परिवार में दिव्यांग बच्चे का जन्म: हमारे कर्म या उसके अपने? (श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के प्रवचन पर आधारित)

परिवार में दिव्यांग बच्चे के जन्म का कारण: क्या यह माता-पिता के कर्मों का फल है या बच्चे के अपने पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम? जानिए श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के प्रवचन के आधार पर गहराई से विवेचना।

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6/22/20251 मिनट पढ़ें

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परिवार में दिव्यांग बच्चे का जन्म: कर्म, भाग्य और आध्यात्मिक दृष्टि

भूमिका

जब किसी परिवार में दिव्यांग (विशेष आवश्यकता वाले) बच्चे का जन्म होता है, तो अक्सर मन में यह प्रश्न उठता है—क्या यह हमारे (माता-पिता के) कर्मों का परिणाम है, या उस आत्मा के अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल है? यह सवाल न केवल पीड़ा और जिज्ञासा से भरा है, बल्कि भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन में भी इसका गहरा स्थान है। श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अपने प्रवचन (20:57 से 25:46 मिनट, 22-06-2025 के एकांतिक वार्तालाप) में इस विषय पर अत्यंत संतुलित, गूढ़ और करुणामय उत्तर दिया है।

कर्म का जाल: केवल एक का नहीं, सबका संबंध

महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि किसी भी परिवार में दिव्यांग बच्चे का जन्म केवल एक व्यक्ति के कर्मों का फल नहीं है। यह एक जटिल 'कर्म जाल' है, जिसमें उस आत्मा के प्रधान (मुख्य) कर्म के साथ-साथ माता-पिता, भाई-बहन, परिवार और यहां तक कि समाज के भी सहयोगी (सहायक) कर्म जुड़े होते हैं।

"पूरा संयोग होता है—माता, पिता, भाई, बहन, परिवार—पूरा कर्मों का जाल बिछा हुआ होता है। प्रधान कर्म उस जीव का होता है और सहयोगी कर्म उसके होते हैं।"

इसका अर्थ है कि जिस प्रकार किसी घटना में कई लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं, उसी तरह किसी दिव्यांग बालक के जन्म में भी केवल उसका या माता-पिता का ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार और संबंधित आत्माओं के कर्मों की भूमिका होती है।

दुख और सुख: कर्मों का प्रभाव सब पर

महाराज जी कहते हैं,

"अब जैसे आपका पुत्र है, इस बात के लिए आपको दुख है कि अगर ये स्वस्थ होता, सर्वांग पुष्ट होता, भगवान ऐसा क्यों किया? मां को भी दुख है, भाई को भी, बहन को भी, परिवार को भी, और देखने वाले को भी दुख है—अरे भगवान, इसको ऐसा कष्ट है!"

यहां स्पष्ट है कि जब किसी परिवार में ऐसी घटना घटती है, तो केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरा परिवार, समाज और आसपास के लोग भी उस कष्ट को महसूस करते हैं। यह सब 'कर्म जाल' का हिस्सा है—जिन-जिन को दुख पहुंचना है, उन्हें ही वह दुख मिलता है।

पूर्व जन्म के कर्म: प्रधान कारण

महाराज जी विशेष रूप से बताते हैं कि दिव्यांगता का प्रधान कारण उस आत्मा के अपने पूर्व जन्म के कर्म होते हैं।

"प्रधान कर्म उस जीव का होता है..."

इसका अर्थ है कि उस आत्मा ने अपने पूर्व जन्मों में जो कर्म किए हैं, उनका फल इस जन्म में दिव्यांगता के रूप में प्रकट होता है। लेकिन साथ ही, परिवार के बाकी सदस्यों के भी सहयोगी कर्म होते हैं, जिससे वे भी इस परिस्थिति से प्रभावित होते हैं।

सहयोगी कर्म: माता-पिता और परिवार की भूमिका

महाराज जी के अनुसार,

"सहयोगी कर्म उसके होते हैं।"

यानी माता-पिता, भाई-बहन, परिवार के अन्य सदस्य भी अपने-अपने कर्मों के अनुसार इस परिस्थिति में सहभागी बनते हैं। यदि उनके कर्म अच्छे होते, तो संभव है कि परिवार में सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि का वातावरण होता। यदि पाप या दुष्कृत के कर्म अधिक हैं, तो दुख, रोग, अशांति जैसी परिस्थितियां जन्म लेती हैं।

कर्मों का जाल: सुख-दुख का बंटवारा

महाराज जी ने बहुत सुंदर उदाहरण दिया—

"अगर वही सुकृत (पुण्य) का जाल होता, तो देख के सुख मिलता—मां को, पिता को, भाई को, परिवार को, समाज को। दुष्कृत (पाप) का जाल बिछा हुआ है, तो उन्हीं-उन्हीं को दुख पहुंचेगा, जिन-जिन को दुख पहुंचना है।"

इससे स्पष्ट होता है कि कर्मों का जाल केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरे परिवार, समाज और संबंधों पर असर डालता है। सुख और दुख का बंटवारा भी इसी जाल के अनुसार होता है।

क्या यह केवल दंड है?

यह प्रश्न भी उठता है कि क्या दिव्यांगता केवल दंड स्वरूप है? महाराज जी बताते हैं कि यह केवल दंड नहीं, बल्कि आत्मा के लिए एक विशेष अनुभव, सीख और आध्यात्मिक उन्नति का अवसर भी हो सकता है।

"अब जिससे उसका भी कल्याण हो जाए और आपका भी कल्याण हो जाए, भगवान का नाम जप करते हुए, शास्त्र स्वाध्याय करते हुए, पवित्र आचरण करते हुए, पुण्य स्तोत्रों का पाठ करते हुए, उसको भी स्वीकृत दान कीजिए उस बालक को।"

यानी, परिवार को चाहिए कि वे उस बालक के साथ प्रेम, सेवा और भक्ति भाव से जुड़ें, जिससे उसका और स्वयं परिवार का भी कल्याण हो सके।

आत्मिक दृष्टि: दिव्यांगता और आत्मा का संबंध

महाराज जी दिव्यांगता को केवल शारीरिक या मानसिक कमी नहीं, बल्कि आत्मा के पूर्व कर्मों का परिणाम मानते हैं।

"उसके अंदर जो दुष्कृत प्रभाव से अंग प्रत्यंग बिगड़े हुए हैं, तो अपना वो कल्याण कर लेगा नाम जप में अगर हमारी ऐसी सामर्थ्य है कि हम उसको नाम जप का दान करें तो उसको निश्चित कल्याण की प्राप्ति हो जाएगी।"

यहां 'दान' का अर्थ केवल भौतिक वस्तु देना नहीं, बल्कि प्रेम, सेवा, भक्ति, नाम जप और पुण्य कार्यों के माध्यम से उस आत्मा के कल्याण के लिए प्रयास करना है।

ऑटिज्म, बौद्धिक स्तरहीनता और दिव्य दृष्टि

आजकल ऑटिज्म, बौद्धिक स्तरहीनता जैसी स्थितियां बढ़ रही हैं। महाराज जी स्पष्ट करते हैं कि

"मनुष्य शरीर में रहते हुए भी जो विवेक और विद्वता जो हमारे अंदर प्रवीणता वो नहीं है, हां तो उसको अबोध बच्चा ही कहेंगे चाहे पूरा जीवन जितना भी जी ले, उसे अबोध ही कहेंगे।"

यह सब भी पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है। ऐसे बच्चों के लिए परिवार को चाहिए कि वे भक्ति, सेवा और पुण्य कार्यों के माध्यम से उनका और अपना कल्याण करें। आप में सामर्थ हो तो आप उसको अपने हिस्से का नाम जप दे सकते है 

कर्मों की सावधानी: वर्तमान और भविष्य

महाराज जी बार-बार चेतावनी देते हैं कि

"इसलिए बहुत सावधानीपूर्वक कर्म करो, अब जिससे उसका भी कल्याण हो जाए और आपका भी कल्याण हो जाए।"

यानी, वर्तमान में किए गए पुण्य, सेवा, भक्ति और अच्छे कर्म हमारे और हमारे परिवार के भविष्य को सुखद बना सकते हैं।
कर्म का सिद्धांत यही है—जो जैसा करेगा, वैसा पाएगा।

"कर्मों का ऐसा प्रधान होता है, जरा सा सिस्टम बिगड़ जाए तो अभी सब पागल हो गया आदमी, जरा सिस्टम बिगड़ गया तो अपनी सीमा में बुद्धि केवल उतना ही सोच सकती है जितनी सोचना है।"

योग भ्रष्ट पुरुष और दिव्यांगता

महाराज जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि

"योग भ्रष्ट पुरुष उसे ही कहते हैं जो भगवान का भजन करते हुए चूक हो गई, तो इतनी उस भोग की बहुतायत होगी कि उसको वैराग्य हो जाएगा, पूर्व जन्म के भजन के प्रभाव से और वो अगला जन्म स्वस्थ, सुंदर, सब क्योंकि भजन करता रहा है।"

अर्थात, दिव्यांगता का संबंध योग भ्रष्टता (भजन में चूक) से नहीं, बल्कि पूर्व के पाप कर्मों से है। पुण्य या भजन का परिणाम कभी भी बौद्धिक स्तरहीनता या दिव्यांगता के रूप में नहीं आता।

समाधान: नाम जप, सेवा और भक्ति

महाराज जी अंतिम समाधान के रूप में बार-बार नाम जप, भगवान की कथा श्रवण, भक्ति और सेवा का मार्ग बताते हैं।

"भगवान का नाम जप करते हुए, शास्त्र स्वाध्याय करते हुए, पवित्र आचरण करते हुए, पुण्य स्तोत्रों का पाठ करते हुए, उसको भी स्वीकृत दान कीजिए उस बालक को।"

यानी, परिवार को चाहिए कि वे नकारात्मक सोच, ग्लानि या अपराधबोध से मुक्त होकर, उस बालक को प्रेम, सेवा, भक्ति और पुण्य कार्यों के माध्यम से कल्याण का मार्ग दिखाएं। यह न केवल उस बालक के लिए, बल्कि पूरे परिवार के लिए भी कल्याणकारी है।

निष्कर्ष

परिवार में दिव्यांग बच्चे का जन्म न तो केवल माता-पिता के कर्मों का फल है, न ही केवल उस आत्मा के अपने कर्मों का। यह दोनों के—और पूरे परिवार, समाज, संबंधों के—कर्मों के जाल का परिणाम है। प्रधान कारण उस आत्मा के अपने पूर्व जन्म के कर्म होते हैं, लेकिन माता-पिता और परिवार के सहयोगी कर्म भी इसमें शामिल होते हैं।
समाधान है—पुण्य, सेवा, भक्ति, नाम जप, शास्त्र स्वाध्याय और सकारात्मक दृष्टि। यही मार्ग परिवार और दिव्यांग बालक—दोनों के लिए कल्याणकारी है।

अंतिम संदेश

कर्मों का सिद्धांत गहरा, जटिल और अदृश्य है। इसलिए, किसी भी परिस्थिति में अपराधबोध, ग्लानि या निराशा के बजाय, भक्ति, सेवा, प्रेम और सकारात्मकता को अपनाएं। यही सच्चा आध्यात्मिक मार्ग है, यही श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज की वाणी का सार है।