श्वपच भक्त वाल्मीकिजी (भक्तमाल)

राधे राधे।।

श्वपच भक्त वाल्मीकिजी (भक्तमाल)

श्वपच वाल्मीकि नामक एक भगवान्‌के बड़े भारी भक्त थे, वे अपनी भक्तिको गुप्त ही रखते थे। एक बारकी बात है, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरने बड़ा भारी यज्ञ किया। उसमें इतने ऋषि-महर्षि पधारे कि सम्पूर्ण यज्ञस्थल भर गया। भगवान्ने शंख स्थापित किया और कहा कि यज्ञके सांगोपांग पूर्ण हो जानेपर यह शंख बिना बजाये ही बजेगा। यदि नहीं बजे तो समझिये कि यज्ञमें अभी कुछ त्रुटि है, यज्ञ पूरा नहीं हुआ। वही बात हुई। पूर्णाहुति, तर्पण, ब्राह्मणभोजन, दान-दक्षिणादि सभी कर्म विधिसमेत सम्पन्न हो गये, परंतु वह शंख नहीं बजा। तब सबको बड़ी चिन्ता हुई कि इतने श्रमके बाद भी यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ। सभी लोगोंने भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर कहा कि प्रभो! आप कृपा करके बताइये कि यज्ञमें कौन-सी कमी रह गयी है।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- शंख न बजनेका रहस्य सुनिये। यद्यपि ऋषियोंके समूहसे चारों दिशाएँ, सम्पूर्ण भूमि भर गयी है और सभीने भोजन किया है, परंतु किसी रसिक वैष्णव सन्तने भोजन नहीं किया है, यदि आपलोग यह कहें कि इन ऋषियोंमें क्या कोई भक्त नहीं है तो मैं ‘नहीं’ कैसे कहूँ, अवश्य इन ऋषियोंमें बहुत उत्तम-उत्तम भक्त हैं, फिर भी मेरे हृदयकी एक गुप्त बात यह है कि मैं सर्वश्रेष्ठ रसिक वैष्णव भक्त उसे मानता हूँ, जिसे अपनी जाति, विद्या, ज्ञान आदिका अहंकार बिलकुल न हो और जो अपनेको दासोंका दास मानता हो, यदि यज्ञ पूर्ण करनेकी इच्छा है तो ऐसे भक्तको लाकर जिमाइये।

भगवान्की यह बात सुनकर युधिष्ठिरने कहा- प्रभो! सत्य है, पर ऐसा भगवद्भक्त हमारे नगरके आस-पास कहीं भी दिखायी नहीं देता है। जिसमें अहंकारकी गन्ध न हो-ऐसा भक्त तो किसी दूसरे लोकमें भले ही मिले। भगवान्ने कहा-नहीं, तुम्हारे नगरमें ही रहता है। दिन-रात, प्रातः सायं तुम्हारे यहाँ आता- जाता भी है, पर उसे कोई जानता नहीं है और वह स्वयं अपनेको प्रकट भी नहीं करता है। यह सुनकर सभी आश्चर्यसे चौंक उठे और बोले- प्रभो! कृपया शीघ्र ही बताइये, उनका क्या नाम है और कहाँ स्थान है? जहाँ जाकर हम उनका दर्शन करके अपनेको सौभाग्यशाली बनायें।भगवान्ने कहा-श्वपच भक्त वाल्मीकिके घरको चले जाओ, वे सर्वविकाररहित सच्चे साधु हैं।

अर्जुन और भीमसेन भक्त वाल्मीकिजीको निमन्त्रण देनेके लिये उनके घर जानेको तैयार हुए। तब भगवान्ने उन्हें सतर्क करते हुए हृदयकी बात खोलकर कही – जाते तो हो पर सावधान रहना, भक्तोंकी भक्तिका भाव अत्यन्त दुर्लभ और गम्भीर है, उनको देखकर मनमें किसी प्रकारका विकार न लाना, अन्यथा तुम्हारी भक्तिमें दोष आ जायगा। दोनोंने वाल्मीकिके घर पहुँचकर उसके चारों ओर घूमकर उसकी प्रदक्षिणा की। आनन्दसे झूमते हुए पृथ्वीपर पड़कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया। भीतर जाकर देखा तो उनका उपासनागृह बड़ा सुन्दर था। वाल्मीकिजीने जब दोनों राज-राजाओंको आया देखा तो उन्होंने सब काम छोड़ दिये। लज्जा एवं संकोचवश काँपने लगे, उनका मन विह्वल हो गया। अर्जुन और भीमसेनने सविनय निवेदन किया-भक्तवर ! कल आप हमारे घरपर पधारिये और वहाँ अपनी जूठन गिराकर हमारे पापग्रहोंको दूर कीजिये। हम सबको परम भाग्यशाली बनाइये।

दोनोंको निमन्त्रण देते तथा अपनी बड़ाई करते हुए सुनकर वाल्मीकिजी कहने लगे-अजी ! हम तो सदासे आपकी जूठन उठाते हैं और आपके द्वारपर झाड़ लगाते हैं। मेरा निमन्त्रण कैसा? पहले आपलोग भोजन कीजियेगा, फिर पीछेसे हमें अपनी जूठन दीजियेगा। अर्जुन-भीमसेनने कहा- आप यह क्या कह रहे हैं? पहले आप भोजन कीजियेगा, फिर पीछेसे हमें कराइयेगा। बिना आपको खिलाये हमलोग नहीं खायेंगे। दूसरी बात भूलकर भी मनमें न सोचिये। वाल्मीकिजीने कहा-बहुत अच्छी बात, यदि आपके मनमें ऐसा है तो ऐसा ही होगा।

अर्जुन और भीमसेनने लौटकर राजा युधिष्ठिरसे वाल्मीकिकी सब बात कही, सुनकर युधिष्ठिरको श्वपच भक्तके प्रति बड़ा प्रेम हुआ। भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदीको अच्छी प्रकारसे सिखाया कि तुम सभी प्रकारके षट्स व्यंजनोंको अच्छी प्रकारसे बनाओ। तुम्हारे हाथोंकी सफलता आज इसीमें है कि भक्तके लिये सुन्दर रसोई तैयार करो। रसोई तैयार हो चुकनेपर राजा युधिष्ठिर जाकर वाल्मीकिको लिवा लाये। उन्होंने कहा कि हमें बाहर ही बैठाकर भोजन करा दो। श्रीकृष्णभगवान्‌ने कहा- हे युधिष्ठिर ! ये तो तुम्हारे भाई हैं, इन्हें सादर गोदमें उठाकर स्वयं ले आओ। इस प्रकार उन्हें पाकशालामें लाकर बैठाया गया और उनके सामने सभी प्रकारके व्यंजन परोसे गये। रसमय प्रसादका कौर लेते ही शंख बज उठा, परंतु थोड़ी देर बजकर फिर बन्द हो गया, तब भगवान्ने शंखको एक छड़ी लगायी।

भगवान्ने शंखसे पूछा- तुम कण-कणके भोजन करनेपर ठीकसे क्यों नहीं बज रहे हो ? घबड़ाकर शंख बोला- आप द्रौपदीके पास जाकर उनसे पूछिये, आपमनसे यह मान लीजिये कि मेरा कुछ भी दोष नहीं है। जब द्रौपदीसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि शंखका कथन सत्य है। भक्तजी खट्टे-मीठे आदि सभी रसोंके सभी व्यंजनोंको एकमें मिलाकर खा रहे हैं, इससे मेरी रसोई करनेकी चतुरता धूलमें मिल गयी। अपनी पाकविद्याका निरादर देखकर मेरे मनमें यह भाव आया कि आखिर हैं तो ये श्वपच जातिके ही, ये भला व्यंजनोंका स्वाद लेना क्या जानें ? तब भगवान्ने सब पदार्थोंको एकमें मिलाकर खानेका कारण पूछा। वाल्मीकिने कहा कि इनका भोग तो आप पहले ही लगा चुके हैं, अतः पदार्थबुद्धिसे अलग-अलग स्वाद कैसे लूँ? पदार्थ तो एकके बाद दूसरे रुचिकर और अरुचिकर लगेंगे। फिर इसमें प्रसादबुद्धि कहाँ रहेगी ? मैं तो प्रसादका सेवन कर रहा हूँ, व्यंजनोंको नहीं खा रहा हूँ। यह सुनकर भक्त वाल्मीकिमें द्रौपदीका अपार सद्भाव हुआ। शंख जोरोंसे बजने लगा। लोग भक्तकी जय-जयकार करने लगे। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण हुआ और भक्त वाल्मीकिजीकी महिमाका सबको पता चल गया।

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