घर घर में कीर्तन कीजिये, फिर अमंगल दूर हो जायेगा-द्वितीय माला (EN)

घर घर में कीर्तन कीजिये, फिर अमंगल दूर हो जायेगा

९४-अर्जुनने प्रण किया, सूर्यास्त होनेके पहले-पहले जयद्रथको मार दूँगा, नहीं मारूँगा तो आगमें जलकर मर जाऊँगा। लोगोंने देखा-सूर्य अस्त हो गया, जयद्रथ नहीं मरा। अर्जुन चिता बनाकर जलनेके लिये तैयार हुए। सब भाई तमाशा देखनेके लिये आये। जयद्रथ भी आया, क्योंकि अब उसे अर्जुनका भय नहीं था। अर्जुनसे श्रीकृष्णने पूछा- ‘भैया अर्जुन ! तुमने ऐसा प्रण क्यों किया था?’ अर्जुनने कहा- ‘महाराज ! आपके भरोसेपर।’ श्रीकृष्णने कहा- ‘तो बाण सन्धान करो।’ लोगोंने आश्चर्यसे देखा, अर्जुनने भी देखा, अभी तो सूर्य हैं, अस्त नहीं हुए हैं, अस्त होनेका भ्रम हो गया था। अर्जुनने बाण सन्धान किया और जयद्रथ मारा गया। भला, यह बात किसीकी कल्पनामें भी आ सकती थी कि अस्त हुए सूर्य फिर उसी दिन उदय हो जायँगे? पर भगवान्‌के लिये कौन बड़ी बात है, वे असम्भवको सम्भव कर सकते हैं, उनपर विश्वास होना चाहिये।

९५-मनुष्यका यह एक स्वभाव-सा है कि वह दूसरेकी स्थितिमें सुख समझता है। वह सोचता है कि अमुक व्यक्तिके पास भोग-सुखकी इतनी सामग्रियाँ हैं तो वह निश्चय सुखी होगा। ऐसा सोचकर वह वैसा बनना चाहता है। कहीं बन जाता है तो फिर सोचता है हमसे होती ही है। उधर भगवान्से कुछ नहीं छिपा है, उनसे भूल कि अरे, यहाँ तो दुःख ही है; वे-वे चीजें और हों जैसी अमुकके पास हैं, तो सुखी होऊँ। यदि वे चीजें भी मिल गयीं तो फिर भी यही अनुभव करता है कि अरे, सुख तो यहाँ भी नहीं है, यहाँ भी वही जलन है। इस प्रकार वह सुख खोजता रह जाता है, पर उसे सुख नहीं मिलता, मिल भी नहीं सकता, क्योंकि यहाँ सुख हो तब न मिले। सुख तो भगवान्में है। भगवान्ने स्वयं कहा है- ‘यह संसार अनित्य है, इसमें सुख है ही नहीं। सुख चाहिये तो हमारा भजन करो।’

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥

(गीता ९।३३)

९६-जहाँ अभावका अनुभव होता है, वहाँ उसकी पूर्तिकी इच्छा होती है। उसके लिये चेष्टा होती है और उसकी पूर्तिके साथ-साथ ही कई नये अभावोंकी सृष्टि हो जाती है। लड़का नहीं है, लड़केका अभाव दुःख देता है, अब कहीं लड़का हो गया तो उसके पालन- पोषणके लिये धन चाहिये, उसका विवाह करना होगा, उसके लिये बहुत सामान चाहिये। इस प्रकार लड़केका अभाव तो दूर हुआ; पर कई नये अभाव खड़े हो गये। बस, एक अभावकी पूर्ति हुई तो दूसरेकी पूर्तिमें लगे, तीसरेके होनेपर चौथेमें। इस तरह अभावकी पूर्ति करते- करते अनमोल मनुष्य-जीवन समाप्त हो जाता है। जिस जीवनसे परम दुर्लभ वस्तु भगवान् मिल सकते हैं, वह अभावोंकी पूर्ति करनेमें बीता और अभाव बने ही रहे। इससे बड़ी हानि और क्या होगी।

९७-अभावकी पूर्ति उद्देश्य हो जानेपर व्याकुलता उत्पन्न होती है और बुद्धि बिगड़कर कार्य-अकार्यका ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसलिये प्रत्येक अभावकी पूर्तिके साथ ही पापका ढेर भी संग्रहीत हो जाता है। अब सोचिये, केवल जीवन निष्फल ही नहीं हुआ, आगेके लिये पापका ढेर ढोकर साथ ले चले, जिसका फल दुःख-ही-दुःख है।

९८-संसारमें सफलताकी पूजा होती है। सफल होनेपर तो साथियोंकी भरमार, पूजाकी भरमार रहेगी, पर असफल हुए तो फिर कोई भी नहीं पूछेगा।

९९-मनमें योजनाएँ बनाते रहें, पर मृत्यु आ गयी तो योजनाएँ सब-की-सब धरी रह जायँगी। कुछ वर्षों पहलेकी बात है-अपने धनको सत्कार्यमें लगानेके लिये एक बहुत धनी पुरुषने कई योजनाएँ सोची थीं, पर कुछ कर नहीं पाये, मृत्यु हो गयी। इसीलिये शुभ कार्यको कलपर मत रखो शीघ्र-से-शीघ्र कर डालो।

१००-भगवान् पूर्ण हैं, उन्हींमें आत्यन्तिक सुख है। वहाँ जरा भी अभाव नहीं है, उन्हें प्राप्त करो। उन्हें पा जानेपर सर्वथा सब ओरसे पूर्ण हो जाओगे। अभाव सदाके लिये मिट जायगा। उन्हें एक बार पा लेनेपर फिर कभी उनसे वंचित नहीं रहोगे।

१०१-तनसे, मनसे, धनसे- सब प्रकारसे केवल भगवान्‌का ही भजन करो। यही उन्हें पानेका उपाय है। मनुष्य-देह उन्हींको पानेके लिये मिली है।

१०२-हिंसक पशुकी अपेक्षा भी मनुष्य पशु अधिक भयंकर है। पशुमें विवेक नहीं; पर मनुष्यमें विवेक है। मनुष्य होकर जब वह अपना विवेक पशुताके अभ्युदयमें लगाता है; तब उससे संसारका जितना अनिष्ट होता है, उतना अनिष्ट हिंसक पशु कर नहीं सकता।

१०३-यदि जीव पतनसे बचना चाहता हो तो उसे निश्चय ही भगवान्की ओर मुड़ना होगा।

१०४-जो कुछ मनमें होता है, वही बाहर निकलता है। यह जो महायुद्ध इस समय देख रहे हैं, वह अकस्मात् आ टपका हो- यह बात नहीं, इसका मनके अन्दर-ही-अन्दर बहुत पहलेसे निर्माण हो रहा था, अब वह बाहर सामने आ गया है।

१०५-यदि हम जगत्में सुख-शान्ति चाहते हैं तो अपने-अपने मनमें भगवान्को लावें। पहले वहाँ सुख-शान्ति होगी, फिर वही सुख-शान्ति सबके सामने बाहर आ जायगी। हम मनमें भजते हैं पाप, अशान्ति, दुःख और दुर्भिक्षको, फिर सुख-शान्तिका विस्तार बाहर किस प्रकार हो।

१०६-जिस प्रकारसे भी हो, मनको पापसे अलग रखे।

१०७-यदि कोई छायाको पकड़ना चाहे तो छाया और भी आगे- आगे बढ़ती चली जायगी, पर यदि सूर्यकी ओर मुँह करके कोई दौड़ने लग जाय तो छाया उसके पीछे-पीछे दौड़ने लग जाती है। इसी प्रकार संसारके सुख-ऐश्वर्यके पीछे दौड़नेपर वह आगे-आगे भागता चला जाता है, हाथ नहीं आता। पर यदि मनुष्य इसकी ओर पीठ करके भगवान्‌की ओर दौड़ता है तो ये सब उसके पीछे-पीछे दौड़ते हैं।

१०८-जितना ही सुविधाओंको प्राप्त करनेका प्रयत्न होगा, उतनी ही असुविधाएँ होंगी।

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