अंधा भी हो जाय, एकमात्र अपने लक्ष्य की ओर एकाग्र दृष्टि रखे। एक साँवरे रंग के सिवा और कुछ दीखे ही नहीं।

६०-संसारकी ओर से बुद्धिहीन तो हो ही, साथ ही अंधा भी हो जाय, एकमात्र अपने लक्ष्यकी ओर एकाग्र दृष्टि रखे। एक साँवरे रंगके सिवा और कुछ दीखे ही नहीं।

स्याम तन स्याम मन स्याम ही हमारो धन,

आठौं जाम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है।

स्याम हिये, स्याम जिये, स्याम बिनु नाहिं तिये, आँधेकी-सी लाकरी अधार स्याम नाम है।

स्याम गति, स्याम मति, स्याम ही है प्रानपति, स्याम सुखदायी सों भलाई सोभा धाम है।

ऊधौ तुम भए बौरे पाती लेके आए दौरे, जोग कहाँ राखें यहाँ रोम रोम स्याम है।

श्यामके सिवा कुछ रहा ही नहीं ‘जित देखौं तित स्याममयी है।’

६१-किसी भौतिक सुखके लिये या सांसारिक तापकी निवृत्तिके लिये भगवान्से प्रार्थना करना छोटी बात है। उनसे क्या माँगा जाय; हमारे कारण हमारे कोटि-कोटि प्राणप्रतिम प्रियतमको कुछ भी कष्ट हो, यह प्रेमी साधक कैसे सह सकेगा ? एक समयकी बात है कि अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण रथपर कहीं जा रहे थे। अर्जुनको प्यास लगी। पास ही एक कुटिया थी। वहाँ अर्जुन गये तो देखते हैं कि एक वृद्धा तपस्विनी ध्यानमें मस्त है। अर्जुनने आश्चर्यसे देखा कि कुटियाके भीतर तेज नंगी तलवार और पिटाये हुए भाले लटके हैं। अर्जुनने विनयपूर्वक पूछा कि ‘माँ! यह किसलिये ?’ वृद्धा तपस्विनीने कहा- ‘अर्जुन और द्रौपदीका वध करनेके लिये।’ अर्जुन घबड़ा गये और पूछने लगे-‘क्यों माँ! अर्जुन और द्रौपदीने ऐसे क्या अपराध किये हैं?’ उसने कहा-‘अर्जुन और द्रौपदीने हमारे भगवान्‌को अपने सुख और लाजके लिये कष्ट दिया। क्या था, अर्जुन हार गया होता। हमारे श्यामसुन्दरके हाथमें उसने घोड़ोंकी लगाम थमा दी और उस प्यारेका शरीर बाणोंसे बिंध गया, लोहू-लुहान हो गया। उस अर्जुनको पाऊँ तो इन भालोंसे छेद डालूँ। और द्रौपदी ? क्या था, वह नंगी हो जाती; अपनी लाज बचानेके लिये उसने हमारे हरिको द्वारिकासे बुलाया और उनको साड़ी बनना पड़ा। द्रौपदीको पाऊँ तो इस तलवारसे उसका गला उतार लूँ। वे अपनेको ‘भक्त’ कहते हैं; पर उन्हें ध्यान नहीं कि उनके कारण श्यामसुन्दरको कितना कष्ट उठाना पड़ा।’ अर्जुन हक्का-बक्का हो

गया और उस तपस्विनीके चरणोंमें गिर पड़ा और अपने भक्तपनेका उसका अभिमान मिट गया।

६२-जो व्यक्ति संसारके भयसे आर्त होकर अथवा किसी अर्थके साधनके लिये परमात्माको भजता है, वह भक्त कैसा है? एक भावुक भक्तने गीताके ‘आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी’ का बहुत सुन्दर अर्थ किया है। आर्त वह है, जिसका चित्त भगवान्से मिलनेके लिये व्याकुल हो। जैसे सीताजीका जी लंकामें रहते समय था, वैसे ही भक्तका जी भी संसारमें घबड़ाता है और उसकी आँखोंसे भगवान्‌के लिये सौ-सौ धार आँसू बहते रहते हैं। विरह-तापमें अत्यन्त आर्ति ही आर्त भक्तका लक्षण है। मेरे प्राणप्यारे कहाँ मिलेंगे, उन्हें कहाँ खोजा जाय, ऐसी जिज्ञासा भक्तका लक्षण है। गोपियाँ श्यामको ढूँढ़ती फिरीं, उसके लिये वन-वनमें रोती फिरीं। वे तुलसीसे पूँछती हैं- तुलसी ! तुमने हमारे श्यामको देखा होगा। कदम्ब ! तुम्हारी डालियोंपर बैठकर श्यामसुन्दर मुरली बजाया करते थे। यमुने ! तुम्हारा ही हरिका रंग है। तुमने अपने हृदयमें कहीं उन्हें छिपा तो नहीं लिया है?

कुंज कुंज ढूँढत फिरीं खोजत दीनदयाल ।

प्राननाथ पाये नहीं बिकल भईं ब्रजबाल ।।

पूछौ री इन लतनि फूल रहिं फूलन जोई।

सुन्दर पियके परस बिना अस फूल न होई ॥

हे सखि ! हे मृगबधू! इन्हें किन पूछहु अनसरि ।

डहडहे इनके नैन अबहिं कहुँ देखे हैं हरि ॥

हे जमुना ! सब जानि-बूझि तुम हठहि गहत हौ।

जो जल जग उद्धार ताहि तुम प्रगट बहत हौ ॥

हे अवनी ! नवनीत-चोर चितचोर हमारे।

राखे कतहुँ दुराय बता देउ प्रानपियारे ॥

हे तुलसी कल्यानि ! सदा गोबिंद-पद धारी। क्यों न कहौ तुम नंदसुवन सों बिथा हमारी ॥

६३-यही ‘जिज्ञासा’ है। यही जिज्ञासुकी भक्ति है। ऐसा भक्त आर्त भक्तसे बढ़कर है। यह जिज्ञासा ही प्रभुमें एकान्त अनन्यताका भाव उत्पन्न करती है और तभी यह भीतर झलकता है कि हमारे जीवनका एकमात्र अर्थ श्यामसुन्दर हैं। ऐसे ही एकमात्र प्रभुको ही परम अर्थ माननेवाले भक्तको ‘अर्थार्थी भक्त’ कहा है। ऐसे ही भक्तके तन-मन-धन-प्राण-सर्वस्व एकमात्र हरि होते हैं। हरिके सिवा कुछ रह नहीं जाता। मन-चित्त-बुद्धि आदि सारी इन्द्रियाँ केवल श्यामसुन्दरका ही विषय करती हैं! वहाँ आठों याम श्याम ही सो काम है और क्या, रोम-रोम श्याम-ही-श्याम है। दूसरा कुछ है ही नहीं। जहाँ दृष्टि जाय, वहीं श्यामसुन्दर हैं। जगत्‌की ओरसे अंधा हो जाना यही है। मन यदि इन्द्रियोंका साथ न दे तो विषय दीखे ही नहीं। यहाँ मन तो मनमोहनमें लगा हुआ है। फिर इन्द्रियाँ भी उनके सिवा क्या देखें-सुनें ? इस तरह श्रीकृष्णमय जगत्‌को देखनेवाली गोपियोंकी एक बड़ी ही मधुर गाथा है। एक दिन एक गोपीने सखीसे पूछा- ‘बहिन ! क्या कहूँ, नन्द बाबा गोरे, यशोदाजी गोरी, दाऊजी गोरे, घरमें सभी गोरे, पर हमारे श्यामसुन्दर ही साँवरे कैसे हो गये ?’ इसपर एक कृष्णदर्शनमयी गोपीने कहा- ‘बहिन ! क्या तू इतना भी नहीं जानती ?’ अरी –

कजरारी अँखियान में बस्यो रहत दिन-रात।

पीतम प्यारो हे सखी! तातें साँवर गात ॥

गोपीकी कजरारी आँखोंमें केवल श्रीकृष्ण ही बसते हैं। जगत्में उनकी आँख और किसीको देखती ही नहीं। भगवान्‌के सिवा उनके लिये कुछ रहा ही नहीं। आँखें जहाँ जाती हैं वहाँ केवल हरि-ही-हरि होते हैं। शृंगारकी भाषामें प्रेमकी इतनी ऊँची दार्शनिक परिभाषा कहीं नहीं लिखी गयी। हरिको देख लेनेपर संसारका कोई रूप, कोई सौन्दर्य खींच नहीं सकता। ‘उसे’ देख लेनेके बाद जगत् तुच्छ हो जाता है। जगत्‌की ओरसे आँख उठ जाती है, और कुछ रहता ही नहीं। तमाम श्यामसुन्दर हो गया।

६४-इसी प्रकार सारे शब्द भगवान्‌की मुरलीकी ध्वनि हो जायें। जगत्‌की ओरसे बहरा हो जायें। ऐसे ही भगवच्चचर्चाके सिवा दूसरी बात बोले नहीं, बोले तो हरिका नाम, नहीं तो चुप रह जाय। बोलनेके कारण ही सुन्दरदास-जैसे महात्माको एक स्त्रीके गर्भमें जाना पड़ा और जन्म लेना पड़ा। अधिक बोलनेवाला परचर्चा करता है, मिथ्या बोलता है और व्यर्थ बकवाद करता तथा चुगली करता है। जहाँतक हो सके गूँगा बन जाय। जगत्की बात न बोले। असत्य परुषभाषण, ग्राम्यचर्चा अधिक बोलनेसे ही होती है। लूले होनेका अर्थ यह है कि हाथ भगवान्‌की सेवाके लिये ही आगे बढ़ें, विषय-सेवनके लिये न बढ़ें। पंगुका अर्थ है, भगवान्‌का एकान्त आश्रय ले लेना। भगवान्‌की कृपाका भरोसा होनेपर पंगु ही गिरि-पर्वतोंको लाँघ जाता है। जो जगत्के लिये पंगु बन गया, वही उस पार पहुँच गया।

६५-इन्द्रियोंका संचालन विषयोंकी ओर जितना अधिक बढ़ेगा उतना ही अधिक विषयोंका प्रपंच बढ़ेगा। प्रपंचका बढ़ना ही सर्वनाशका आमन्त्रण करना है। इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि सब विषयोंसे इन्द्रियोंको हटा लें- ‘कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।’ यही है अन्तर्मुखी वृत्ति। भगवान्में वृत्तियोंका सहज प्रवाह हो, भगवान्में ही बुद्धि लगी रहे, जगत्में न लगे। वहाँसे मुख मोड़कर भगवान्में लगाना पड़ेगा। आगे चलकर जब सर्वत्र समभावसे भगवान्‌की प्रतिष्ठा हो जायगी, तब सर्वत्र भगवान्‌का ही अखण्ड दर्शन होगा। सभी बाधाओंको हटाकर एक लक्ष्यमें लग जाय। आँख, कान, नाक, जीभ, बुद्धि, मन सभी एकमात्र भगवान्में ही लग जायें। यही ‘तदर्थ कर्म’ है-

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

भगवान्‌को समझकर भगवान्‌की सेवाके लिये ही कर्म करें। यही भगवान्‌की अर्चा है। कार्यका अधिक विस्तार करें ही नहीं। प्रकृति तो अधोगामिनी है ही-वह हमें ले डूबेगी। इसलिये निश्चयपूर्वक अधिक-से-अधिक समय भगवत्कार्यमें ही लगावे।

‘सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’

भगवान्‌का स्मरण छूटा कि संसारके संग्राममें हम मिटे। भगवान्‌का स्मरण ही एकमात्र सहारा है। मनका रोकना तो ‘वायोरिव सुदुष्करम्’ है। इसे बाँधना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। विपरीत विषयोंमे रहकर हम भगवान्‌के अनुकूल रह सकें, यह बहुत ही कठिन है। साधनामें तो जगत्‌को उड़ा ही दे। वह भी हो यह भी हो-दोनों नहीं हो सकते। फँस गये तो निकलना बड़ा कठिन हो जायगा।

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