्षरूपमें ग्रहण करते हैं। पर वे ही सर्वयज्ञभोक्ता, यज्ञपुरुष भगवान् प्रेमाधीनतावश परम आग्रहके साथ सराह-सराहकर गोपबालकोंकी उच्छिष्ट – भुक्तावशिष्ट वस्तुओंको आनन्दपूर्वक माँग-माँगकर खाते हैं। असलमें यह जूठन नहीं। जूठन होती है तब जब खानेमें अपनी आसक्ति हो, पर गोपबालक तो श्रीकृष्णको खिलानेके लिये उन वस्तुओंको चखते हैं।

१०७-जो लोग भगवान्के सायुज्यको प्राप्त हो जाते हैं, वे स्वरूपको तो प्राप्त कर लेते हैं, पर उनमें जगत्के सृजन करने आदिको शक्ति नहीं आती।

१०८-वृक्षके मूलमें यदि जल सींच दिया जाय तो उसको डालियोंमें, पत्तोंमें अपने-आप जल पहुँच जाता है, डालियों, पत्तोंपर अलगसे जल छिड़कनेकी आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार श्रीकृष्णसे प्रेम करनेपर अनन्त जगत्‌की तृप्ति अपने-आप हो जाती है.

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