भक्त यदि कुछ करता है तो सोचता है-‘बहुत थोड़ा हुआ।’ वह तो निरन्तर यही सोचता है कि मुझसे कुछ नहीं होता।

१- ऋषि जगत्‌कें बड़े उपकारक हैं। वे मन्त्रद्रष्टा हैं एवं उनके प्रचारक हैं। वैदिक, तान्त्रिक आदि जितने मन्त्र हैं, उनकी साधना कैसे करनी चाहिये-यह जगत्ने जाना है इन ऋषियोंकी कृपासे ही। ऋषियोंका ऋण जगत् कभी चुका नहीं सकता। तमाम साधनोंके प्रवर्तक ऋषि और तमाम साधनोंमें शक्ति देनेवाले भी ऋषि हैं।

२-भक्तिकी यह विशेषता है कि वह भक्तको दीन रखती है, उसे निरभिमानी रखती है। भक्तमें कभी भी योगी, ज्ञानी आदिकी भाँति सिद्धावस्थाका अभिमान नहीं आता। भक्त यदि कुछ करता है तो सोचता है-‘बहुत थोड़ा हुआ।’ वह तो निरन्तर यही सोचता है कि मुझसे कुछ नहीं होता।

३-लीलामयकी लीला प्रतिपदपर अत्यन्त विस्मयकारिणी एवं परम मधुर है।

४-भगवान्‌के जो भोग लगता है वह वैसे ही लगता है जैसे हम खाते हैं। भगवान्‌के श्रीविग्रहको पूजे और साथ ही कहे कि ‘भगवान् तो वासनाके भूखे हैं और उन्हें वैसे ही, बिना छीले, साफ किये फल आदि भोग लगा दे तो ऐसे उपेक्षा भाववाले पुरुषका लगाया हुआ भोग भगवान् नहीं खाते। जिस तत्परतासे हम अपने किसी अत्यन्त आदरणीय प्रेमास्पदके लिये भोजन बनाते हैं, उससे भी अधिक प्रेमसे भोग लगायें तो उसे भगवान् अवश्य खाते हैं।’

५-भक्तकी वाणी सच्ची करनेके लिये भगवान् सदा सचेष्ट रहते हैं। यदि भक्तके वचन सत्य करनेमें उन्हें अपने वचनोंका परित्याग करना पड़े तो वे उसे भी सहर्ष स्वीकार करते हैं। किसी समय भक्तके वचनके साथ भगवान्‌के वाक्यका विरोध हो जाता है तो वहाँ भक्तका वाक्य रहता है, भगवान्का नहीं। ऐसा भक्त कौन है? वही है, जिसके वचनोंकी रक्षाके लिये भगवान् अपने वचन छोड़ दें।

६- भगवान् दूसरेका बन्धन तोड देते हैं, पर प्रेमी भक्तोंके दिये हुए अपने प्रेम-बन्धनको नहीं तोड़ सकते।

पने प्रमीवनकी सफलता क्या है? – हमारे हृदयमें सद्गुण आ जाएँ

हमारे आचरणमें सदाचार आ जाय, हमारा मुख भगवान्‌की ओर मुड़ जाय। हमारे जीवनमें दैवी गुण हो जाय और वह भगवद्भजनकी मूर्ति बन जाय।

८-जो सांसारिक उन्नति भगवान्‌की प्रीतिमें बाधक है, वह उन्नति उन्नति नहीं, वह तो स्पष्ट अवनति है।

९-दरिद्रता बड़ा दुःख है, पर जो दारिद्रय जीवनको पवित्र बनानेवाला हो, वह तो वांछनीय है।

१०-जो हो, जहाँ हो, जैसे हो-न वहाँ जाति-पाँतिका भेद, न कर्म-अकर्मका भेद, न कालकी अपेक्षा-वह, वहाँ, वैसे ही भगवान्से मिल सकता है। बस इच्छा तीव्र होनी चाहिये वैसी ही, जैसी प्यासेको जलकी होती है।

११-अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ माने जाते हैं। संसारमें अर्थ और काम दोनोंकी आवश्यकता है पर अर्थ और काम धर्मके अनुकूल होने चाहिये, तभी उनका फल मोक्ष होता है। जो अर्थ, जो काम धर्मसम्मत न हो, वह पुरुषार्थ नहीं अनर्थ है।

१२-नवधाभक्तिके दो अंग हैं- पहले छः (श्रवण, कीर्तन-स्मरण,

पादसेवन, अर्चन, वन्दन) साधनाके हैं, अन्तिम तीन (दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन) साधनाकी सिद्धिके। दास्य, सख्य एवं आत्मनिवेदनका सेवन केवल इच्छासे नहीं हो सकता; श्रवण-कीर्तन आदि करते-करते चित्त शुद्ध होनेपर दास्य आदि स्तर प्राप्त हो सकते हैं। श्रवण आदि तो अशुद्ध चित्तसे भी हो सकते हैं; दास्य आदि अशुद्ध चित्तसे नहीं हो सकते। इनमें चित्तकी शुद्धि हुए बिना काम नहीं चलता और न दासत्व आदिका स्वाँग धरनेसे ही ।xxxx

साधनावस्थामें अपने अधिकारके अनुकूल कार्य करना चाहिये। उसमें निद्धावस्थाकी बातको अपनानेसे साधन रुक जाता है। दास्य आदिकी बत करनेसे काम नहीं चलता है। पहले श्रवण-कीर्तन आदिमें लगना चाहिकी ‘भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘भगवन्! मुझे साधनके अंग प्रदान कीजिये।’

१३-आगमें जलनशक्ति स्वाभाविक है। अग्निसे कहना नहीं पड़ता कि ‘हे अग्निदेवता! आप काठको जलाओ।’ इसी प्रकार भगवान्‌का करुणा-गुण स्वाभाविक है। उसका प्रकाश करनेके लिये प्रार्थना नहीं करनी पड़ती। भगवान् नित्य इस जगत्के कल्याणके लिये करुणामय हैं। इसीलिये वे इस प्राकृत जगत्में प्राकृत-सा रूप धारण करके प्राकृतकी भाँति लीला करते हैं। यह करुणा-गुण भगवान्‌का विकाररहित अन्तरंग गुण है, स्वरूपभूत नित्य गुण है। त्रिगुणात्मक मायाका विकार नहीं। इसका रूपान्तर नहीं होता।

१४-जैसे एक बीज अनेक फलोंको पैदा करता है, वैसे ही एक कर्मबीज अनेक कर्मफलोंको पैदा करता है।

१५-भगवदाश्रय बहुत बड़ा बल है। इससे पाप-बुद्धि नष्ट होती है। प्रकाशके सामने जिस प्रकार अन्धकार नहीं रहता, वैसे ही भगवदाश्रयके सामने पाप और पाप-बुद्धि नहीं रहती।

१६-भगवदाश्रयके लिये भगवान्में, भगवान्‌की कृपाशक्तिमें विश्वासकी आवश्यकता है। हम आश्रय उसीका लेंगे, जिसके सम्बन्धमें हमारी यह धारणा हो कि ‘यह वस्तु है तथा इसमें हमारे दुःखोंको दूर करनेकी सामर्थ्य है।’

१७-भगवान्‌की प्राप्तिमें भगवान्की कृपा ही प्रधान हेतु है।

१८-जो भगवान्की प्राप्तिको दुर्लभ मानते हैं, अपनेको पापोंसे-

दोषोंसे भरा देखते हैं, पर भगवान्‌की अनन्त पापनाशिनी कृपापर विश्वास नहीं करते तथा दूसरे-दूसरे उपायोंसे भगवत्प्राप्ति चाहते हैं, उनको निराश ही होना पड़ता है। भगवान्‌की कृपाके लिये सभी कुछ सुलभ है।

१९-साधन ठीक होनेपर सिद्धि अपने-आप प्राप्त हो जाती है।

साधनाका (मनसे विश्वासपूर्वक सदा भगवान्का चिन्तन होता रहे आदि-आदि।) वरदान माँगनेवाले साधक बिरले ही होते हैं। ऐसे आपक बहुत उच्चकोटिके होते हैं। इस वरदानमें बड़ा दैन्य है तथा बड़ी कृपाको अभिलाषा है। सिद्धिका वरदान माँगनेवाले बहुत हैं, उसमें अपना एक महत्त्व रहता है।

२०-सत्संगकी परीक्षा इसीमें है कि भगवान्‌के भजनमें रुचि बड़े और आसुरी सम्पत्तिका ह्रास हो। यदि ये दो हो रहे हों तो समझना चाहिये कि सत्संग हो रहा है। यदि ये दो बातें न होती हों तो समझना चाहिये कि या तो वह साधु, जिसका हम संग कर रहे हैं वास्तविक साधु नहीं है; कहनेमात्रका साधु है, या हमने उसका ठीक तरह स्पर्श नहीं किया है, या स्वयं हम पात्र नहीं हो गये हैं। लोहा असली हो, पारस भी हो और स्पर्श होनेपर वह सोना न बने, ऐसा सम्भव नहीं। पारस नहीं, लोहा नहीं या स्पर्श नहीं हुआ। सन्त हो, सच्चा साधक हो और दोनोंका संग हो जाय तो साधकका भजनमय बनना अनिवार्य है।

२१-विश्वास होता है दो बातोंसे-

(१) विश्वासी पुरुषोंकी वाणीसे और विश्वासी पुरुषोंके आचरणोंसे।

(२) किसी भी प्रकार किये गये सच्चे भगवत्स्मरणसे ।

२२-आजके धन-मदान्धोंकी क्या दवा है? उनका धन न रहने

दिया जाय ? पर द्वेषपूर्ण ओषधि दी जायगी तो उसका फल उलटा निकलेगा। जिसे रोगीसे द्वेष न हो, केवल रोगसे द्वेष हो ऐसा व्यक्ति ओषधि दे तो ही ठीक है।

२३-धन बुरी चीज नहीं, बुरा है धनका गर्व। यदि धनका सदुपयोग हो तो वह भगवान्‌की सेवामें लगता है; यदि उसका दुरुपयोग हो तो वह मनुष्यको इतना नीचे गिरा देता है कि उसका कहीं ठिकाना नहीं लगता। मानवताके मिटनेमें लोगोंको दुःख होता है, पर जिनको धन-मद होता है, वे हँसते-हँसते अपने हाथों मानवताको मिटाकर छोड़ते हैं। धन-गर्वित सोचते हैं कि किसीपर दया करना तो चित्तकी कमजोरी है। धन-गर्व धनकी लालसाको बढ़ाता है और स्त्री, जुआ और मद्य-इन तीनों व्यसनोंको किसी-न-किसी रूपमें ला देता है। पर-पीड़नके द्वारा आत्म-पोषण-यह धन-गर्वित लोगोंका स्वभाव बन जाता है। कृमि, विष्ठा एवं भस्मके पूर्वरूप शरीरको ही सब कुछ मानना बड़ी बुरी बात है, पर धनका गर्व सब कुछ करा देता है।

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