नीचे एक भावपूर्ण, विस्तारपूर्वक और सत्संग शैली में यह अद्भुत कथा दी जा रही है, जिसमें महाराज जी की वाणी, भजन, और प्रेरणाओं का समावेश मिलेगा — बिल्कुल उसी प्रकार जैसी कथा वीडियो में प्रस्तुत की गई है।
भक्त रानी रत्नावती जी का पावन चरित्र : भक्ति, प्रेम और त्याग की अनुपम गाथा
भूमिका
संसार में ऐसे विरले ही साधक और भक्त होते हैं, जिनके चरित्र और उनके त्याग-समर्पण की कथाएँ युगों-युगों तक श्रद्धा और प्रेरणा का स्रोत बनी रहती हैं। ऐसी ही अनुपम कथा है रानी रत्नावती जी की, जिनका जीवन भगवद्-प्रेम से सराबोर होकर सर्वथा अद्भुत एवं विलक्षण बन गया।
रानी रत्नावती जी का चरित्र भावनाओं से भरी, त्याग-मयी और अनन्य श्रद्धा की मिसाल है। जब महाराज श्री प्रेमानंद गोविन्द शरण जी महाराज ने इस कथा का निरूपण किया, तब हर श्रोता मग्न, भावविभोर हो उठा। यही कथा आपको शब्दों तथा भावनाओं की उसी गहराई तक पहुँचाएगी।
आरंभ : दासी से आराध्य का मार्ग
रानी रत्नावती जी के पावन चरित्र का आरंभ उन्हीं के राजमहल से होता है। उनका जीवन भोग-विलास में विभोर था, किन्तु दिल के किसी कोने में एक व्याकुलता थी, एक अतृप्त खोज थी, जो उन्हें हमेशा भीतर से झंकझोरती रहती थी। एक दिन, जैसे साक्षात् कृपा बरस पड़ी — रत्नावती जी की सेविका एक भावुक भगवद्-दासी थी, जो हमेशा प्रभु के नाम का कीर्तन करती थी।
रानी ने जब सेविका से पूछा — “तुम किसका नाम लेती हो, किसकी प्रेम में रंगी रहती हो?” — सेविका ने विनम्रता से उत्तर दिया कि वह श्री वृंदावनचन्द्र, श्री कुंज बिहारी, श्रीलाल जी, नवलकिशोर को अपना आराध्य मानती हैं। यह भजन और नाम-कीर्तन रानी के हृदय को भीतर छू गया। उस शब्द-रस ने रानी के मन को विचलित कर दिया: वे समझ ना सकीं कि यह आकर्षण क्या है, कौन हैं ये वृंदावनचंद्र, जिनका संग मात्र हृदय को सराबोर कर देता है।
दिन-प्रतिदिन रानी सेविका के कीर्तन-भाव और श्रद्धा में घुलती चली गईं। सेविका के भागवत प्रेम से रानी के मन में भी भक्ति का अंकुरित होना प्रारंभ हुआ। यहीं से उनके जीवन की सम्पूर्ण दिशा और धारा बदल गई।
भक्ति की क्रांति : दासी बनी गुरु
रानी ने एक दिन हृदय से संसारिकता का त्याग करके अपनी दासी को अपना गुरु मान लिया। सेवा की जो मर्यादा थी — उसके सम्मान के लिए उन्होंने दासी के चरणों में सिर झुका दिया। रानी बोली: “आज से तुम मेरी दासी नहीं, मेरी गुरु हो। मेरे जीवन का मार्गदर्शन तुम्हीं करो।”
यह भजन-प्रेरणा का चमत्कार था। अहंकार का मर्दन इस तरह हुआ कि राजप्रतिष्ठा की छाया में रहने वाली रानी, अपनी चरण-दासी से गुरु का स्नेह और ज्ञान ले रही थी। भजन और भक्त संग का प्रभाव सचमुच ऐसा ही होता है कि सारे भोग और ऐश्वर्य तुच्छ लगने लगते हैं।
अब रात-रातभर रानी और दासी प्रभु की चर्चा में मग्न रहतीं, नाम-स्मरण करते, लीला की बातों में आनंद विभोर होतीं। यह असाधारण भक्त-संग उनके जीवन का सबसे बड़ा उपहार बन गया — सब सुकृत्यों का फल मिल गया।
कृष्ण दरशन की उत्कंठा और सेवा पूजा
एक दिन रानी रत्नावती जी ने अपनी गुरु-दासी से कहा — “मुझे ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे श्रीइन्द्रनीलमणि श्यामसुंदर का साक्षात् दर्शन हो सके।”
दासी ने समझाया — “प्रभु सेवा से जल्दी प्रसन्न होते हैं। जब सेवा में अपनापन हो, निष्काम भाव हो, तब प्रभु रीझते हैं।” और इस प्रकार रानी जी ने बड़े भाव से श्रीलालजी की श्रीविग्रह की सेवा आरंभ कर दी। उत्तम-उत्तम भोग, सुंदर श्रृंगार, नृत्य-गान — सब कुछ किया, किंतु हृदय की तड़प थी कि प्रभु का साक्षात् सान्निध्य, दर्शन कैसे पाएं?
दासी ने आगे बताया — “संत सेवा सबसे बड़ा मार्ग है। जहाँ भगवद् प्रेमी संत रहते हैं, वहाँ भगवान स्वयं विराजमान रहते हैं। उनकी सेवा करो — संत सेवा में ही हरि-साक्षात्कार होता है।”
अब रानी जी ने अपने निजी सेवकों को संत-निवास के कार्य में लगा दिया, दूर-दूर से संतों को बुलाने लगीं, उनकी सेवा में अर्पित हो गईं।
राजसी मर्यादा का त्याग और प्रेम की विजय
रानी की भक्ति इतनी घनिष्ट और उत्कट हो गई कि कुल-सम्प्रदाय, राजसी मर्यादा सब तिरोहित हो गई। अब प्रेम की मर्यादा थी, नीति-अनीति, समाज, परिवार सबका त्याग कर रानी ने संतों की सेवा को जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया।
दासी ने निरंतर समझाया — “आप बाहर मत जाइए, कुल की मर्यादा है।” किंतु राणी ने कहा — “अब मैं किसी से नहीं डरती। जो संसार के भोगों में सुख पाते हैं, वे अपने में रहें। मेरा सुख प्रभु की सेवा में है। अब मैं अपने प्यारे के लिए प्राण भी न्योछावर कर दूंगी।”
रानी महल छोड़ संत-निवास पहुंचीं। संतों के चरणों में गिरकर बोलीं — “भगवन, मुझे अपने हाथों से आप सबको प्रसाद पवाने का सौभाग्य दीजिए।” संतों ने देखा, इसमें किंचित भी अहंकार नहीं, रजोगुण नहीं — केवल प्रेम और भक्ति है। संत आशीर्वाद देकर बोले — “जैसी प्रिय सेवा हो, वैसे ही करो।”
रानी आनंद-अश्रु से भरी, संतों को सच्चे प्रेम से प्रसाद परोस रही हैं। उनके भाव देखकर संत जन, भगवान, गुरुजन सभी हर्षित और द्रवित हो गए। यही आशीर्वाद है — जब सेवा और आज्ञा से गुरुजन, संतजन का हृदय प्रसन्न हो जाए, तो कोई आशीर्वाद मांगने की आवश्यकता नहीं।
विरोध, संघर्ष और त्याग की पराकाष्ठा
ऐसी असाधारण भक्ति और धर्मनिष्ठा जब समाज में प्रकट हुई तो विरोध और प्रतिकूलता भी जन्मी। राजमहल, नगर, परिवार में शोरगुल मच गया। मंत्रीजन चिंतित हुए — “रानी जो कभी पर्दे में भी न देखी जाती थी, वो अब संतों की सेवा में, राजसी लिबास, घूंघट, अभिमान सब त्याग गई है।”
राजा के पास समाचार पहुंचा। दिल्ली की सभा में उनके पुत्र प्रेम सिंह जी आए, माथे पर तिलक, गले में कंठी बांधे — महाराज आग-बबूला हो गए। समाज में उपहास के पात्र हो गए। लेकिन प्रेम सिंह ने इस अपमान को महान सौभाग्य और सम्मान माना — “आज मैं गर्वित हूं कि मुझे वैरागिन संतों का, भगवान भक्तों का पुत्र कहा गया।”
प्रेम सिंह ने रानी को पत्र लिखा — “माँ, चाहे सर कट जाए, चाहे प्राण चले जाएं, पर भागवत धर्म का त्याग मत करना। भक्तों का मार्ग त्यागना मत।”
रानी ने पत्र पढ़ा — और भगवत आवेश में आ गई! राजकुल की मर्यादा, राजमहल, धन-ऐश्वर्य सब छोड़ दिया। अपने केश मुड़वा दिए, सच्ची बैरागिन बन गईं। राजमहल में प्रवेश नहीं, राज-अन्न नहीं — केवल ठाकुर जी की सेवा, संत-निवास का वास।
संपूर्ण त्याग और समाज के समक्ष धर्म का घोष
रानी ने अपने पुत्र को पत्र लिखा — “अब मैं सच्ची बैरागिन बन गई हूं। अब मैं किसी की पत्नी नहीं, कहीं की रानी नहीं। मैं ठाकुर जी की दासियों और संतों के बीच रहती हूं।”
जब यह त्याग नगर में उद्घोषित हुआ तो भक्तजन आनंद विभोर हो गए। नगर में बधाइयाँ बँटने लगीं, नौबत बजने लगी। लेकिन राजा का क्रोध ज्वालामुखी बन गया। सैनिक प्रण कर तैयार हो गए — प्रेम सिंह को बंदी बनाना है, रानी को दंड देना है।
राज्य में युद्ध की घोषणा-सी हो गई। पिता-पुत्र आमने-सामने, लेकिन गुरुजन, मंत्रीजन ने समझाया — “भक्ति का स्वरूप अपने पिता से युद्ध करना नहीं। यदि भक्ति का विरोध होगा तो युद्ध करेंगे, नहीं तो संयम रखें।”
प्रेम सिंह और रानी ने भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा। राजसी वैभव, संपत्ति, संबंध सब त्याग किए — केवल प्रभु-प्रेम, ठाकुरजी की सेवा, संतों का संग।
रानी पर मृत्यु का संकट और भगवत-चमत्कार
राजा का मन शांति नहीं पा रहा था — अब रानी की हत्या का षड्यंत्र रचा गया। मंत्रियों की सलाह पर संत निवास के द्वार पर जंगली सिंह का पिंजरा रखा गया। सिंह छोड़ा गया — सबको लगा कि अब रानी, दासी, संतजन मारे जाएंगे।
लेकिन, रानी ठाकुर जी की अर्चना कर रही थीं — दृढ़ भक्ति और श्रद्धा के साथ। जैसे ही सिंह बाहर आया, रानी बोली — “नरसिंह! भक्त अपनी भावना से कभी तिल भर भी नहीं हटता!” सिंह, रानी के समीप आया — रानी ने पुष्पमाला पहनाई, तिलक लगाया, आरती उतारी। सिंह वैसा ही सीधा, विनम्र, शांत हो गया — भक्ति और श्रद्धा में परिवर्तित!
भगवान का बल, भक्त के प्रेम का चमत्कार — एक क्षण में विरोधी सैनिक मारे गए, संतजन तथा रानी सुरक्षित। राजा यह सब देख स्तब्ध रह गया — “मेरी पत्नी साधारण नहीं, सच्ची भक्त है।”
समर्पण और अंतर्निष्ठा
राजा ने देहगत अभिमान त्याग दिया, रानी और ठाकुर जी को प्रणाम किया, क्षमा याचना की। रानी बोली — “मुझे राज्य, संपत्ति, संबंध नहीं चाहिए। मेरी संपत्ति तो प्रभु और संतजन हैं।”
समाज में विरोध और बधाइयाँ दोनों थीं, पर रानी के चरित्र में डिगना नहीं था। लज्जा, कुल की मर्यादा, लोकलाज- सबका त्याग कर, रानी भक्तों के बीच, संत-निवास में अपना जीवन गुरुत्व और सेवा में समर्पित कर चुकी थीं।
भक्ति का चमत्कार और अंतिम संदेश
रानी की भक्ति इतनी महाज्वलित थी कि एक दिन, जब उनके पति युद्ध-यात्रा से लौट रहे थे और जहाज भंवर में फँस गया — उन्होंने रत्नावती जी के चरणों का ध्यान किया, जहाज निकल आया। युगों-युगों तक भक्तों के जीवन में ऐसी लीला होती रहे, भगवान किसी की श्रद्धा पुष्ट करने के लिए सदा ऐसे चमत्कार करते हैं।
रानी रत्नावती जी की कथा हमें सिखाती है : भोग-विलास, राजकुल, समाज, संबंध — सबका त्याग कर, जब मनुष्य सच्चे प्रेम और भक्ति में डूब जाता है — समाज निंदा करे या सम्मान दे, भक्त का मार्ग प्रभु का मार्ग है। कोई मर्यादा, कोई डर, कोई सांसारिक भय उसकी श्रद्धा और समर्पण को नहीं रोक सकता।
सूक्ष्म, अडिग, समर्पित श्रध्दा… यही है इस चरित्र का विलक्षण संदेश।
उपसंहार
रानी रत्नावती जी की कथा भाव, श्रद्धा, प्रेम और त्याग का साक्षात् प्रमाण है। महाराज श्री प्रेमानंद जी की वाणी जैसी गहन, रोचक, सजीव है, वैसा ही यह लेख भी आपके हृदय में प्रभु-भक्ति की प्रेरणा जगाता रहेगा।
ईश्वर से प्रार्थना करें — “हे प्रभु! हमें भी अपने चरणों में अनन्य भक्ति, सच्चा प्रेम, और त्याग एवं समर्पण प्रदान करें।”
जय श्री राधे!








