महर्षि दधीचि भक्तमाल

महर्षि दधीचि भक्तमाल

सज्जनों की सम्पूर्ण विभूति परोपकारके लिये होती है।

एक बारकी बात है, देवराज इन्द्र अपनी सभामें बैठे थे। उन्हें अभिमान हो आया कि हम तीनों लोकोंके स्वामी हैं। ब्राह्मण हमें यज्ञमें आहुति देते हैं, देवता हमारी उपासना करते हैं। फिर हम सामान्य ब्राह्मण बृहस्पतिजीसे इतना क्यों डरते हैं? उनके आनेपर खड़े क्यों हो जाते हैं, वे तो हमारी जीविकासे पलते हैं। ऐसा सोचकर वे सिंहासनपर डटकर बैठ गये। भगवान् बृहस्पतिके आनेपर न तो वे स्वयं उठे, न सभासदोंको उठने दिया। देवगुरु बृहस्पतिजी इन्द्रका यह औद्धत्य देखकर लौट गये और कहीं एकान्तमें जाकर छिप गये।

थोड़ी देरके पश्चात् देवराजका मद उतर गया, उन्हें अपनी गलती मालूम हुई। वे अपने कृत्यपर बड़ा पश्चात्ताप करने लगे, दौड़े-दौड़े गुरुके यहाँ आये; किंतु गुरुजी तो पहले ही चले गये थे, निराश होकर इन्द्र लौट आये। गुरुके बिना यज्ञ कौन कराये, यज्ञके बिना देवता शक्तिहीन होंगे। असुरोंको यह बात मालूम हो गयी, उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्यकी सम्मतिसे देवताओंपर चढ़ाई कर दी। इन्द्रको स्वर्ग छोड़कर भागना पड़ा, स्वर्गपर असुरोंका अधिकार हो गया। पराजित देवताओंको लेकर इन्द्र भगवान् ब्रह्माजीके पास गये, अपना सब हाल सुनाया। ब्रह्माजीने कहा -‘ त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपको अपना पुरोहित बनाकर काम चलाओ।’ देवताओंने ऐसा ही किया। विश्वरूप बड़े विद्वान्, वेदज्ञ और सदाचारी थे; किंतु इनकी माता असुरकुलकी थीं, इससे ये देवताओंसे छिपाकर असुरोंको भी कभी-कभी भाग दे देते थे। इससे असुरोंके बलकी वृद्धि होने लगी।

इन्द्रको इस बातका पता चला, उन्हें दूसरा कोई उपाय ही न सूझा। एक दिन विश्वरूप एकान्तमें बैठे वेदाध्ययन कर रहे थे कि इन्द्रने पीछेसे जाकर उनका सिर काट लिया। इसपर उन्हें ब्रह्महत्या लगी। जिस किसी प्रकार गुरु बृहस्पतिजी प्रसन्न हुए। उन्होंने यज्ञ आदि कराके ब्रह्महत्याको पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियोंमें बाँट दिया। इन्द्रका फिरसे स्वर्गपर अधिकार हो गया।

इधर त्वष्टा ऋषिने जब सुना कि इन्द्रने मेरे पुत्रको मार दिया है तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। अपने तपके प्रभावसे उन्होंने उसी समय इन्द्रको मारनेकी इच्छासे एक बड़े भारी बलशाली दैत्य वृत्रासुरको उत्पन्न किया। वृत्रासुरके पराक्रमसे सम्पूर्ण त्रैलोक्य भयभीत था। उसके ऐसे पराक्रमको देखकर देवराज भी डर गये, वे दौड़े- दौड़े ब्रह्माजीके पास गये। सब हाल सुनाकर उन्होंने ब्रह्माजीसे वृत्रासुरके कोपसे बचनेका कोई उपाय पूछा। ब्रह्माजीने कहा- ‘देवराज ! तुम किसी प्रकार वृत्रासुरसे बच नहीं सकते। वह बड़ा बली, तपस्वी और भगवद्भक्त है। उसे मारनेका एक ही उपाय है कि नैमिषारण्यमें एक महर्षि दधीचि तपस्या कर रहे हैं। उग्र तपके प्रभावसेउनकी हड्डियाँ वज्रसे भी अधिक मजबूत हो गयी हैं। यदि परोपकारकी इच्छासे वे अपनी हड्डियाँ दे दें और उनसे तुम अपना वज्र बनाओ तो वृत्रासुर मर सकता है।’

ब्रह्माजीकी सलाह मानकर देवराज समस्त देवताओंके साथ नैमिषारण्यमें पहुँचे। उग्र तपस्यामें लगे हुए दधीचिकी उन्होंने भाँति-भाँतिसे स्तुति की। तब ऋषिने उनसे वरदान माँगनेके लिये कहा। इन्द्रने हाथ जोड़कर कहा-‘त्रैलोक्यकी मंगलकामनाके निमित्त आप अपनी हड्डियाँ हमें दे दीजिये।’

महर्षि दधीचिने कहा- ‘देवराज ! समस्त देहधारियोंको अपना शरीर प्यारा होता है, स्वेच्छासे इस शरीरको जीवित अवस्थामें छोड़ना बड़ा कठिन होता है; किंतु त्रैलोक्यकी मंगलकामनाके निमित्त मैं इस कामको भी करूँगा। मेरी इच्छा तीर्थ करनेकी थी।’

इन्द्रने कहा- ‘ब्रह्मन् ! समस्त तीर्थोंको मैं यहीं बुलाये देता हूँ।’ यह कहकर देवराजने समस्त तीर्थोंको नैमिषारण्यमें बुलाया। सभीने ऋषिकी स्तुति की। ऋषिने सबमें स्नान, आचमन आदि किया और वे समाधिमें बैठ गये। जंगली गौने उनके शरीरको अपनी काँटेदार जीभसे चाटना आरम्भ किया। चाटते चाटते चमड़ी उड़ गयी। तब इन्द्रने उनकी तपःपूत रीढ़की हड्डी निकाल ली, उससे एक महान् शक्तिशाली तेजोमय दिव्य वज्र बनाया गया और उसी वज्रकी सहायतासे देवराज इन्द्रने वृत्रासुरको मारकर त्रिलोकीके संकटको दूर किया। इस प्रकार एक महान् परोपकारी ऋषिके अद्वितीय त्यागके कारण देवराज इन्द्र बच गये और तीनों लोक सुखी हुए।

संसारके इतिहासमें ऐसे उदाहरण बहुत थोड़े मिलेंगे, जिनमें स्वेच्छासे केवल परोपकारके ही निमित्त- जिसमें मान, प्रतिष्ठा आदि अपना निजी स्वार्थ कुछ भी न हो-अपने शरीरको हँसते-हँसते एक याचकको सौंप दिया गया हो। इसलिये भगवान् दधीचिका यह त्याग परोपकारी सन्तोंके लिये एक परम आदर्श है।

दधीचि ऋषिकी और भी विशेषता देखिये। अश्विनीकुमारोंको ब्रह्मविद्याका उपदेश देनेके कारण इन्द्रने इनका मस्तक उतार लिया था। फिर अश्विनीकुमारोंने इनके धड़पर घोड़ेका सिर चढ़ा दिया और इससे इनका नाम अश्वशिरा विख्यात हुआ था। जिस इन्द्रने इनके साथ इतना दुष्ट बर्ताव किया था, उसी इन्द्रकी महर्षिने अपनी हड्डी देकर सहायता की। सन्तोंकी उदारता ऐसी ही होती है। वज्र बननेके बाद जो हड्डियाँ बची थीं, उन्हींसे शिवजीका पिनाकधनुष बना था। दधीचि ब्रह्माजीके पुत्र अथर्वा ऋषिके पुत्र थे। साभ्रमती और चन्द्रभागाके संगमपर इनका आश्रम था।

यह लेख सर्वभूतहिते रता: whatsapp ग्रुप से लिया गया है. यह ग्रुप भगवान् कि भक्ति में सराबोर होने वालो के लिए बहुत उत्तम है. इस ग्रुप में शामिल होने के लिए नीचे लिंक में शामिल हो सकते है.

सर्वभूतहिते रता: https://chat.whatsapp.com/K8qDnPWAwIc0T4rAjHTSSq

https://t.me/+QJ-CCTmyZlcxNDNl

  • Related Posts

    Safe प्लॉट ख़रीदे, ये चार बिन्दु जाने नहीं तो पैसा डूब जाएगा

    यहां प्रस्तुत है वीडियो (“Legal और Safe प्रॉपर्टी ख़रीदने चाहते हैं तो पहले ये चारों बिन्दु जान लीजिए नहीं तो पैसा डूब जाएगा | Building Byelaws-2025”) का विस्तार से, गहराई…

    Continue reading
    बेटा वापस आ जाओ, मैं मिस करता हूँ- शिखर धवन

    शिखर धवन के हालिया इंटरव्यू में उनका दर्द और भावनाएँ साफ तौर पर झलकती हैं। उन्होंने खुलकर बताया कि कैसे अपने बेटे और बच्चों से दूर होना उनके लिए सबसे…

    Continue reading

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    You Missed

    कौन सी चीज है जिसके पीछे इंसान जन्म से मृत्यु तक दौड़ता रहता है ?

    कौन सी चीज है जिसके पीछे इंसान जन्म से मृत्यु तक दौड़ता रहता है ?

    Gold Price : Chandni Chowk का माहौल और क्या बोले Expert?

    Gold Price : Chandni Chowk का माहौल और क्या बोले Expert?

    शरीर में जमी गन्दगी कैसे निकाले

    शरीर में जमी गन्दगी कैसे निकाले

    लड़ते-लड़ते थक गया हूँ, हस्तमैथुन की लत नहीं छूट रही

    लड़ते-लड़ते थक गया हूँ, हस्तमैथुन की लत नहीं छूट रही

    बोर्ड परीक्षा, मेमोरी बूस्ट, स्टडी हैक्स, मोटिवेशन- प्रशांत किराड के टिप्स

    बोर्ड परीक्षा, मेमोरी बूस्ट, स्टडी हैक्स, मोटिवेशन- प्रशांत किराड के टिप्स

    द कंपाउंड इफ़ेक्ट : किताब आपकी आय, जीवन, सफलता को देगी गति

    द कंपाउंड इफ़ेक्ट : किताब आपकी आय, जीवन, सफलता को देगी गति