भगवान्‌के प्रेम-रहस्य को प्रेमी भक्त खोलना नहीं चाहते और न खुलवाना ही चाहते हैं। (EN)

भगवान्‌के प्रेम-रहस्य को प्रेमी भक्त खोलना नहीं चाहते और न खुलवाना ही चाहते हैं।

८६- श्रीयशोदाजीके हृदयमें अपने सुत श्रीकृष्णके सिवा और कुछ रहता ही नहीं। प्रेम भावमय होता है। उनके हृद्-पटलपर भगवान श्रीकृष्णका बाल-विग्रह सदा अंकित रहता है, क्योंकि उनका हृद्-पट भावरस-आप्लावित रहता है।

८७- भगवान्‌के प्राकट्यके समय भी भगवान्‌की लीला देख-सुनकर श्री प्राकृत जीवोंको भगवान्‌के ऐश्वर्यके प्रति पूरा विश्वास नहीं होता। मायाबद्ध मनुष्य भगवान्‌को नहीं जानते तथा मायामुक्तको भी जब भगवान् जानते हैं, तभी वे जानते हैं। अपनी साधनासे, अपनी बुद्धिसे, तर्कोसे, शक्तिसे जितना ही भगवान्‌को जानना चाहते हैं, उतना ही वे दुज्ञेय हो जाते हैं। भगवान्‌को जानना तब होता है, जब उनकी शरण ग्रहण करनेपर उनकी करुणाशक्तिका प्रादुर्भाव होता है! अतः भगवान्के चरणोंके शरणापन्न होना चाहिये और जिसकी जितनी शक्ति हो, उसीके अनुसार उनकी सेवा करनी चाहिये।

८८-भगवान्‌की लीलाके सम्बन्धमें जिस समय कोई संदेह होता है, उस समय असलमें हम भगवान्‌को भगवान् नहीं मानते, उन्हें अपनी श्रेणीमें ले आते हैं; नहीं तो कोई सन्देह हो ही नहीं सकता। भगवान्‌का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक वाणी देखनेमें विपर्यय मालूम देनेपर भी तत्त्वतः सत्य है।

८९-कोई अपनी बुद्धिसे संदेह मिटाना चाहे तो संदेह नहीं मिटते, बढ़ते हैं। संदेह मिटानेका एकमात्र उपाय है-नारायणके चरणोंके शरणापन्न हो जाना। सारे सन्देह वहीं मिटते हैं।

९०-राधाकृष्ण स्त्री-पुरुष नहीं हैं, हमारी तरहसे कर्मसे पैदा होनेवाले पांचभौतिक देहधारी जीव नहीं हैं। वे साक्षात् सच्चिदानन्दघनस्वरूप हैं और एक ही लीलाके लिये दो रूपोंसे प्रकट हैं। राधा श्रीकृष्णकी स्वरूपभूता शक्ति हैं। राधा श्रीकृष्ण है, श्रीकृष्ण राधा हैं। रामा भगवान् श्रीकृष्णकी स्त्री नहीं हैं, राधा भगवान् हैं। भगवान् (श्रीकृष्णा) राधाके पति नहीं, भगवान् राधा हैं। और राधा-कृष्ण स्त्री-पुरुष भी हैं, पति-पत्नी भी हैं, प्रकृति-पुरुष भी हैं, पुरुषोत्तम भी हैं, दोनों एक भी हैं, दोनोंकी महिमा कौन जान सकता है।

९१- भगवान्का देह देह नहीं; क्योंकि वहाँ देह-देहीका भेद नहीं वह प्राकृत नहीं। भगवान्के प्रकट होनेके समय माताके गर्भमें भी लीलागर्भ था। भगवान्‌का देह मायिक, पांचभौतिक एवं कर्मफलजाग नहीं! भगवान्‌के कर-चरणादि सभी सच्चिदानन्द भगवत्स्वरूप हैं।

९२-सेवकका यह धर्म है कि स्वामीको कब क्या वस्तु चाहिये यह वह स्वयं जान ले। सेवक सेवाका अवसर स्वयं ढूँढ़ लेता है स्वामीको आज्ञा देनेकी आवश्यकता नहीं होती।

९३-सेवाके तीन भेद हैं- (१) निकृष्ट-जो व्यवहार या लोकनिदा

आदिके कारण करनी पड़ती है, पर मनमें भार मालूम होता है। (२) मध्यम-सेवा करना कर्तव्य है, धर्म है। न करनेसे धर्म या कर्तव्यसे च्युत हो जायेंगे। (३) उत्तम-किये बिना रहा न जाय। ऐसी सेवा प्रेमसे-स्नेहसे होती है अथवा स्वभावसे होती है। कर्तव्य या स्वार्थ आदिसे नहीं होती।

९४-जिसका जिसके प्रति वास्तविक प्रेम है, वह उसकी सेवा अपने हाथोंसे करता है। प्रेमकी परीक्षा सेवासे ही होती है। किसी बीमारके पास हमने बीस नौकर रख दिये, खूब रुपये लगा दिये; पर वह प्रेम नहीं है। प्रेम तो इस प्रकारकी स्थिति पैदा कर देगा कि हम स्वयं अपने हाथों सेवा किये बिना रह नहीं सकेंगे। बीचमें और कोई स्वार्थ नहीं आवेगा; हमारा तो स्वार्थ वही है, उसीमें है।

९५-सकाम भक्त नित्य प्रेमका वरदान माँगते हैं। नित्य प्रेमको चाहना, यह प्रेमका स्वभाव है। जो प्रेम घटे-बढ़े, वह प्रेम नहीं।

९६-सकाम भक्त और शुद्ध भक्त दोनों भगवानसे वरदान माँगते हैं। पर सकाम भक्त ऐसा वरदान माँगता है, जिससे अपना हित हो. किन्तु शुद्ध भक्त ऐसा वरदान माँगता है, जिससे जगत्‌का कल्याण हो और प्रेमी भक्त तो भगवान्से भगवान्‌के सुखका ही वर चाहता है। स्वयं कैसे भी रहे।

९७-भगवान्‌को वश करनेका प्रेम तो हो, पर उसमें भगवान्‌की कृपा न हो तो प्रेम होनेपर भी हम भगवान्‌को (प्रेमके बन्धनमें) बाँचे नहीं सकते।

९८-जबतक व्याकुलता नहीं होती, तबतक भगवान् गुप्त रहते हैं। जब व्याकुलता होती है, तब उनके (भगवान्के) चरण-चिह्न स्वयं बता देते हैं कि इधर आओ, भगवान् यहाँ हैं। व्याकुलतासे ही उनके चरण-चिह्न दिखायी देने लगते हैं।

९९-जो अपनी शक्तिसे भगवान्‌को देखना, समझना, उनकी सीमा बाँधना आदि चाहते हैं, उनके लिये भगवान् नित्य अव्यक्त हैं। पर जो भगवान्‌के शरणापन्न हो जाते हैं, उनके लिये भगवान् सर्वदा व्यक्त हैं।

१००-भगवान्का बन्धन होता है प्रेमभरी व्यग्रतासे; क्योंकि व्यग्रताके बिना भगवान्‌को बाँधनेवाली भगवत्कृपाका प्रकाश नहीं होता।

१०१-जबतक कोई काम असाध्य मालूम न दे या अत्यन्त अनिवार्य न हो जाय, तबतक उसके लिये व्यग्रता उत्पन्न नहीं होती। असाध्यपन एवं नितान्त आवश्यकता ही व्यग्रता उत्पन्न करते हैं।

१०२-श्रीकृष्णके लिये प्राण जबतक रो न उठें, तबतक उन्हें कोई पकड़ नहीं सकता।

१०३-जिसकी जिसमें कामना होती है, वह उसका काम्य है। उसमें बाधा होनेसे उसे क्रोध उत्पन्न होता है। वास्तवमें काम ही प्रतिहत होकर क्रोध बनता है।

१०४-जिस वस्तुमें जितने परिमाणमें कामना होती है, उसके लिये उसे उतने ही परिमाणमें क्रोध होता है

१०५- भगवान् जिसके साथ मिलकर लीला करते हैं, वे सभी भगवान्के पार्षद हैं। पार्षदोंके दो भेद हैं- (१) अनुकूल पार्षद (२) प्रतिकूल पार्षद । जो अनुकूल पार्षद हैं, वे लीलामें सहायता करते (२) प्रारूपसे और जो प्रतिकूल पार्षद हैं, वे सहायता करते हैं बुभावसे। दिव्यधाममें अनुकूल पार्षदोंके साथ लीला होती है। वहाँ प्रतिकूल पार्षद अचेतन-भावसे रहते हैं।

१०६-जब किसीके किसी दोषपर भक्त-सच्चे भक्तकी दृष्टि पड़ जाती है, तब फिर वह दोष नहीं रह जाता। भक्त दण्ड-विधानसे, प्रेमसे अनुग्रहसे या अनुग्रहपूर्ण शापसे-किसी भी उपायसे उस दोषको नष्ट कर देता है।

१०७-विद्या वही है, जो बुरे मार्गसे हटा दे, विषयवासनासे चित्त विरत हो जाय, यही उसका सदुपयोग है। विद्यासे जाननेयोग्य असली वस्तु हैं- भगवान् और उनके भजनका तत्त्व।

१०८-भक्त-अपराधी तबतक भगवान्की कृपा नहीं प्राप्त कर सकता, जबतक भक्त उसे क्षमा न कर दे। भक्तके अपराधीको भक्त ही क्षमा कर सकता है और भक्तसे क्षमा प्राप्त करना बहुत सरल है। क्योंकि भक्तमें न वास्तविक क्रोध होता है और न बदलेकी भावना ही।

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