प्रश्न – गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है-
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
तज्यो पिता प्रह्लाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥
– प्रह्लादने पिता का, विभीषण ने भाई का, भरत ने माँका बलि ने गुरुका और गोपियों ने पतिका त्याग कर दिया, तो उनको दोष नहीं लगा ?
उत्तर-यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि उन्होंने पिता आदि का त्याग किस विषयमें, किस अंशमें किया ? हिरण्यकशिप प्रह्लादजीको बहुत कष्ट देता था, पर प्रह्लादजी उसको प्रसन्नतापूर्क सहते थे। वे इस बातको मानते थे कि यह शरीर पिताका है; अतः वे इस शरीरको चाहे जैसा रखें, इसपर उनका पूरा अधिकार है। इसीलिये उन्होंने पिताजीसे कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको कए क्यों दे रहे हैं? परन्तु मैं (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः मैं भगवान्की सेवामें, भजनमें लगा हूँ। पिताजी इसमें बाधा देते हैं, मुझे रोकते हैं- यह उचित नहीं है। इसलिये प्रह्लादजीने पिताजीकी उस आज्ञाका त्याग किया, जिससे उनको नरक न हो जाय। अगर वे पिताजीकी आज्ञा मानकर भगवद्भक्तिका त्याग कर देते तो इसका दण्ड पिताजीको भोगना पड़ता। पुत्रके द्वारा ऐसा कोई भी काम नहीं होना चाहिये, जिससे पिताको दण्ड भोगना पड़े। इसी दृष्टिसे उन्होंने पिताकी आज्ञा न मानकर पिताका हित ही किया, पिताका त्याग नहीं किया।
रावणने विभीषणको लात मारी और कहा कि तुम यहाँसे चले कि जाओ तो विभीषणजी रामजीके पास चले गये। अतः विभीषणने भाईका त्याग नहीं किया। प्रत्युत उसके अन्यायका त्याग किया; अन्यायका समर्थन, अनुमोदन नहीं किया। विभीषणने रावणको उसके हितकी बात ही कही और उसका हित ही किया।
माँ ने रामजी को वनमें भेज दिया, दुःख दिया- इस विषयमें ही भरतने माँका त्याग किया है। भरतका कहना था कि जैसे कौसल्या अम्बा मेरेपर रामजीसे भी अधिक स्नेह करती हैं, ऐसे ही तेरेको भी रामजीपर मेरेसे भी अधिक स्नेह करना चाहिये था; परन्तु रामजीको तूने वनमें भेज दिया! जब तू रामजीकी भी क्या माँ नहीं रही, तो फिर मेरी माँ कैसे रहेगी? इस विषयमें तेरेको नता दण्ड देना मेरे लिये उचित नहीं है। मैं तो यह कर सकता हूँ कि तेरेको ‘माँ’ नहीं कहूँ, और मैं क्या करूँ ! बलिने गुरुका इस अंशमें त्याग किया कि साक्षात् भगवान् एक ब्राह्मणवेशमें आकर मेरेसे याचना कर रहे हैं, पर गुरुजी मेरेको दान तः देनेसे रोक रहे हैं; अतः मैं गुरुकी बात नहीं मानूँगा। गुरुकी बातका त्याग भी बलिने गुरुके हितके लिये ही किया। बलि दान देनेके लिये ष्ट तैयार ही थे। अगर उस समय वे गुरुकी बात मानते तो उसका दोष तः गुरुको ही लगता। अतः उन्होंने गुरुका शाप स्वीकार कर लिया और हैं, उस दोषसे, अहितसे गुरुको बचा लिया। स्वयं दण्ड भोग लिया, पर गुरुको दण्डसे बचा लिया तो यह गुरु-सेवा ही हुई !
पति भगवान्के सम्मुख होनेके लिये रोक रहे थे-इसी विषयमें गोपियोंने पतियोंका त्याग किया। अगर वे पतिकी बात डीं मानतीं तो पति पापके भागी होते; अतः पतिकी बात न मानकर ने उन्होंने पतियोंको पापसे ही बचाया
तात्पर्य है कि मनुष्य-शरीरकी सार्थकता परमात्माको प्राप्त करनेमें ही है। अतः उसमें सहायक होनेवाला हमारा हित करता है और उसमें बाधा देनेवाला हमारा अहित करता है। प्रह्लाद आदि सभीने परमात्मप्राप्तिमें बाधा देनेवालेका ही त्याग किया है, पिता आदिका नहीं। इसीलिये उनका मंगल-ही-मंगल हुआ।
यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.