
यह कथा “धुंधकारी के मोक्ष की कथा” श्रीमद्भागवत पुराण से प्रेरित अत्यंत मार्मिक और गूढ़ उपदेशों से युक्त है। यह कथा न केवल धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और मोक्ष के रहस्य को उद्घाटित करती है, बल्कि जीवन में भगवान के नाम जप, सत्संग, कथा श्रवण और मनन के महत्व को भी विस्तार से समझाती है।
धुंधकारी के मोक्ष की कथा: पाप से मोक्ष तक की अमूल्य यात्रा
प्राचीन काल में कुंभद्रा नदी के तट पर एक अनुपम नगर बसा था। वहां रहने वाले सभी लोग अपने-अपने कर्म और धर्म का पालन करते, सत्य में तत्पर रहते थे। उसी नगर में आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों के ज्ञाता, शास्त्रपारंगत, साधु और अत्यंत दानी थे। उनका तेज़ ऐसा था मानो साक्षात सूर्य देवता हों। लेकिन उनके जीवन में सुख की केवल एक ही कमी थी—संतान का अभाव।
आत्मदेव और धुंधुली: गृहस्थ जीवन की विडंबना
आत्मदेव की पत्नी का नाम धुंधुली था। वह सुंदर और कुलीन थीं, लेकिन स्वभाव से अत्यंत झगड़ालू और कंजूस थीं। घर के छोटे-छोटे कामों में झगड़ा करना, पड़ोसियों से उलझ पड़ना, नकारात्मक विचार – उनके सामान्य व्यवहार का हिस्सा बन गया था। आत्मदेव शांति प्रिय थे, इसलिए वे इन बातों से अधिक सजग न रहते। गृहस्थ जीवन सम्पन्न था, संपत्ति की कोई कमी नहीं थी, लेकिन मानसिक शांति और सुख का अभाव बना ही रहा।
संतानहीनता की पीड़ा और आत्मवंचना
कई वर्षों तक दंपति ने संतान प्राप्ति के लिए हर प्रकार के धर्म–कर्म, व्रत, दान-पुण्य, यज्ञ और पूजा किए, लेकिन कोई फल नहीं निकला। आत्मदेव परेशान और हताश हो गए। उन्हें लगा, उन्हें कुलपरंपरा आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं मिलेगा, पिंडदान कौन करेगा? वे जीवन को व्यर्थ मानकर आत्महत्या की ओर अग्रसर हो गए।
संत का मार्गदर्शन और दिव्य फल
जंगल में आत्मदेव को एक तेजस्वी सन्यासी मिले, जिन्होंने उनकी व्यथा जानकर समझाया कि संतान मोह को छोड़ो, भजन-आराधना करो—यह जीवन का सच्चा उद्देश्य है। लेकिन आत्मदेव पुत्र के लिए अड़ गए। संत ने योगबल से एक दिव्य फल उत्पन्न कर दिया और उसे खिलाने के लिए पत्नी को दे जाने को कहा, साथ ही एक वर्ष संयम, दान, सत्य और ब्रह्मचर्य पालन की शर्तें रखीं।
धुंधुली की चालाकी और पछतावा
धुंधली ने तप, संयम और गर्भधारण के कष्टों से डर रही थी। उसके मन में कई डर और असुविधाएँ थीं – उसे चिंता थी कि एक समय भोजन, शुद्ध आचरण, और गर्भधारण के दौरान की जिम्मेदारी निभा पाना उसके लिए संभव नहीं होगा।
धुंधली ने अपनी बहन से अपना मन साझा किया। उसकी बहन पहले से ही गर्भवती थी, और उसने सलाह दी कि जब उसका बालक जन्मेगा, तो उसे धुंधली को दे देगी। तब तक धुंधली स्वयं गर्भवती होने का नाटक करती रहे और समय आने पर बहन का बालक लेकर सबको यही बताए कि पुत्रधारण हुआ है। बदले में, धुंधली ने अपनी बहन और उसके पति को धन देने का वादा किया। इस बीच, परीक्षा के लिए गाय को वह दिव्य फल खिला दिया गया और उस फल का असर गाय पर हुआ, जिससे एक विशेष बालक उत्पन्न हुआ – गोकर्ण।
इस योजना के अनुसार धुंधली ने नौ महीनों तक गर्भवती होने का नाटक किया, फिर ज्यों ही उसकी बहन ने शिशु जन्मा, चुपचाप उसे अपने घर ले आई और परिवार व समाज में घोषणा कर दी कि उसके पुत्र हुआ है। इस प्रकार, छलपूर्ण यौजना से धुंधकारी का जन्म हुआ और आत्मदेव ने उसे अपना पुत्र समझकर पालन-पोषण किया.
गोकर्ण और धुंधकारी का जन्म
गाय को खिलाए गए फल से अजीब मनुष्याकार बालक उत्पन्न हुआ, जिसका केवल कान गाय जैसे थे—इसका नाम पड़ा गोकर्ण। दूसरी ओर, धुंधुली के पास आई बहन का पुत्र ‘धुंधकारी’ कहलाया।
- गोकर्ण बाल्यकाल से ही विद्वान, धर्मनिष्ठ, तपस्वी और भजन-प्रेमी था।
- धुंधकारी स्वभाव से क्रूर, व्यसनी, अहंकारी, कुकर्मी, चोरी, दुष्कर्म और हिंसा में संलग्न था।
धुंधकारी का पतन
धुंधकारी जैसे-जैसे बड़ा होते जाता, उसके पापकर्म और भी बढ़ते गए। वह अपने माता-पिता को मारता-पीटता, धन और संपत्ति लूटकर वेश्याओं में उड़ा देता, पशु-हत्या और अनीतियों में लिप्त रहता। एक दिन धुंधकारी ने अपने ही पिता आत्मदेव को इतना मारा कि आत्मदेव का धैर्य टूट गया।
गोकर्ण ने दुखी पिता को शास्त्र ज्ञान और वैराग्य का उपदेश देकर वनवास भेज दिया। आत्मदेव ने तन्मयता से भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया और अंत में परम शांति को प्राप्त हुए।
जीवन के मोड़: पत्नी की दुर्दशा व धुंधकारी की दुर्गति
आत्मदेव के वन चले जाने के बाद धुंधकारी ने अपनी मां को भी कष्ट पहुंचाया। मात्र धन के लिए उसकी माता धुंधुली को बार-बार मारा, जिससे दुखी होकर धुंधुली ने कुएं में कूदकर प्राण त्याग दिए। माता–पिता दोनो की मृत्यु के बाद धुंधकारी का पतन और तेज हो गया। अब उसने पाँच वेश्याओं को पालना शुरू कर दिया और धन समाप्त होते ही गिरे हुए कुकर्मों की ओर बढ़ गया।
संगी की साजिश, प्रेतयोनि में प्रवेश
धुंधकारी जब वेश्याओं की फरमाइश पर चोरी और हत्या तक करने लगा, तो वे भयभीत होकर योजनाबद्ध ढंग से एक रात उसे रस्सी से बांधकर, गला घोंटकर, मुंह में अंगारे डालकर मार डालती हैं और घर में दफना कर भाग जाती हैं। धुंधकारी की आत्मा पाप के भार से प्रेतयोनि में भटकने लगती है—लगातार भूखी, प्यासि, किंतु कोई उसे मुक्ति देने वाला नहीं।
गोकर्ण की तपस्या और समाधि
तीर्थ यात्रा से लौटे गोकर्ण को जब धुंधकारी की दुःखद स्थिति का पता चलता है तो वे उसका उद्धार करने का संकल्प लेते हैं। अनेक धर्म-कर्म, तीर्थ-स्नान, गया-श्राद्ध, पिंडदान आदि सब निष्फल रहते हैं। धुंधकारी की आत्मा मुखर होती है—वह भाई से विलाप करते हुए कहती है कि उसके पाप इतने बड़े हैं कि सामान्य श्राद्ध आदि से मुक्त नहीं हो सकता।
श्रीमद्भागवत की महिमा: मोक्ष का उपाय
गोकर्ण वेद, शास्त्र, धर्म के महान ज्ञाता थे। परंतु धुंधकारी की मुक्ति के उपाय के लिए स्वयं सूर्य देवता से संपर्क करते हैं, जिनसे मंत्रणा मिलती है कि सात दिन तक श्रीमद्भागवत श्रवण करवा दो। गोकर्ण इसी आज्ञा का पालन करते हैं—नगर में भागवत सप्ताह का आयोजन करते हैं, श्रोताओं में धुंधकारी को सात गांठ वाले बांस पर बैठाते हैं ताकि वह वायु रूप में कथा श्रवण कर सके।
सात दिन की कथा, प्रेतयोनि से मुक्ति
भागवत कथा शुरू होती है, प्रतिदिन बांस की एक गांठ फटती जाती है, सातवें दिन सभी गांठें फट जाती हैं और धुंधकारी दिव्यरूप में प्रकट होता है—श्यामवर्ण, पीतांबरधारी, मुकुट और मंद-मंद मुस्कान लिए भगवत पार्षद। वह अपने भाई का आभार प्रकट करता है कि केवल सात दिन भागवत कथा और मनन से प्रेतयोनि से मुक्ति मिल गई।
मनन, ध्यान और कथा सुनने का भेद
वैष्णव विमान आते हैं, धुंधकारी भगवत धाम को जाता है लेकिन श्रोता पूछते हैं कि सभी को साथ क्यों नहीं ले जाया गया। उत्तर मिलता है—मनन, श्रद्धा, उपवास, ध्यान और कथा का यथावत श्रवण ही वास्तविक मोक्ष का अधिकारी बनाता है। जो केवल सतही रूप से कथा सुनते हैं, वे अगले वर्ष की कथा के पात्र होते हैं। अगले वर्ष पुनः उपवास एवं मनन के साथ कथा सुनने वालों को भी गोकर्ण जी के साथ भगवान का पार्षद पद प्रदान होता है।
उपदेश और गूढ़ शिक्षा
- जीवन में केवल शरीर, संतान, धन, अभिमान, झूठ और स्वार्थ का कोई महत्व नहीं; भगवान की कथा, नाम जप, मनन और संत संगति से ही वास्तविक उद्धार होता है।
- प्रपंच, कुटिलता, छल-कपट, पापकर्म सिर्फ दुख और नरक का कारण है।
- भगवान के शुद्ध भक्त, जैसे गोकर्ण जी, अपने तप, श्रद्धा और सेवा से न केवल स्वयं, बल्कि दूसरों के भी उद्धार के अधिकारी होते हैं।
- श्रीमद्भागवत की कथा का श्रवण, अध्ययन, मनन, साधना, निश्छलता और दया भाव—इनके बिना जीवन अधूरा है।
जीवन में शांति और मोक्ष: अंतिम भाव
गहरी सीख यह है कि भले ही कोई कितना भी पापी हो, भगवान की कथा, साधु संगति, नाम जप, साधना और दोषस्वीकार व पश्चाताप से उसका भी कल्याण हो सकता है। श्रीमद्भागवत जैसे दिव्य ग्रंथ और संतों की वाणी का अद्भुत लाभ है—यह मृत्युलोक के बंधनों को काटकर भगवत धाम तक पहुंचा देती है।
गीत, भजन और कथा श्रवण का महत्व
कथा के अंत में गोकर्ण जी ने सभी श्रोताओं को उपवास, श्रद्धा, मनन सहित भागवत कथा श्रवण का उपदेश दिया। भगवान स्वयं गोलोक से पार्षद भेजते हैं और कथा मनन करने वालों के लिए स्वयं परमदाम का द्वार खोलते हैं। जीवन की यही यात्रा है—पाप-पुण्य, नरक-मोक्ष, भटकाव-साधना, अंततः भगवत प्राप्ति।
इस प्रकार, “धुंधकारी के मोक्ष की कथा” न केवल भागवत कथा की महिमा का गुणगान करती है, अपितु जीवन के प्रत्येक मोड़ पर धर्म, सत्य, संत संगति और भगवान के द्वार की अनिवार्यता को भी उजागर करती है। जिस प्रकार बांस की गांठें फटती गईं, वैसे ही कथा, साधना और मनन से मन की गांठें भी खुलती हैं और प्राणी परम आनंद को प्राप्त करता है।
निष्कर्ष
नरक से स्वर्ग, पाप से मोक्ष और अज्ञानी से ज्ञानी बनने की यह कथा जीवन को दिशा देती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए मनुष्यता, सेवा, सच्चाई, श्रद्धा और संत-असंगति आवश्यक है। भागवत कथा का श्रवण, मनन, ध्यान—यही आत्मा के कल्याण का परम मार्ग है।
जय श्री राधे! श्रीमद्भागवत कथा अमर रहे, संत वाणी का जयघोष हो!