मुसीबत में आपका ध्यान करते हैं तो बल मिलता है। जब आप नहीं होंगे, तो यह बल कैसे मिलेगा?
संत के सान्निध्य में मिलने वाले बल और उनके न रहने पर भी आत्मबल को कैसे बनाए रखें – श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के प्रवचन से गहन मार्गदर्शन।
SPRITUALITY


भूमिका
जब जीवन में संकट आता है, जब मन डर और निराशा से घिर जाता है, तब हम अपने गुरु, संत या किसी दिव्य शक्ति का स्मरण करते हैं। यह स्मरण हमें एक अद्भुत आंतरिक बल देता है, जिससे हम मुसीबतों का सामना कर पाते हैं। लेकिन अक्सर मन में यह प्रश्न उठता है – जब वह संत, गुरु या मार्गदर्शक हमारे बीच नहीं रहेंगे, तब हमें यह बल कैसे मिलेगा? इसी गूढ़ प्रश्न का उत्तर श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अपने प्रवचन में अत्यंत सरल, तर्कसंगत और हृदयस्पर्शी ढंग से दिया है।
संत का सान्निध्य: अदृश्य ऊर्जा का स्रोत
संतों का सान्निध्य केवल शारीरिक उपस्थिति तक सीमित नहीं होता। जब वे हमारे सामने होते हैं, उनके शब्द, उनकी वाणी, उनकी उपस्थिति, हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा, विश्वास और आत्मबल का संचार करती है। जैसे कोई व्यक्ति मोबाइल पर किसी संत का प्रवचन सुनता है, तो उसे मार्गदर्शन तो मिलता है, परंतु प्रत्यक्ष सान्निध्य में मिलने वाला ‘परमाणु’ (दिव्य ऊर्जा) मोबाइल के माध्यम से नहीं मिल सकता। संत स्वयं कहते हैं – "मोबाइल से देखना और फेस टू फेस देखना, दोनों में अंतर है।"
संत के न रहने पर बल कैसे मिलेगा?
यह प्रश्न केवल किसी एक शिष्य का नहीं, बल्कि लाखों श्रद्धालुओं का है। जब संत शरीर में रहते हैं, तब उनके दर्शन, उनके शब्द, उनका आशीर्वाद प्रत्यक्ष बल देता है। लेकिन जब वे अंतर्ध्यान हो जाते हैं, तो उनका प्रत्यक्ष प्रभाव धीरे-धीरे माया (भौतिकता) की धूल में छुपने लगता है। महाराज जी स्पष्ट कहते हैं – "जब तक महापुरुष प्रकट में रहते हैं, तब तक विशेष प्रभाव रहता है। जब अंतर्ध्यान हो जाते हैं, तो धीरे-धीरे माया धूल डाल देती है और उनका प्रभाव अंतर्ध्यान हो जाता है।"
श्रद्धा और स्मरण: संत का अमर प्रभाव
फिर भी, जो श्रद्धालु सच्ची श्रद्धा से संत की वाणी, उपदेश और मार्गदर्शन को जीवन में उतारते हैं, वे आजीवन संत का ‘प्रकट अनुभव’ करते हैं। जैसे नारद जी आज हमारे सामने भले न हों, लेकिन उनकी भक्ति, उनकी वाणी, उनकी भावना हमारे भीतर जीवित रहती है। महाराज जी कहते हैं – "अगर आप श्रद्धा पूर्वक संत की बात को मानते हैं, तो वह आपके भाव में प्रकट होते हैं।"
संत का शरीर नहीं, उनका प्रेम और आनंद अमर है
श्री प्रेमानंद जी महाराज स्वयं कहते हैं – "प्रेम और आनंद तो भगवान ही हैं, यह शरीर प्रेमानंद थोड़ी है।" अर्थात्, संत का शरीर सीमित समय के लिए है, लेकिन उनका प्रेम, उनका ज्ञान, उनकी चेतना, उनका आनंद अमर है। जब तक हम उनकी वाणी को, उनके उपदेश को, अपने जीवन में उतारते हैं, तब तक संत का प्रभाव हमारे जीवन में बना रहता है।
नामजप और साधना: आत्मबल का शाश्वत स्रोत
महाराज जी समाधान देते हैं – "नामजप करो, दूसरों का उपकार करो, तीर्थों का अवगाहन करो, भगवान की कथा सुनो, जिससे सारे पाप नष्ट हो जाएं। यह जो बल है, यह तुम्हें बचा लेगा – नामबल, भगवान का, सेवा बल, परोपकार।"1
यानी, संत के सान्निध्य में जो बल मिलता है, वह केवल उनकी उपस्थिति से नहीं, बल्कि उनके बताए मार्ग – नामजप, सेवा, परोपकार, साधना – से मिलता है। जब हम नियमित रूप से नामजप, भजन, सेवा और परोपकार करते हैं, तो हमारे भीतर वही आत्मबल जागृत होता है, जो संत के सान्निध्य में मिलता है।
श्रद्धा का विज्ञान: आंतरिक ऊर्जा की बैटरी
महाराज जी एक सुंदर उदाहरण देते हैं – "आप श्रद्धावान हो रहे हैं, तो आपकी बैटरी चार्ज हो रही है। और अगर संत अपनी तरफ से संकल्प करके आपको दे दें, तो आप महाबलशाली हो जाएंगे।"1
इसका अर्थ है, संत के प्रति श्रद्धा, उनकी वाणी का पालन, जीवन में उनके मार्गदर्शन को उतारना, हमारी आत्मा की बैटरी को चार्ज करता है। जब संत शरीर में नहीं भी रहते, तब भी उनकी दी हुई साधना, नामजप, सेवा, हमारे भीतर वही ऊर्जा, वही बल बनाए रखते हैं।
प्रकट और अप्रकट संत: प्रभाव का अंतर
महाराज जी कहते हैं, "जब तक संत प्रकट रहते हैं, तब तक धूम मची रहती है। जब अंतर्ध्यान हो जाते हैं, तो धीरे-धीरे माया धूल डाल देती है।" फिर भी, "जो श्रद्धा पूर्वक उनकी बात को मानते हैं, वह आजीवन उनका प्रकट अनुभव करते हैं।"1
इसका तात्पर्य यह है कि संत के अप्रकट होने के बाद भी, उनकी वाणी, उनका उपदेश, उनकी साधना, हमारे जीवन में अमर रहती है – बशर्ते हम उसे श्रद्धा और विश्वास से अपनाएं।
संत का स्मरण: आत्मबल और मार्गदर्शन
जब भी जीवन में कोई संकट, भय, या असमंजस आता है, तो संत का स्मरण, उनकी वाणी, उनकी दी हुई साधना, हमारे भीतर अदृश्य बल का संचार करती है। महाराज जी कहते हैं – "हम तुम्हारे साथ हैं, चाहे ऐसे, चाहे वैसे।"1
यह वचन केवल सांत्वना नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक सत्य है। संत का स्मरण, उनकी वाणी, उनकी साधना, हमारे भीतर वही आत्मबल, वही मार्गदर्शन, वही सुरक्षा का भाव जगाती है, जो उनके प्रत्यक्ष सान्निध्य में मिलता है।
आत्मनिर्भरता: संत के मार्ग पर चलना ही सच्चा बल
महाराज जी बार-बार कहते हैं – "नामजप करो, साधना करो, सेवा करो, अच्छे आचरण करो, यही मनुष्य जीवन है, यही देवत्व है।"1
अर्थात्, संत के बताए मार्ग पर चलना ही सच्चा बल है। जब हम उनकी साधना, उनके उपदेश, उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारते हैं, तो हमें किसी बाहरी सहारे की आवश्यकता नहीं रहती। हमारा आत्मबल, हमारी श्रद्धा, हमारा साधन ही हमें हर संकट, हर भय, हर विपत्ति से उबारने में समर्थ होता है।
संत के न रहने पर माया का प्रभाव
महाराज जी स्पष्ट कहते हैं – "जब संत चले जाते हैं, तो धीरे-धीरे माया धूल डाल देती है, उनका प्रभाव कम हो जाता है।"1
इसका अर्थ है, यदि हम सतत साधना, नामजप, सेवा और संत की वाणी का पालन नहीं करेंगे, तो धीरे-धीरे माया (भौतिकता, आलस्य, मोह) हमारे भीतर संत के प्रभाव को कम कर देगी। इसलिए, सतत साधना, सतत स्मरण, सतत श्रद्धा आवश्यक है।
संत की वाणी: जीवन भर का पाथेय
महाराज जी कहते हैं – "जो श्रद्धा पूर्वक उनकी बात को मानते हैं, वह आजीवन उनका प्रकट अनुभव करते हैं।"1
अर्थात्, संत की वाणी, उनका उपदेश, उनके आदर्श, हमारे जीवन का पाथेय (जीवन-भर का मार्गदर्शन) है। जब हम उन्हें जीवन में उतारते हैं, तो संत हमारे भीतर, हमारी चेतना में, हमारे व्यवहार में, हमारे विचारों में जीवित रहते हैं।
निष्कर्ष: संत का स्मरण, साधना और आत्मबल
संत का सान्निध्य प्रत्यक्ष बल देता है, लेकिन उनका अप्रकट होना कोई हानि नहीं, यदि हम उनकी वाणी, साधना और उपदेश को जीवन में उतारें।
नामजप, साधना, सेवा, परोपकार, अच्छे आचरण – यही आत्मबल का स्रोत हैं।
श्रद्धा, विश्वास और संत की वाणी का पालन – यही संत के न रहने पर भी आत्मबल बनाए रखने का रहस्य है।
माया का प्रभाव तभी बढ़ता है, जब साधना, स्मरण और श्रद्धा में शिथिलता आती है।
संत का प्रेम, आनंद, मार्गदर्शन – शरीर के जाने के बाद भी, साधना और श्रद्धा के माध्यम से हमारे भीतर अमर रहता है।
अंतिम संदेश
जीवन में जब भी संकट आए, भय आए, असमंजस आए – संत का स्मरण करो, नामजप करो, साधना करो। संत के न रहने पर भी, उनकी वाणी, उनका मार्गदर्शन, उनकी साधना हमारे भीतर वही आत्मबल, वही सुरक्षा, वही आनंद, वही दिव्यता बनाए रखते हैं। यही सच्चा संत स्मरण है, यही सच्चा आत्मबल है, यही मानव जीवन का परम लाभ है1।
राधे-राधे।