प्रश्न- बहन-भाई आपसमें लड़ें तो माता-पिताको क्या करना चाहिये ?
उत्तर- माता-पिताको लड़कीका पक्ष लेना चाहिये; क्योंकि
वह सुवासिनी है, दानकी पात्र है, थोड़े दिन रहनेवाली है; अतः वह आदरणीय है। लड़का तो घरका मालिक है, घरमें ही रहनेवाला है। लड़केको एकान्तमें समझाना चाहिये कि ‘बेटा! बहनका निरादर मत करो। यह यहाँ रहनेवाली नहीं है। यह तो अपने घर चली जायगी। तुम तो यहाँके मालिक हो।’
बहनको चाहिये कि वह भाईसे कुछ भी आशा न रखे। भाई जितना दे, उसमेंसे थोड़ा ही ले। उसको यह सोचना चाहिये कि भाईके घरसे लेनेसे हमारा काम थोड़े ही चलेगा! हमारा काम तो हमारे घरसे ही चलेगा।
* इसके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘तत्त्वचिन्तामणि’ के दूसरे भागमें ‘रामायणमें आदर्श भ्रातृप्रेम’ नामक लेखको मननपूर्वक पढ़ना चाहिये। † बहन, बेटी और भानजीको भोजन कराना ब्राह्मणको भोजन करानेके समान पुण्य माना गया है.
स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।