सन्तान का कर्तव्य

सन्तान का कर्तव्य

माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः ।

बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥

स्तव में भगवान् लक्ष्मी-नारायण ही सबके माता-पिता हैं। इस दृष्टि से संसार में हमारे जो माता-पिता हैं, वे साक्षी लक्ष्मी-नारायणके ही स्वरूप हैं। अतः पुत्रका कर्तव्य है कि मैं माता-पिताकी ही सेवामें लगा रहे। असली पुत्र वे होते हैं, शरीर आदिको अपना नहीं मानते, प्रत्युत माता-पिताका मानते हैं; क्योंकि शरीर माता-पितासे ही पैदा हुआ है। शरीर चा स्थूल, सूक्ष्म अथवा कारण ही क्यों न हो, उन सबपर वे माता- पिताका ही अधिकार मानते हैं, अपना नहीं। मनुजीने भी कह है कि पुत्र तीर्थ, व्रत, भजन, स्मरण आदि जो कुछ शुभ कार्य ते करे, वह सब माता-पिताके ही अर्पण करे* (* तेषामनुपरोधेन पारत्र्यं यद्यदाचरेत् । तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः ॥ (मनुस्मृति २। २३६))।

माता-पिता जीवित हों तो तत्परतासे उनकी आज्ञाका पालन करे, उनके चित्तको प्रसन्नता ले और मरनेके बाद उनको पिण्ड-पानी दे, श्राद्ध-तर्पण करे, उनके नामसे तीर्थ, व्रत आदि करे। ऐसा करनेसे उनका आशीर्वाद मिलता है, जिससे लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं।

श्री भीष्मजीने पिताकी सुख-सुविधा, प्रसन्नताके लिये अपनी सुख-सुविधाका त्याग कर दिया और आबाल ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा ले ली। उन्होंने कनक-कामिनी दोनोंका त्याग कर दिया। इससे प्रसन्न होकर पिताने उनको इच्छामृत्युका वरदान दिया। वे इच्छामृत्यु हो गये कि जब चाहें, तभी मरें। उनको ऐसी सामर्थ्य पिताकी सेवासे प्राप्त हो गयी। श्रीरामने पिताकी आज्ञाका पालन करनेके लिये राज्य, वैभव, सुख-आराम आदि सबका परित्याग कर दिया। वाल्मीकिरामायणमें श्रीरामने स्वयं कहा है कि पिताजीके कहनेपर मैं आगमें भी प्रवेश कर सकता हूँ, विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी कूद सकता हूँ, पर मैं पिताकी आज्ञा नहीं टाल सकता। (* अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके। भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ॥) (वाल्मीकि० अयोध्या० १८।२८-२९) श्रीराम विचारक नहीं थे, आज्ञापालक थे अर्थात् पिताजीने क्या कहा है, कहाँ कहा है, कब कहा है, किस अवस्थामें और किस परिस्थितिमें कहा है आदिका विचार न करके उन्होंने पिताकी आज्ञाका पालन किया और वनवासमें चले गये। अतः माता-पिताके आज्ञा पालनमें श्रीराम सबके आदर्श हुए। गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है-

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन ।

ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥

तात्पर्य है कि पुत्रको श्रीरामकी तरह अपना आचरण बनाना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि इस परिस्थितिमें, इस अवस्थामें, इस समय मेरी जगह श्रीराम होते तो क्या करते। इस तरह उनका ध्यान करके काम करना चाहिये।

पुत्र माता-पिताकी कितनी ही सेवा करे तो भी वह माता- पिताके ऋणको चुका नहीं सकता। कारण कि जिस मनुष्य- शरीरसे अपना कल्याण हो सकता है, जीवन्मुक्ति मिल सकती है, भगवत्प्रेम प्राप्त हो सकता है, भगवान्का मुकुटमणि बन जाय इतना ऊँचा पद प्राप्त हो सकता है, वह मनुष्य-शरीर हो। माता-पिताने दिया है। उसका बदला पुत्र कैसे चुका सकता है। नहीं चुका सकता।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक “गृहस्थ कैसे रहे ?” से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुख जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

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